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उर्दू प्रेस की खबरें- कर्नाटक के मंदिरों में ग़ैर-हिंदू व्यवसाइयों पर पाबंदी लगाना BJP का अपनी सरकार बचाने का प्रयास है

दिप्रिंट का सारांश कि उर्दू मीडिया ने सप्ताह भर में अलग अलग घटनाओं को किस तरह कवर किया, और उनमें से कुछ ने क्या संपादकीय रुख़ इख़्तियार किया.

चित्रण : रमनदीप कौर/ दिप्रिंट

नई दिल्ली: हिजाब विवाद से लेकर, कुछ ज़िलों में मंदिरों और उनके आसपास ग़ैर-हिंदुओं के कारोबार करने पर पाबंदी- कर्नाटक के घटनाक्रम कई महीने से उर्दू अख़बारों की सुर्ख़ियां बटोर रहे हैं. उर्दू अख़बारों ने लगातार इन घटनाओं को कवर किया है, और कुछ ने इन्हें सूबे में भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की ‘अपनी सरकार बचाने की कोशिश’ से जोड़कर देखा है.

उर्दू मीडिया ने ईंधन की बढ़ती क़ीमतों के मद्देनज़र, ख़ासतौर से पांच सूबों में हाल ही में पूरे हुए चुनावों के बाद, विपक्ष के रुख़ पर भी क़रीबी नज़र रखी. इसी तरह 28-29 मार्च की मज़दूरों संघों की हड़ताल, और पाकिस्तानी वज़ीरे आज़म इमरान ख़ान के भविष्य को भी नज़दीकी से कवर किया गया, जिनका सत्ताधारी गठबंधन मुल्क की नेशनल असेम्बली में अपना बहुत खोने जा रहा है, चूंकि गठबंधन के एक प्रमुख सहयोगी ने, संसद में अविश्वास प्रस्ताव पर वोट होने से पहले ही, उनका साथ छोड़कर विपक्ष का दामन थाम लिया है.

दिप्रिंट आपको उर्दू प्रेस के पहले पन्ने की ख़बरों, और संपादकीय लेखों का सार पेश कर रहा है.

कर्नाटक में गर्म हालात

कर्नाटक में सांप्रदायिक रूप से आवेशित घटनाक्रम पिछले कई हफ्तों से उर्दू अख़बारों के पहले पन्ने पर बना रहा है. पहले हिजाब विवाद था, और अब कुछ मंदिर परिसरों के भीतर, ग़ैर-हिंदुओं के कारोबार करने पर पाबंदी का मुद्दा खड़ा हो गया है. 29 मार्च को रोज़नामा राष्ट्रीय सहारा  ने अपने पहले पन्ने पर, इस क़दम के ख़िलाफ बेलगावी नॉर्थ से बीजेपी विधायक अनिल बेनाके के बयान को सात कॉलम में जगह दी.

बेनाके ने कहा था कि ऐसी पाबंदियों का कोई औचित्य नहीं है, और लोगों से ये कहना ग़लत है कि वो कहां से चीज़ें ख़रीदें, लेकिन अगर लोग ख़ुद ही बहिष्कार करने लगें, तो फिर ज़्यादा कुछ नहीं किया जा सकता.

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पेपर ने एक छोटा इनसेट इस पर भी दिया था, कि उगादी (नव वर्ष) से पहले कुछ प्रतिष्ठानों के ‘हलाल’ मीट बेंचने के खिलाफ, कुछ हिंदू संगठनों के प्रचार से, किस तरह सूबे में तनाव बढ़ रहा है.

29 मार्च को ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड (एआईएमपीएलबी) के, हिजाब विवाद पर सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाने की ख़बर को, तीनों अख़बारों ने अपने पहले पन्नों पर जगह दी थी. एआईएमपीएलबी ने कर्नाटक हाईकोर्ट के उस फैसले को शीर्ष अदालत में चुनौती दी है, जिसमें उसने राज्य के कुछ प्री-यूनिवर्सिटी (पीयू) कॉलेजों में हिजाब को बरक़रार रखा, और ऐलान किया कि हिजाब पहनना, इस्लाम मज़हब का ज़रूरी हिस्सा नहीं है.

इनक़लाब  ने 29 मार्च को ये ख़बर भी दी, कि हिजाब पहनने वाली एक छात्रा को किस तरह, कर्नाटक के एक परीक्षा केंद्र से बाहर किया गया, जहां 10वीं क्लास के बोर्ड इम्तिहान चल रहे हैं.


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एआईएमपीएलबी पर सियासत की ख़बर की हेडलाइन थी: ‘अदालतों को ये तय नहीं करना चाहिए, कि किस मज़हब में क्या ज़रूरी है’, और उसने एआईएमपीएलबी की उस बैठक का हवाला दिया, जिसमें एचसी के आदेश के खिलाफ अपील करने का फैसला लिया गया.

30 मार्च के अपने संपादकीय में जिसका शीर्षक था, ‘कर्नाटक में भी नफरत की सियासत’, सियासत  ने लिखा कि ‘अपनी सरकार बचाने के लिए’, जो ‘पिछले दरवाज़े’ से बनाई गई थी, बीजेपी ‘नफरत के प्रचार का सहारा’ ले रही है. उसने आगे लिखा कि सूबे में पार्टी और उसकी सरकार ने, ऐसे क़दम उठाने शुरू कर दिए हैं, जिससे कि लोग उन बुनियादी मुद्दों को भूल जाएं, जिनका सभी नागरिक सामना कर रहे हैं.

विपक्ष पर निगाहें

पांच सूबों में हाल ही में संपन्न हुए विधान सभा चुनावों में कांग्रेस की व्यापक हार, और ग़ैर-बीजेपी पार्टियों के हर क़दम पर, उर्दू मीडिया क़रीबी नज़र बनाए हुए है. केंद्र की निजीकरण नीतियों के खिलाफ मज़दूर संघों की हड़ताल से लेकर, जो 27 मार्च को तीनों अख़बारों के पहले पन्नों पर थी, बीजेपी के खिलाफ एकजुट होने की मांग करने वाले पश्चिम बंगाल मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के विपक्षी नेताओं को लिखे पत्र तक- जो 30 मार्च को इनक़लाब के पहले पन्ने पर था- उर्दू प्रेस ने कुछ भी मिस नहीं किया.

‘विपक्ष का रुख़ क्या है?’ शीर्षक से एक संपादकीय में, 1 अप्रैल को इनक़लाब ने लिखा, कि महागंई और बेरोज़गारी जैसे अहम मुद्दों पर, सरकार को घेरने का मौक़ा होने के बावजूद, विपक्षी पार्टियां उस तरह से आवाज़ नहीं उठा रही हैं जिसकी ज़रूरत है.

पेपर ने ज़ोर देकर कहा कि विपक्षा एकता वक़्त की पुकार है, भले ही उसे थोड़ा-थोड़ा करके हासिल किया जाए. 29 मार्च के अपने संस्करण में, सियासत ने पहले पन्ने पर लिखा कि मज़दूर यूनियनों की हड़ताल का, पहले दिन मिला-जुला असर देखने को मिला.

1 अप्रैल को सियासत और इनक़लाब  दोनों ने, ईंधन की लगातार बढ़ती क़ीमतों के खिलाफ कांग्रेस के विरोध प्रदर्शन की ख़बर को, पहले पन्नों पर प्रमुखता से छापा. उसी दिन अपने संपादकीय में सियासत  ने लिखा, कि विपक्षी दलों में गतिविधियां बढ़ गई हैं, और ऐसा लगता है कि पार्टियों की समझ में आ गया है, कि जब तक वो आम लोगों से जुड़े मुद्दों को उठाने के लिए सड़कों पर नहीं आएंगे, तब तक उन्हें लोगों का समर्थन नहीं मिलेगा.

पेपर ने लिखा कि विपक्षी पार्टियों के बीच जो मतभेद हैं, उन्हें सुलझा कर उन्हें एक साझा मंच पर साथ आना चाहिए, क्योंकि एकजुटता के बिना सरकार से टक्कर लेने की उम्मीद नहीं की जा सकती.


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29 मार्च के अपने संपादकीय में, सियासत  ने लिखा कि पाकिस्तान के वज़ीरे आज़म इमरान ख़ान ने 3 अप्रैल के अविश्वास प्रस्ताव से पहले, राजधानी इस्लामाबाद में एक रैली करके अपनी ताक़त का मुज़ाहिरा करने की कोशिश की. ये रैली लोगों को एक साथ लाने की एक कोशिश थी, हालांकि संपादकीय ने कहा कि इससे अविश्वास प्रस्ताव के ऊपर कोई असर नहीं पड़ेगा, चूंकि कई पार्टियों के सरकार को छोड़ जाने के बाद, सरकार का भविष्य अंधकारमय नज़र आता है.

उसने आगे कहा कि सत्ताधारी पाकिस्तान तहरीके इंसाफ पार्टी (पीटीआई) के बहुत से सदस्य भी, इमरान ख़ान से नाराज़ हो गए हैं, और जो उनके साथ हैं उनका भी कहना है, कि सरकार का गिरना तक़रीबन तय है, और उस मुल्क में ताज़ा चुनाव कराए जाने की ज़रूरत है. जहां तक इमरान ख़ान की रैली का सवाल है, वो एक तरह की ‘चुनावी तैयारी’ है, हालांकि ख़ान के पीएम बने रहने पर शक पैदा हो गया है.

संपादकीय में कहा गया कि एक जनसभा करके विपक्ष की आलोचना करना, हार स्वीकार करने का एक तरीक़ा है. सियासत ने लिखा कि इस्लामाबाद रैली, दरअसल इमरान ख़ान की आशंकाओं को दूर करने की एक कोशिश है, चूंकि इससे सरकार को बचाया नहीं जा सकता.

30 मार्च को रोज़नामा  ने पहले पन्ने पर एक ख़बर दी, जिसमें कहा गया कि पाकिस्तान में राजनीतिक संकट गहरा गया है- जिसमें उनकी ख़ास सहयोगी मुत्तहिदा क़ौमी मूवमेंट पाकिस्तान (एमक्यूएम) सत्ताधारी गठबंधन को छोड़कर, विपक्षी ख़ेमे में दाख़िल हो गई है- और पीएम की कुर्सी पर अब गहरे बादल मंडराने लगे हैं.

अल्पसंख्यक राजनीति

सुप्रीम कोर्ट में केंद्र के इस रुख़ को समझाते हुए, कि किसी राज्य विशेष में किसी समुदाय के अल्पसंख्यक होने की अधिसूचना, राज्यों के अधिकार क्षेत्र में आती है, 29 मार्च को रोज़नामा ने एक संपादकीय में लिखा, कि इस बात का ध्यान रखा जाना चाहिए, कि अल्पसंख्यक नागरिक कौन है, ये सवाल अंत में सियासत की भेंट न चढ़ जाए.

मेघालय-असम सीमा समझौता

30 मार्च को रोज़नामा और इनक़लाब  ने अपने पहले पन्नों पर ख़बर दी, कि असम और मेघालय ने अपने 50 साल पुराने सीमा विवाद को आंशिक रूप से सुलझाने के लिए, एक क़रार पर दस्तखत किए हैं.

रोज़नामा  ने इस रिपोर्ट को प्रमुखता से छापा, जिसमें कहा गया कि केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह, केंद्रीय मंत्री रामेश्वर तेली, सांसद कामाख्या प्रसाद तासा, और मेघालय के उप-मुख्यमंत्री प्रेस्टोन तिंसॉन्ग की मौजूदगी में, दोनों पक्ष 39 वर्ग किलोमीटर में फैले 12 में से 6 इलाक़ों में, अपने सीमा विवाद को सुलझाने पर सहमत हो गए, जिससे दोनों सूबों की सीमा का 70 प्रतिशत हिस्सा, टकराव से मुक्त हो गया.

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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