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नोटबंदी से आम चुनाव तक: दिल्ली की सेक्स वर्कर्स की राजनीति, अर्थशास्त्र, मांग और समस्या का हल

सेक्स वर्कर्स का कहना है कि उनकी मांगें राजनीतिक पार्टियों के मेनिफेस्टो में शामिल की जाएं. ऐसा नहीं होने पर वो नोटा का बटन दबाएंगी.

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सोहम सेन का चित्रण | दिप्रिंट

नई दिल्ली: आम चुनाव सिर पर है और 11 अप्रैल को पहले राउंड की वोटिंग होनी है. इससे जुड़ी बहस राष्ट्रवाद और मुद्दों के बीच बंटी हुई है. लेकिन दो धड़े में बंटी इस बहस से महिलाएं गायब हैं. 2014 के आम चुनाव पर निर्भया गैंगरेप की छाप थी. 16 दिसंबर 2012 को हुए इस वीभत्स गैंगरेप ने महिलाओं से जुड़े मुद्दों को केंद्र में ला दिया था. लेकिन 2019 तक तस्वीर बदल चुकी है.

अब जब महिलाएं चुनावी बहस से गायब हैं तो सेक्स वर्कर्स को किसी बहस का हिस्सा बनाने का वक्त किसके पास होगा. ऐसे में दिप्रिंट ने ये जानने का प्रयास किया है कि हमेशा की तरह चुनावी मुद्दों से गायब रहने वाली सेक्स वर्करों की राजनीति, अर्थशास्त्र के अलावा उनकी मांगें क्या हैं और समस्याओं का हल क्या है?

किस पार्टी-नेता का समर्थन करती हैं ये महिलाएं?

देश की राजधानी दिल्ली में दो तरह से सेक्स वर्क होता है. एक तो संगठित तरीके से जिसमें जीबी (गारस्टिन बास्टिन) रोड जैसी जगह आती है और दूसरा असंगठित तरीके से जिसे करने वालों में घरेलू महिलाएं, कॉलेज की लड़कियां, मसाज पार्लर में काम करने वाली लड़कियों से लेकर सड़क के किनारे काम तलाशने वाली लड़कियां और इंटरनेट आधारित सेक्स वर्क करने वाली लड़कियां होती हैं.

जो असंगठित तरीके से ये काम कर रही हैं उनका राजनीतिक विचार साफ होता है. ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वो जिन परिवारों से आती हैं उनका एक राजनीतिक विचार होता है और ये लड़कियां तुलनात्मक रूप से ज़्यादा पढ़ी लिखी भी होती हैं जिसकी छाप उनकी राजनीति पर मिलती है.

जो महिलाएं संगठित रूप से यानी कोठों पर काम कर रही हैं उनकी शिक्षा से लेकर पारिवारिक पृष्ठभूमि और काम का ढर्रा ऐसा होता है कि उनका राजनीति से दूर-दूर तक कोई नाता नहीं होता. उन्हें लगता है कि किसी के जीतने से कुछ नहीं बदलने वाला और इस देश का कुछ नहीं हो सकता है.

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ऐसे में संगठित तरीके से ये काम कर रही महिलाओं का नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी वाली बहस से कोई लेना-देना नहीं होता. ऐसा इसलिए भी है क्योंकि प्राइम टाइम ख़बरों के समय जीबी रोड जैसी जगहों पर इन महिलाओं के काम का प्राइम टाइम होता है. आप जब कोठों पर जाएंगे तो पाएंगे कि काम के बीच अन्य महिलाओं की तरह यहां की महिलाएं भी टीवी पर सीरियल देख रही होती हैं. ज़ाहिर सी बात है कि ख़बरों से लेकर समाज और नेताओं तक से दूर इन महिलाओं को राजनीति से कोई लेना-देना नहीं होता.

ये सुबह 3 से 5 बजे के करीब सोती हैं और अगले दिन दोपहर में देर से जागती हैं. ऐसे में जब तक ये कोठों की सफाई करके ठीक से जाग रही होती हैं तब तक इनके काम का समय हो जाता है. 6-7 बजे से जब इनका काम शुरू होता है तो इसके ख़त्म होने पर वापस से इनके सोने का समय हो जाता है. इनका काम भी किसी कॉर्पोरेट जॉब की तरह है जिसे करने वालों को दिन-दुनिया की ख़बर या परवाह नहीं होती है.

बातचीत के दौरान एक सेक्स वर्कर ने दिप्रिंट से कहा, ‘नारे लगवाने से लेकर भीड़ इकट्ठा करने तक के लिए नेता असंगठित तौर पर सेक्स वर्क कर रही महिलाओं को अप्रत्यक्ष रूप से संपर्क करते हैं. लेकिन कोठे पर काम करने वाली महिलाओं के पास कोई नहीं जाता.’

इसी सेक्स वर्कर ने ये भी बताया कि कोई भी सफेदपोश मर्द इन महिलाओं के पास दिन के उजाले में नहीं जाता. उल्टे चुनाव में इन्हें इसलिए काफी दिक्कत होती है क्योंकि पेट्रोलिंग बढ़ा जाती है और ये तो सब मानते हैं कि पुलिस के लिए सेक्स वर्कर्स सबसे आसान निशाना होती हैं.

वोटर आईडी है पर वोट नहीं डालती जीबी रोड की महिलाएं

एआईएनएसडब्ल्यू ने दिप्रिंट को जानकारी देते हुए कहा, ‘असंगठित तौर पर यह काम कर रहीं महिलाएं अपने घरों में परिवार वालों के साथ जीवन बिता रही होती हैं. लेकिन उनके परिवार और समाज को पता नहीं होता कि वो क्या कर रही हैं. ऐसे में काम के अलावा का उनका जीवन बाकी की लड़कियों की तरह होता है और उनके सारे कागज़ात भी पूरे होते हैं. उनके पास वोटर आईडी होता है और उनमें से ज़्यादातर वोट भी डालती हैं.’

एआईएनएसडब्ल्यू ने आगे कहा कि जीबी रोड में ज़्यादातर लड़कियां दिल्ली से बाहर की हैं. यही हाल दिल्ली से बाहर के रेड लाइट इलाकों का भी है. इन जगहों पर काम करने वाली महिलाएं साल में एक-दो महीने के लिए अपने घर भी जाती हैं. इनमें से लगभग सबके पास वोटर आई कार्ड हैं. लेकिन इन सबके वोटर आईडी कार्ड उन शहरों के हैं जहां से ये आती हैं.

वोटर आईडी के अलावा इनके पास आधार और बैंक खाते भी हैं. लेकिन बाहर का कार्ड होने और राजनीति से कोई लेना-देना नहीं होने की वजह से ये महिलाएं वोट नहीं डालतीं. एक वजह ये भी है कि बाकी के लोगों की तरह ये भी काम से छुट्टी लेकर वोट डालने नहीं जाना चाहती हैं.

नोटबंदी के दौरान क्या हुआ?

दिल्ली के रिहायशी इलाकों के सेक्स वर्क से जुड़े लोगों से बात करने पर पता चला कि नोटबंदी के दौरान वो किसी तरह से पैसे ले रह थे. एक मसाज पार्लर के मालिक ने कहा, ‘हम पुराने नोट, नए नोट, पेटीएम या कार्ड सब ले रहे थे.’ लेकिन ऑल इंडिया नेटवर्क ऑफ़ सेक्स वर्क्स (एआईएनएसडब्ल्यू) के मुताबिक जीबी रोड का पूरा काम कैश में ही चला रहा था. संस्था का कहना है कि नोटबंदी के दौरान इन महिलाओं का ख़ूब पैसा बर्बाद हुआ. सेक्स वर्करों के पास अगर पुराने नोटों में 50,000 रुपए पड़े थे तो उन्होंने इनके बर्बाद हो जाने के डर से 20,000 रुपए में ही बदल लिये.

सिरदर्द बना जन-धन खाता

सेक्स वर्करों को जन-धन खाते से भी शिकायत है. इन खातों के बारे में कुसुम नाम की एक सेक्स वर्कर ने कहा, ‘शुरू में ये (खाते) ज़ीरो बैलेंस हुआ करते थे. लेकिन अब बैंक वाले इसमें कम से कम 2500 रुपए रखने को कहते हैं. ऊपर से ये भी कहते हैं कि अगर इसके अलावा खाते में पैसे का लेन-देन नहीं होता तो भी पैसे काट लिए जाएंगे.’ वो आगे कहती हैं कि सरकार ने खाता तो खुलवाया लेकिन अब ये सिरदर्द बन गया है.

क्या नोटबंदी के बाद जीबी रोड भी पहुंचा डिजिटल इंडिया?

जैसा कि बताया जा चुका है, जीबी रोड जैसे इलाकों में सारा काम कैश में चलता है. यहां न तो पेटीएम का इस्तेमाल होता है और न ही प्लास्टिक मनी का. दरअसल, यहां पैसा सीधे लड़की को नहीं मिलता. पैसा इनकी मैडम के हाथों में जाता है. वो 15 दिन या महीने में इनका हिसाब करती हैं.

एआईएनएसडब्ल्यू ने बताया कि पेटीएम जैसे माध्यम से पैसे दिए जाने को ख़तरनाक भी माना जाता है. डर ये रहता है कि अगर पुलिस रेड में लड़की का फोन ले लिया गया तो पुलिस उन ग्राहकों का नंबर पता कर सकती है जिन्होंने पेटीएम से पेमेंट की है और उन्हें परेशान भी किया जा सकता है. उल्टे जीबी रोड में आने वाले लोगों का फोन और आईडी लड़की संग कमरे में जाने से पहले जमा करवा लिया जाता है.

क्या हैं इनकी चुनाव से जुड़ी मांगें?

जैसा कि बताया जा चुका है कि सेक्स वर्कर्स के लिए इलेक्शन हो या न हो मायने नहीं रखता है. लेकिन उनसे जुड़ी संस्थाएं उनसे जुड़ी मांग उठाती रहती हैं. 2019 के आम चुनाव से पहले उन्हें लेकर एआईएनएसडब्ल्यू ने पर्चा बनाया है. सेक्स वर्कर्स का कहना है कि ये मांगें राजनीतिक पार्टियों के मेनिफेस्टो में शामिल की जाएं. ऐसा नहीं होने पर नोटा का बटन दबाया जाएगा.

इनकी कई मांगें बेहद मूलभूत हैं. जैसे कि इन्हें सामाजिक सुरक्षा दी जाए और भेदभाव समाप्त किया जाए. वहीं, इनकी एक मांग ये भी है कि 45 साल से ऊपर की सेक्स वर्कर्स को पेंशन दी जाए. इसके पीछे तर्क ये है कि इस उम्र के बाद इनका शरीर काम की स्थिति में नहीं रह जाता और ये वो समय होता है जब इन्हें मदद की सबसे ज़्यादा दरकार होती है.

एक मांग ये है कि मानव तस्करी के कानून के तहत इनका शोषण बंद किया जाए और अगली मांग सबसे मूलभूत है. इस मांग के तहत कहा गया है कि सेक्स वर्क को बाकी कामों की तरह काम माना जाए. इसे अपराध की श्रेणी से बाहर किया जाए.

एआईएनएसडब्ल्यू जैसी संस्थाएं करती हैं इन्हें शिक्षित करने का काम

एआईएनएसडब्ल्यू जैसी संस्थाएं सेक्स वर्कर्स को ये भी बताने की कोशिश कर रही हैं कि चुनाव उनके लिए कितना ज़रूरी है. उन्हें समझाया जा रहा है कि वोट देना कितना ज़रूरी है. ऐसे में ये महिलाएं सवाल करती हैं कि किसे वोट करना ठीक रहेगा? इन सवालों के जवाब के सहारे इन्हें राजनीतिक रूप से शिक्षित किया जाता है. उन्हें बताया जाता है कि जो उनके लिए अच्छा कर रहा है उसे वोट किया जाना चाहिए.

जब वो पूछती हैं कि कौन अच्छा कर रहा है, क्योंकि उन्हें तो काम करने से मतलब है तो उन्हें बताया जाता है कि एंटी ट्रैफिकिंग बिल कौन सी सरकार लेकर आई. उसके पहले कौन सी सरकार ने क्या किया. फिर उन्हें बताया जाता है कि उनके लिए क्या अच्छा और क्या बुरा है और उन्हें वोटिंग के लिए स्वतंत्र छोड़ दिया जाता है.

वो अपने बच्चों की शिक्षा से जुड़े सवाल भी करती हैं. जीबी रोड में रहने वाली सेक्स वर्कर्स के बच्चों को स्कूल में काफी कलंक जैसी स्थिति का सामना करना पड़ता है. कई महिलाएं ऐसी हैं जिन्हें उनके पतियों ने छोड़ दिया है. लेकिन इन महिलाओं के मां-बाप इन्हें अपनाए रखते हैं. ऐसे में इन महिलाओं के बच्चे जहां ये काम करती हैं वहां से दूर अपने नाना-नानी के पास पढ़ाई करते हैं.

कैसे होता है रहना खाना और कितनी है रोज़ की कमाई?

एआईएनएसडब्ल्यू से मिली जानकारी के मुताबिक इनमें से कोई अपना खाना ख़ुद नहीं बनाता. एक किचन होता है जहां सबके लिए खाना बनता है या इनके लिए बाहर से खाना मंगाया जाता है. वहीं जिन कोठों में ये रहती हैं उनमें 3/6 के कमरे होते हैं और एक कमरे में एक लड़की सोती हैं. इन्हीं कमरों में इन लोगों को अपना काम भी करना पड़ता है. वहीं, बरामदे में कई लड़कियां एक साथ सोती हैं.

रहने, खाने और मेकअप के समान के पैसे उस पैसे में से काट लिया जाता है जो ये काम करके कमाती हैं. जीबी रोड में एक व्यक्ति के साथ एक बार शारीरिक संबंध बनाने की कीमत 320 रुपए है. 320 में से अलग-अलग कोठों पर लड़कियों को 170 से 220 रुपए तक दिए जाते हैं. बाकी के पैसे उन पर होने वाले ख़र्च (किराया-खाना) की वजह से काट लिए जाते हैं.

इन्हें कमरे के भीतर ‘बख़शीश’ भी मिलती है और ये पैसा पूरी तरह से इनका होता है. ऐसे में यहां काम करके रोज 1500-2500 तक की कमाई हो जाती है. जीबी रोड में कुल 65 कोठे हैं और एक अंदाज़े के मुताबिक यहां करीब 2000-2500 लड़कियां हैं.

संगठित सेक्स वर्क घटा, लेकिन बाकी की तरह का सेक्स वर्क बढ़ा

एआईएनएसडब्ल्यू ने दिप्रिंट को बताया कि रेड लाइट एरिया और संगठित सेक्स वर्क पहले से घटा है. लेकिन सेक्स वर्क बढ़ा है. घर से लेकर ढाबे, सड़क, मसाज पार्लर और इंटरनेट आधिरत सेक्स वर्क में तेज़ी से बढ़ोत्तरी हुई है. इसकी तरफ ध्यान इसलिए नहीं जाता, क्योंकि ये संगठित सेक्स वर्क की तरह सार्वजनिक नहीं है.

क्या गैरकानूनी है सेक्स वर्क?

जम्मू-कश्मीर भारत का इकलौता राज्य जहां सेक्स वर्क को कानूनी मान्यता है. यहां एक पर्ची कटवाकर कानूनी तौर पर ये काम किया जा सकता है. लेकिन वहां के धार्मिक और राजनीतिक माहौल की वजह से इस काम को चोरी-छिपे किया जाता है. यानी जिस राज्य में इसे कानूनी मान्यता है वहां भी ये गैर कानूनी तरीके से किया जाता है.

एआईएनएसडब्ल्यू द्वारा दी गई जानकारी के मुताबिक बाकी के भारत में भी सेक्स वर्क गैरकानूनी नहीं है. अगर अकेली महिला इस काम को कर रही हो और इसमें पैसे का लेन-देन भी शामिल हो तो भी ये कानूनन अपराध नहीं है. लेकिन जैसे ही वो महिला किसी और महिला को इसमें जोड़ती है तो फिर ये संगठित होने के दायरे में आ जाता है और गैरकानूनी हो जाता है.

उन लड़कियों का क्या होता है जिन्हें इस काम से बाहर निकाला जाता है?

इस काम में लगी बालिग-नाबालिग लड़कियों को महिला आयोग और अन्य संस्थाएं इससे बाहर निकालती रहती हैं. लेकिन जब उन्हें शेल्टर होम में डाला जाता है तो वहां भी उनका शोषण होता है. वहीं, उन्हें सिलाई और दिया बनाने जैसे काम सिखाए जाते हैं, जिनमें मेहनताना न के बराबर मिलता है.

कुसुम कहती हैं, ‘सरकार इन्हें मूलभूत सुविधाएं भी मुहैया नहीं करा पाती. ऊपर से जब किसी को पता चलता है कि ये महिलाएं पहले सेक्स वर्क करती थीं तो वो इनका शारीरिक शोषण करने लगते हैं. बातचीत में दिप्रिंट को पता चला कि इन सबकी वजह से महिलाएं इस काम से बाहर निकाले जाने के बाद वापस इसी काम में लौट आती हैं.’

क्या है इनकी समस्या का हल?

इनके लिए एक बड़ी समस्या ये है कि जो ये करती हैं उसे सामान्य काम नहीं माना जाता. एक सेक्स वर्कर ने दिप्रिंट से कहा, ‘यहां तक कि दिल्ली महिला आयोग की प्रमुख स्वाति मालीवाल भी जब इनसे पहली बार मिली थीं तो उनका सवाल ये था कि ये महिलाएं सेक्स वर्क क्यों करती हैं? क्या इन्हें कोई और काम नहीं मिलता?’

इन महिलाओं के एक तबके को इस सवाल से आपत्ति है. दिप्रिंट को बातचीत में एक सेक्स वर्कर ने कहा कि उनका एक तबका इस काम को बेहद सहजता से लेता है और सामान्य मानता है. उल्टे उनका तो ये तक कहना है कि वो तो किसी के पेशे पर सवाल नहीं उठातीं, चाहे वो पत्रकार हों या महिला आयोग की प्रमुख.

सेक्स वर्करों को लगता है कि जो लोग इसे समस्या मानते हैं वो इसे कभी हल नहीं कर पाएंगे, क्योंकि इस काम में लगे एक बड़े तबके के लिए ये समस्या है ही नहीं. इन लोगों को लगता है कि सबसे पहले इसे काम समझा जाना चाहिए और इसे बाकी कामों की तरह सामान्य काम माना जाना चाहिए. फिर बाकी के कामों की तरह इससे जुड़ी समस्याओं को पहचान कर उनका हल किया जाना चाहिए.

(ये रिपोर्ट जीबी रोड की टोह, असंगठित क्षेत्र की सेक्स वर्कर्स, संगठिक क्षेत्र की सेक्स वर्कर्स और इन महिलाओं के लिए काम करने वाले एआईएनएसडब्ल्यू से बातचीत के बाद मिली जानकारी पर आधारित है.)

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