(मार्क फेबियन, असिस्टेंट प्रोफेसर ऑफ पब्लिक पॉलिसी, यूनिवर्सिटी ऑफ वारविक)
कोवेन्ट्री (ब्रिटेन), 27 नवंबर (द कन्वरसेशन) दुनिया की लगभग सभी सरकारें और बड़ी संख्या में उनके लोगों का मानना है कि अगर स्वस्थ समाज को तमाम चुनौतियों से निपटना है तो इंसानों की वजह से हो रही जलवायु परिवर्तन की समस्या को हल करना बहुत जरूरी है।
जलवायु परिवर्तन की चुनौती से निपटने के लिए अक्सर दो समाधान प्रस्तावित किए जाते हैं, जिन्हें विभिन्न नामों से जाना जाता है लेकिन व्यापक रूप से इन्हें ‘ग्रीन ग्रोथ’ और ‘डीग्रोथ’ के तौर पर जानते हैं। क्या इन विचारों में सामंजस्य स्थापित किया जा सकता है? जलवायु चुनौती के बारे में दोनों समाधान आखिर क्या कहते हैं?
‘ग्रीन ग्रोथ’ का मुख्य आधार मूल रूप से तकनीक पर टिका है, जिसकी वकालत ज्यादातर विकसित देश करते हैं। विकसित देशों का मानना है कि अगर हमें सही निष्कर्ष प्राप्त होते हैं तो तकनीक हमारी रक्षा करेगी।
हम इस विचार के साथ भी खड़े रह सकते हैं कि आर्थिक विकास मानव समृद्धि का केंद्रीय निर्धारक है इसलिए हमें अस्थिर औद्योगिक तौर-तरीकों के लिए सिर्फ तकनीकी सुधार की आवश्यकता है। ये उस वक्त सामने आएंगे जब हम ‘ग्रीन ग्रोथ’ की दिशा में आगे बढ़ेंगे, जिसके लिए सबसे पहले और सबसे महत्वपूर्ण कार्बन कर के बारे में बात करना जरूरी होगा।
इस तरह के विचार के बारे में सोचना अभी भी मुट्ठी में रेत के समान ही है। यह सही है क्योंकि प्रति व्यक्ति सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) वृद्धि की उत्सर्जन दर गिर रही है और आर्थिक मूल्यों में तेजी विचारों से आती है न कि उपकरणों से।
उदाहरण के लिए स्वीडन ने अपना सकल घरेलू उत्पाद 76 प्रतिशत तक बढ़ा दिया लेकिन 1995 के बाद से उसका घरेलू ऊर्जा उपयोग सिर्फ 2.5 प्रतिशत तक ही बढ़ा। लेकिन हम अभी भी कार्बन कटौती के लक्ष्य को पूरा करने में बड़े अंतर से पिछड़ रहे हैं और सार्थक कार्बन मूल्य निर्धारण लागू करने के लिए संघर्ष कर रहे हैं। ‘डीग्रोथ’ का मुख्य आधार स्थिरता सुनिश्चित करना और जीडीपी को अनुबंधित करना है। अंतहीन विकास ने हमें वहां पहुंचाया जहां हम हैं और अंतहीन विकास ही हमारे खात्मे की वजह बनेगा। हमें यथास्थिति को सिरे से खारिज करने और पर्यावरण-समाजवाद के लिए अपना क्रांतिकारी रास्ता अपनाने की जरूरत है। अमीर देशों को, जहां वे हैं, वहीं रुक जाना चाहिए और गरीब देशों की वित्तीय मदद करनी चाहिए ताकि हमारे पास जो कुछ है उसे हम समान रूप से साझा कर सकें।
इस तरह के विचार को ‘राजनीतिक आत्महत्या’ के रूप में चित्रित किया जा सकता है और इस विचार को अमल में लाए जाने के बजाए इस दृष्टिकोण को कमतर किए जाने की अधिक संभावना है।
इन दोनों विचारों को आसानी से दरकिनार किया जा सकता है। हालांकि सही मायनों में बता पाना मुश्किल है कि कौन सा देश किस विचार से इत्तेफाक रखता है क्योंकि वे तेजी से आगे बढ़ने की दौड़ में विचारों के अव्यवस्थित ढेर का प्रतिनिधित्व करते हैं। हालांकि इसमें कोई दो राय नहीं कि बहुत से देश ‘ग्रीन ग्रोथ’ और बहुत से देश ‘डीग्रोथ’ की वकालत करते हैं और विचारों में मतभेद होने के बावजूद कई बिंदुओं पर सहमति जताते हैं।
(द कन्वरसेशन) जितेंद्र मनीषा अविनाश
मनीषा
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