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कैसे यूरोप के 45 देशों में से 13 देशों की महिलाएं सत्ता के शीर्ष पदों पर पहुंची

यूरोपीय देशों ने 1970 के दशक के अंत से सत्ता के शीर्ष पदों के लिए महिलाओं का चयन करना शुरू किया था.

(बाएं से दाएं) डेनमार्क की पीएम मेटे फ्रेडरिकसेन, फिनलैंड की पीएम सना मारिन, फ्रांस की राष्ट्रपति एलिसाबेथ बोर्न और हंगरी की राष्ट्रपति कैटलिन नोवाक | दिप्रिंट

नई दिल्ली: धीरे-धीरे रूस-यूक्रेन युद्ध को तीन महीने पूरे हो गए लेकिन संकट का समाधान अभी भी नजर नहीं आ रहा है. दरअसल यूरोप द्वितीय विश्व युद्ध के बाद से अपने ‘सबसे बुरे दौर‘ का सामना कर रहा है. इस क्षेत्र के लोग बदलते भू-राजनीतिक परिदृश्य को समझने के लिए अपने राजनीतिक नेताओं की ओर रुख कर रहे हैं. इस क्षेत्र के नेतृत्व पर एक नजर डालने से पता चलता है कि 45 यूरोपीय देशों में से 13 में महिलाएं या तो राज्य की मुखिया हैं या सरकार की मुखिया हैं. यह अब तक की सबसे बड़ी संख्या है.

मई की शुरूआत में कोपेनहेगन में आयोजित दूसरे भारत-नॉर्डिक शिखर सम्मेलन की तस्वीरें इसका सबूत हैं. राष्ट्राध्यक्षों के इस ग्रुप में सिर्फ नरेंद्र मोदी और नॉर्वेजियन जोनास गहर स्टोर ही पुरुष प्रधानमंत्री नजर आ रहे थे जबकि डेनमार्क, फिनलैंड, आइसलैंड और स्वीडन देशों की प्रमुख महिलाएं थीं.

इन देशों के अलावा अन्य यूरोपीय देशों मसलन मोल्दोवा, एस्टोनिया, फ्रांस, ग्रीस, हंगरी, आइसलैंड, कोसोवो, लिथुआनिया और सर्बिया में भी महिलाएं सत्ता में शीर्ष पदों पर बैठी हैं.

यूरोप में महिला नेताओं की बढ़ती संख्या को देखकर कोई हैरानी नहीं होती, क्योंकि यहां सत्ता में काफी पहले से महिलाओं का दबदबा रहा है. दिवंगत मार्गरेट थैचर 11 साल तक यूनाइटेड किंगडम की प्रधानमंत्री रहीं थीं. तो वहीं हाल ही में पिछले 16 सालों से जर्मनी की चांसलर रही एंजेला मर्केल ने अपना पद छोड़ा है.

ग्राफिक: रमनदीप कौर | दिप्रिंट

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उच्च पदों पर महिलाएं

वैसे तो आधी आबादी सीमित शक्तियों के साथ नाममात्र के राष्ट्राध्यक्ष के तौर पर काम करती रही हैं लेकिन यह अभी भी कई देशों के लिए पहली बार है कि जब उन्होंने एक महिला को अपने राज्य के प्रमुख के रूप में चुना. इसमें ग्रीस की राष्ट्रपति कतेरीना सकेलारोपोलू, हंगरी की राष्ट्रपति कातालिन नोवाक, स्लोवाकिया की राष्ट्रपति ज़ुज़ाना कैपुटोवा और मोल्दोवा की राष्ट्रपति मैया संदू शामिल हैं. मोल्दोवा में तो राज्य की मुखिया और सरकार की मुखिया दोनों महिलाएं ही हैं. यह एक असाधारण मामला है.

सरकार के प्रमुख के रूप में वास्तविक शक्ति रखने वाली महिलाओं में डेनमार्क की प्रधानमंत्री मेटे फ्रेडरिकसेन, एस्टोनिया की काजा कैलास, फिनलैंड की सना मारिन, आइसलैंड की कैटरिन जैकब्सडॉटिर, सर्बिया की एना ब्रनाबिक और स्वीडन की मैग्डेलेना एंडरसन शामिल हैं. बाद की दो प्रधानमंत्रियों का खास जिक्र करना बनता है क्योंकि ब्रनाबिक सर्बिया के इतिहास में एना ब्रनाबिक पहली महिला और खुले तौर पर समलैंगिक पीएम हैं जबकि एंडरसन स्वीडन के इतिहास में पहली महिला प्रधानमंत्री हैं.

जनवरी 2021 में एस्टोनिया ऐसा पहला देश था जहां राज्य की प्रमुख और सरकार की प्रमुख दोनों पदों पर एक महिला थी लेकिन यह स्थिति पिछले अक्टूबर में बदल गई जब बायोलॉजिस्ट और राजनेता अलार कारिस ने राज्य के सबसे कम उम्र की राष्ट्रपति केर्स्टी कलजुलैद की जगह ले ली.

महिला नेताओं की बढ़ती संख्या की वजह क्या है?

जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में सेंटर फॉर यूरोपियन स्टडीज के प्रोफेसर और जीन मोनेट चेयर उम्मू बावा के अनुसार, महिला नेताओं के आगे आने की वजह प्रगतिशील राजनीति, यूरोपीय संघ के प्रोग्राम के तहत बेहतर प्रतिनिधित्व और युवा पीढ़ी के आने जैसे कारण हैं.

बावा ने कहा, ‘एंजेला मर्केल और कुछ अन्य ने आज यूरोप में नजर आने वाली महिला नेताओं के लिए अच्छे उदाहरण स्थापित किए हैं लेकिन मुझे लगता है कि हाल के समय में महिला नेताओं के उदय के लिए बहुत से कारणों ने संयुक्त रूप से काम किया है. इन कारणों में सबसे पहले, सालों से वेलफेयर और प्रोग्रसिव राजनीति के परिणामस्वरूप यूरोप में सामान्य तौर पर स्थिति का बेहतर होना है. बहुत सारे यूरोपीय संघ के कार्यक्रमों ने भी महिलाओं के अधिक से अधिक राजनीतिक प्रतिनिधित्व को आगे बढ़ाने में मदद की है, इसलिए यह उसी का प्रतिबिंब हो सकता है.’

उन्होंने बताया कि फिनलैंड की सना मारिन जैसी अधिकांश महिलाएं काफी कम उम्र में अपने पदों पर पहुंची हैं. ‘यह युवा वर्ग राजनीति और प्रतिनिधित्व के बारे में अलग तरह की सोच रखता है.’

दिप्रिंट के एक विश्लेषण से पता चलता है कि यूरोप में 13 महिला नेताओं में से एग्जीक्यूटिव पावर वाली महिलाओं की उम्र 36-55 साल के बीच है, जबकि नाममात्र की राष्ट्रध्यक्ष 40 से 65 की उम्र की हैं.

हालांकि, सत्ता में एक महिला का होना इस बात की गारंटी नहीं है कि लोकतांत्रिक आदर्शों को बरकरार रखा जाएगा. मार्च में हंगरी ने अपनी पहली महिला राष्ट्रपति कातालिन नोवाक को चुना था. पीएम विक्टर ओर्बन के एक करीबी सहयोगी रही नोवाक की यह कहकर आलोचना की गई थी कि वे कट्टर समर्थक होने की वजह से इस पद पर आसीन हुई हैं. हालांकि उन्होंने अपने चुनाव को ‘महिलाओं की जीत’ और देश के लिए एक प्रगतिशील कदम के रूप में चित्रित किया था. लेकिन आलोचकों ने उन्हें एलजीबीटीक्यू विरोधी नीतियों के समर्थन के लिए ‘सामाजिक रूप से रूढ़िवादी’ करार दिया.

बावा ने कहा, ‘हाल के वर्षों में हंगरी में लोकतंत्र में गिरावट आई है जिसने यूरोपीय संघ के साथ तनाव पैदा कर दिया है. ओर्बन भी पुतिन समर्थक हैं. जब यूरोपीय संघ लोकतांत्रिक रास्ते से भटकने के लिए देश पर कड़ा प्रयास करने की कोशिश कर रहा है. ऐसे में हैनोवाक को पहली हंगेरियन महिला राष्ट्रपति बनाए जाने के कदम को एक रणनीतिक और एक विक्षेपण रणनीति के रूप में देखा जा सकता है.’


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अभी तक बस दक्षिणपंथी ही

यह देखा गया है कि कई यूरोपीय महिलाएं जो सत्ता के शीर्ष पदों पर काबिज हैं, वो दक्षिणपंथी राजनितिक परिदृश्य से आईं है. थैचर और हाल ही में थेरेसा यूके की कंजरवेटिव पार्टी से थीं. फ्रांस की मरीन ले पेन, जो हाल ही में फ्रांसीसी चुनावों में इमैनुएल मैक्रोन के खिलाफ मैदान में थी, धुर दक्षिणपंथी नेशनल रैली पार्टी से है, जिसने 2017 के राष्ट्रपति चुनावों से अपना वोट शेयर बढ़ाया है. यूरोपीय संघ के प्रमुख उर्सुला वॉन डेर लेयन भी केंद्र-दक्षिणपंथी यूरोपीय पीपुल्स पार्टी ग्रुप से हैं.

यूरोपियन यूनिवर्सिटी इंस्टीट्यूट्स स्कूल ऑफ ट्रांसनेशनल गवर्नेंस के एक रिसर्च फेलो कोस्टानज़ा हर्मा ने यूरो न्यूज की एक रिपोर्ट में इस रुझान की जांच की. उन्होंने कहा, ‘राजनीतिक परिदृश्य का वो हिस्सा जो कथित तौर पर लैंगिक समानता के प्रति अधिक चौकस रहता है – लेफ्ट- उसे एक महिला नेता को सामने लाने में इतनी कठिनाइयों का सामना क्यों करना पड़ रहा है?’

वह आगे कहती हैं कि कुछ कारण हो सकते हैं, जैसे कि अक्सर रूढ़िवादी महिलाओं की मातृ छवि बनाई जाती है. हालांकि, यह कोई निर्णायक व्याख्या नहीं है.

कोलकाता के जादवपुर विश्वविद्यालय में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों की प्रोफेसर इशानी नस्कर के अनुसार, ऐसा माना जाता है कि दक्षिणपंथी महिलाओं के पास मजबूत ‘पारिवारिक मूल्य’ हैं और इसलिए वे ‘भरोसेमंद’ हैं.

नस्कर ने कहा, ‘थैचर और मर्केल जैसे नेताओं के मजबूत, पारंपरिक पारिवारिक मूल्य थे. जब वे न केवल सत्ता हथियाने बल्कि उसे बनाए रखने में सफल रहीं, तो लोगों का उन पर विश्वास बढ़ा. दूसरी तरफ देश का नेतृत्व करना अभी भी यूरोप में एक ‘मर्दाना’ भूमिका के रूप में देखा जाता है. महिलाओं भले ही राज्य की प्रमुख या सरकार की प्रमुख बन जाएं लेकिन लोगों का नजरिया नहीं बदलता. वे पुराने चश्मे से ही चीजों को देखना जारी रखते हैं’

विशेष उल्लेख

ब्रिटेन के घटक देशों में महिलाएं भी आगे आकर नेतृत्व कर रही हैं. स्कॉटलैंड की पहली मंत्री निकोला स्टर्जन हैं. वहीं उत्तरी आयरलैंड में जहां 5 मई को चुनाव हुए थे, मिशेल ओ’नील को प्रथम मंत्री के रूप में नामित करने की संभावना है. हालांकि एक कार्यकारी का गठन होना बाकी है.

स्विट्ज़रलैंड का जिक्र करना भी जरूरी है. यह एक अनोखा देश है जहां वास्तव में कोई राष्ट्रपति या प्रधानमंत्री शो नहीं चलता. बल्कि, इसकी सात सदस्यीय संघीय परिषद हैं जो राज्य और सरकार के सामूहिक प्रमुख के रूप में कार्य करती हैं.

सात पार्षद विभिन्न सरकारी विभागों के प्रमुख हैं और परिषद के अध्यक्ष पद के लिए हर साल चुनाव कराया जाता है. फिलहाल इसके अध्यक्ष इग्नाज़ियो कैसिस हैं. मौजूदा समय में परिषद में तीन महिलाएं हैं – वियोला एम्हेर्ड जो रक्षा, नागरिक सुरक्षा और खेल प्रमुख हैं, करिन केलर-सटर, जो न्याय और पुलिस प्रमुख हैं और सिमोनेटा सोमारुगा, जो पर्यावरण, परिवहन, ऊर्जा और संचार की प्रमुख हैं.

चूंकि जॉर्जिया एक अंतरमहाद्वीपीय देश है (यूरोप और एशिया में स्थित), इसकी अधिकांश आबादी एशिया में रहती है. इसे दिप्रिंट की 45 यूरोपीय देशों की सूची से बाहर रखा गया था. इस  देश ने 2018 में अपनी पहली महिला राज्य प्रमुख, राष्ट्रपति सैलोम ज़ुराबिचविली को चुना था.


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यूरोप में महिला नेताओं का इतिहास

यूरोप के लिए महिला नेता कोई अजनबी नहीं है. वह लंबे समय से सत्ता के साथ जुड़ी रही हैं. हालांकि पूरी दुनिया में सरकार का नेतृत्व करने वाली पहली महिला एशिया से थीं-सिरिमावो भंडारनायके जो 1960 में श्रीलंका की प्रधानमंत्री बनीं. उपमहाद्वीप में दिवंगत इंदिरा गांधी और बेनजीर भुट्टो जैसी महिला प्रधानमंत्रियों ने राजनीतिक परिदृश्य को बदल दिया.

बांग्लादेश की मौजूदा पीएम शेख हसीना और ताइवान की मौजूदा राष्ट्रपति साई इंग-वेन ने भी यह साबित कर दिया है कि एशिया में महिलाओं के लिए राजनीति कोई नई जगह नहीं है.

1970 के दशक के उत्तरार्ध से यूरोपीय देशों ने महिलाओं को राष्ट्राध्यक्ष या सरकार प्रमुख के रूप में चुनना शुरू किया था. इनमें से कई महिलाओं ने सत्ता पर काबिज रहने में महारत हासिल कर ली. थैचर ने 1979 से 1990 तक यूके के पीएम के रूप में अपना पद संभाला, जबकि मर्केल ने 2005 से 2021 तक जर्मन चांसलर के रूप में काम किया. मिल्का प्लानिन 1982-1986 तक पूर्व यूगोस्लाविया की पीएम रहीं थी.

2010 के दशक में कई देशों ने अपनी दूसरी या तीसरी महिला नेताओं का चुनाव करना शुरू किया, जैसे यूके में थेरेसा मे और पोलैंड में ईवा कोपाज़.

राजनीतिक विश्लेषकों, इतिहासकारों और महिला अधिकार कार्यकर्ताओं का कहना है कि यूरोप में महिला नेताओं की मौजूदा बढ़ती संख्या एक महत्वपूर्ण झुकाव का संकेत नहीं देती है. बावा कहते हैं, ‘महिलाओं के सामने से नेतृत्व करने के लिए एक निर्विवाद मानदंड बनने से पहले बहुत कुछ करने की जरूरत है.’

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