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काबुल में गुरुद्वारे पर IS के हमले के 2 महीने- सिख दुविधा में भारत चलें या तालिबान पर यकीन करें

18 जून के हमले से बेहद छोटा-सा सिख समुदाय अफगानिस्तान छोडऩा चाहता है, लेकिन तालिबान को एहसास हुआ कि सिख-हिंदू समुदाय के साथ अच्छे बर्ताव से भारत से रिश्ते सुधर सकते हैं.

हमले के बाद फिर से बनाया जा रहा कर्त-ए-परवान गुरुद्वारा | फोटो: ज्योति मल्होत्रा ​​| दिप्रिंट

काबुल: काबुल के संपन्न मोहल्ले कर्त-ए-परवान में अफगानिस्तान का छोटा-सा सिख समुदाय एकजुट और सिमटा रहा है. दो साल के भीतर गुरुद्वारे पर इस्लामिक स्टेट (आईएस) के दूसरी बार हमले से कभी बेहद धनी-मानी रहा यह समुदाय डर से कांप रहा है. इस समूह का न सिर्फ क्षेत्रीय व्यापार पर कब्जा रहा है, बल्कि वह मेडिसिन और इंजीनियरिंग जैसे प्रोफेशनल के मामले में भी प्रमुख हिस्सेदारी निभाता रहा है.

ताजा हमला कर्त-ए-परवान में गुरुद्वारा दशमेष पिता गुरु गोविंद सिंह कर्ते परवान गुरुद्वारे में हुआ, जिसमें दो सिख मारे गए. इसके पहले काबुल में एक और गुरुद्वारे पर हमले में 25 लोग मारे गए थे.

इस 15 अगस्त को सत्ता में वापसी के साल भर का जश्न मनाने वाली अफगानिस्तान की तालिबान सरकार ने जून के हमले के बाद दशमेष पिता गुरु गोविंद सिंह गुरुद्वारे के बाहर न सिर्फ चौबीसों घंटे सुरक्षा इंतजाम का आदेश दिया, बल्कि गुरुद्वारे के पुनर्निर्माण के लिए 40 लाख अफगानी (करीब 40 लाख रु.) देने का वादा किया.

अफगानिस्तान में जन्मे सिख समुदाय के नेता राम शरण कहते हैं, ‘तालिबान बार-बार हमसे पूछ रहे हैं कि कैसे मदद कर सकते हैं. वो हर तरीके से मदद करना चाहते हैं. हम जिस तरीके से चाहें, वे मदद करना चाहते हैं.’ शरण कबूल करते हैं कि सिर्फ 100-120 सिख और हिंदू ही आज देश में बचे हैं, लेकिन इस बात को मानने से इनकार करते हैं कि 200 साल पुरानी विरासत खत्म होने वाली है.

अफगानिस्तान की इस्लामी अमीरात के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता अब्दुल कहर बाल्खी भी राम शरण जैसी ही बातें करते हैं.

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कुछ पहले काबुल में दिप्रिंट के साथ विशेष बातचीत में बाल्खी ने कहा था, ‘अफगानिस्तान सभी अफगानियों का साझा घर है. यहां हिंदू और सिखों सहित अल्पसंख्यक समुदाय हैं. उनका अफगानिस्तान में लंबा इतिहास है. हमने उन्हें सुरक्षा प्रदान की है. हमने उनकी जायदाद लौटाई है, जो जलालाबाद और दूसरी जगहों पर पूर्ववर्ती शासकों ने ले ली और छीन ली थी.’

जाहिर है, तालिबान सरकार को एहसास है कि अगर वह अपने छोटे-से सिख-हिंदू समुदाय के साथ करुणा और वित्तीय मदद के प्यार से पेश आती है तो उससे उसकी हिंसा और अपने लोगों के मानवाधिकारों पर हमले की छवि में काफी सुधार होगा.

इसके अलावा, अगर भारत को अफगानिस्तान में लौटने के लिए फिर आश्वस्त करना है तो अपने सिखों और हिंदुओं के साथ बेहतर बर्ताव ही काबुल और दिल्ली के बीच भरोसा बहाली का पहला तरीका हो सकता है. भारत के लौटने का मतलब न सिर्फ मान्यता हासिल होना है, बल्कि उन अधूरी परियोजनाओं का भी पूरा होना है, जो पुरानी सरकार के नेताओं के भाग जाने के पहले चल रही थीं. इसके अलावा, नई परियोजनाएं भी हो सकती हैं.


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गुरुद्वारे की बाहरी दीवार पर आज भी हमले के निशान हैं | फोटो: ज्योति मल्होत्रा ​​| दिप्रिंट

भारत ने तालिबान की अंतरिम सरकार या अफगानिस्तान के इस्लामिक अमीरात को मान्यता नहीं दी है, लेकिन तालिबान के सत्ता में आने के बाद बंद हो गए काबुल के दूतावास को जून में फिर खोला गया. नई दिल्ली ने अफगान राजधानी में राजनयिकों और दूसरों की ‘तकनीकी टीम’ रवाना किया, ताकि वहां मानवीय मदद में ‘करीबी निगरानी और समायोजन’ किया जा सके.

देश के सिख समुदाय को मदद और सुरक्षा का वादा करने की तालिबान की एक तीसरी वजह भी है.

इस्लामिक अमीरात को मालूम है कि वह इस्लामिक स्टेट को अफगानिस्तान में अपनी सत्ता को चुनौती देने की इजाजत नहीं दे सकता, जिसे उसने पिछले 21 साल तक विदेशी ताकतों और विरोधी अफगानों से लड़कर हासिल किया है. अमीरात का मानना है कि 15 अगस्त 2021 को यह सवाल तय हो गया कि ‘कौन बेहतर और पाक मुसलमान है’, जब उसने बिना कोई गोली चलाए काबुल में मार्च किया और पूर्व राष्ट्रपति अशरफ गनी अपने कुछ सहयोगियों के साथ देश छोड़कर भाग गए.

बाल्खी के मुताबिक, ‘आईएसआईएस बेकसूर लोगों के खिलाफ हिंसा में मशगूल रहा है, लेकिन सरकार उन गुटों को बेमानी बनाने में बड़े पैमाने पर कामयाब रही है और जब तक वे पूरी तरह अफगानिस्तान की धारती से खत्म नहीं हो जाते, हम अपनी कोशिशें जारी रखेंगे.’

उन्होंने आगे कहा, ‘इस्लामिक स्टेट या दयेश का मानना है कि इस धरती पर सिर्फ वे ही मुसलमान हैं. सूफी और दूसरे मुसलमान जो कुछ अलग व्याख्या करते हैं, ऐसे बहुसंख्यक मुसलमानों को वे खत्म कर डालना चाहते हैं. अहम बात यह है कि अफगानिस्तान में उनका कोई समर्थन नहीं है.’

डर में जिंदगी

कर्त-ए-परवान में गुरुद्वारे का मूल स्वरूप लौटा लाने के लिए जून के हमले के बाद से ही मजदूर दिन-रात काम कर रहे हैं. कुछ दीवारों पर जलालाबाद की हरे रंग के संगमरमर के स्लैब चिपकाए जा रहे हैं, तो कुछ पर सफेद संगमरमर के स्लैब. छत की रंगाई-पुताई चल रही है.

उसके चारों ओर देवदार के ऊंचे पेड़ इस्लामिक स्टेट के फिदायीन हमले के मौन गवाह की तरह खड़े हैं. हमला जून की दुर्भाग्यपूर्ण सुबह करीब 6.30 बजे हुआ था. बाहरी दीवार पर छर्रों और धमाके के दाग हैं. फिदायीन हमलावर ने गुरुद्वारे के फाटक पर अपनी ट्रक को दे मारा था और गोला-बारूद, छर्रे चारों ओर उड़ने लगे थे.

फाटक से घुसते ही अंगूर की बेलें ईश्वर के इस घर को कुछ अलग छवि प्रदान करती हैं, जिन्हें अब मोटे स्टील के दरवाजें में बंद किया गया है. सिख धर्म का प्रतीक ‘खंड’ अंदर के दरवाजे से झांकता है. गुरु ग्रंथ साहिब (सिख धर्म का पवित्र ग्रंथ, जिसे सिख जीवित गुरु की तरह पूजते हैं) गुरुद्वारे से गायब है और उसे गुरुद्वारे के पुनर्निर्माण तक किसी पवित्र श्रद्धालु के घर में रखा गया है.

तालिबान की काफी मदद से गुरुद्वारे का निर्माण पूरा हो जाने के बाद उसे अपनी जगह स्थापित कर दिया जाएगा.

गुरुद्वारे के बगल में हकीम नरिंदर खालसा फोलिक मेडिकलिस्ट की दुकान | फोटो: ज्योति मल्होत्रा ​​| दिप्रिंट

हमले का असर इतना तगड़ा था कि बगल में यूनानी और आयुर्वेदिक औषधियों की दुकान हकीम नरिंदर खालसा फोलिक मेडिकल के शीशे के दरवाजे ही नहीं बिखर गए, बल्कि कुछ गलियों दूर सिखों के घरों की शीशे की खिड़कियां भी थर्रा उठीं.

कर्त-ए-परवान में सुरपाल सिंह के विशाल मकान की दशा भी यही हुई. एक पखवाड़े पहले वे अपनी जवान पत्नी और चार साल की बेटी (उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘गुरु ने हमारी शादी के 7 साल बाद उसे प्रसाद की तरह दिया है.’) को काबुल एयरपोर्ट पर दिल्ली की उड़ान के लिए छोड़ आए.

सुरपाल सिंह का जन्म अपनी पिता की तरह काबुल में ही हुआ. उनकी पत्नी अफगान सिख हैं. भारत लौटने का फैसला मुश्किल था, लेकिन बकौल उनके, ‘हालात इतने बदतर हैं’ कि यही फैसला आसान लगा.

राम शरण की ही तरह सुरपाल सिंह यह नहीं कह पाते कि अफगानिस्तान में सिख समुदाय के दिन गिने-चुने हैं. लेकिन हमलों का खौफनाक सिलसिला जारी है-2018 में जलालाबाद, 2020 में काबुल में शोर बाजार जिसमें 25 सिख मारे गए और 2022 में कर्त-ए-परवान, जिसमें दो सिख मारे गए.

खुशकिस्मति से जून की उस सुबह बहुत लोग गुरुद्वारे के आसपास नहीं थे, क्योंकि अरदास 7.10 बजे होनी थी. फिदायीन हमलावर गुरुद्वारे के फाटक पर करीब 45 मिनट पहले पहुंच गया.

हमले के अगले कुछ दिन घबराए सिख समुदाय ने मोदी सरकार से भारत के लिए वीजा देने का अनुरोध किया.
तबसे कुछ तो आ गए हैं, आने वाले महीनों में और दस्ते आएंगे.

फिलहाल जो अफगानिस्तान में हैं, उन्होंने सोमवार को भारत की आजादी की 75वीं वर्षगांठ का जश्न नहीं मनाया. भारत अभी उनका देश नहीं है, भले वही एकमात्र ऐसी जगह है, जहां वे सुरक्षित महसूस कर सकते हैं, या अपने देशवासी अफगान मुसलमानों की तरह तालिबान की सत्ता में वापसी के साल भर पर कुछ विशेष नहीं कर सके.

डर और अनिश्चितता के भंवर में फंसे अफगानिस्तान के सिखों ने खुद को बंद कर लिया है, जिसे उन्होंने हमेशा अपना घर समझा, उसके नए शासकों से उन्हें पूरा भरोसा मिला है, लेकिन वे अभी कोई दांव खेलने को तैयार नहीं हैं. जहां तक ‘घर’ की बात है तो एक और दरवाजा हाल में बहाल हुई काबुल-दिल्ली उड़ान से खुला है, यह विचार करने लायक तो है ही.

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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