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‘जलेबी-फाफड़ा संडे’ नई कोशिश, पर अब तक शिवसेना गुजरातियों को लुभाने की कोशिशों में रही नाकाम

शिव सेना परंपरागत रूप से मराठी मानुष और बाहरियों के खिलाफ राजनीति करती रही है, अब वो धनाढ्य गुजरातियों को लुभाने में जुटी है, पर ये आसान काम नहीं.

महाराष्ट्र के सीएम उद्धव ठाकरे (बीच में) | सूरज सिंह बिष्ट | फाइल फोटो ThePrint

मुंबई: शिवसेना ने मुंबई की गुजराती आबादी के बीच पैठ बनाने के लिए रविवार को एक ब्रेकफास्ट इवेंट आयोजित किया जिसके मेनू में था कुरकुरा फाफड़ा और स्वादिष्ट जलेबियां, और इस मौके पर इस समुदाय के नौ व्यवसायियों को पार्टी में शामिल किया गया.

नाश्ते की उसी थाली में एक शानदार वड़ा पाव परोसकर यह संदेश देने की कोशिश भी की गई कि मुंबई में मराठी और गुजराती समुदाय का केवल सह-अस्तित्व ही नहीं है बल्कि वह साथ-साथ चलते भी हैं, और शिवसेना दोनों को साथ लेकर चल सकती है.

इस कार्यक्रम की टैग लाइन थी, ‘मुंबई मा जलेबी ना फाफड़ा, उद्धव ठाकरे आपड़ा (मुंबई में जलेबी और फाफड़ा है, उद्धव ठाकरे अपना है).’

एक 54 साल पुरानी राजनीतिक पार्टी की तरफ से ब्रेकफास्ट इवेंट का आयोजन असामान्य लगता है, जो एक नेटिविस्ट (मराठी मानुस) और एंटी-माइग्रेंट (बाहरी) एजेंडे के साथ अस्तित्व में आई और जो परंपरागत रूप से स्थानीय निवासियों और उनकी संस्कृति का सम्मान किए बिना मुंबई को अपना लॉन्चपैड बनाने की कोशिशें करने के लिए धनाढ्य गुजरातियों को निशाना बनाती रही है. आखिरकार, पार्टी कभी इस धारणा के आधार पर ही फलती-फूलती रही है कि गुजराती मुंबई को महाराष्ट्र से अलग कर देना चाहते हैं.

हालांकि, राजनीतिक मजबूरियों ने पिछले कुछ सालों में शिवसेना को मुंबई के गुजरातियों को साधने और लुभाने के प्रयास करने को बाध्य किया है, खासकर चुनावों से पहले. वड़ा पाव-फाफड़ा कूटनीति को शिवसेना के गढ़ और उसकी शक्ति और प्रभाव का केंद्र माने जाने वाले बृहन्मुंबई महानगर पालिका (बीएमसी) के 2022 को होने वाले चुनावों से पहले अभी तक का सबसे नया प्रयास माना जा रहा है.

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राजनीतिक मजबूरियां

यद्यपि यह पूर्व में महापौर के पदों पर जीत हासिल करती रही है, लेकिन शिवसेना ने बीएमसी पर नियंत्रण पहली बार 1985 में किया जब उसने 75 सीटें जीतीं. यह सफलता उसे तब मिली थी जब उसने यह अभियान चलाया था कि मुंबई कैसे ‘मराठी मानुष’ की है.

तीन दशक बाद मुंबई की चुनावी जनसांख्यिकी में मराठी मतदाताओं का प्रतिशत काफी घट गया है.

पिछले कुछ वर्षों में शहर के दादर, परेल, लालबाग और गिरगांव जैसे मराठी बहुल इलाकों में छोटे-मोटे घरों और चॉल में रहने वाले परिवार बड़े हो गए हैं. पुनर्विकास नीतियों के कारण चरमराती चॉलों और छोटी इमारतों की जगह आलीशान गगनचुंबी इमारतों और आलीशान महंगे घरों ने ले ली है, ऐसे में निम्न-मध्यम और मध्यम वर्ग के मराठी परिवारों ने थोड़ी ज्यादा जगह वाले बड़े और किफायती घरों की तलाश में मुंबई के बाहरी इलाकों ठाणे, डोंबिवली, विरार आदि और यहां तक कि पुणे और नासिक जैसे शहरों की ओर रुख करना बेहतर समझा.

धीरे-धीरे बदलती जनसांख्यिकीय ने शिवसेना को अपनी कट्टर मराठी समर्थक और ‘माटी का लाल’ वाली छवि बदलकर अधिक समावेशी चोला अपनाने को बाध्य किया है ताकि वह मुंबई के गैर-मराठियों खासकर गुजरातियों और उत्तर भारतीयों के बीच पहुंच बना सके.

नाम न देने की शर्त पर मुंबई के एक शिवसेना विधायक ने कहा, ‘जब मराठी आबादी कम हो गई है, तो हमें अन्य समुदायों की ओर को देखना होगा. बालासाहेब के समय (शिवसेना के संस्थापक बाल ठाकरे) से ही इसके प्रयास शुरू हो गए थे. हमारे पास एक गुजराती प्रकोष्ठ था, लेकिन इसका नेतृत्व करने वाले नेता ने छोड़ दिया और फिर यह ठप पड़ गया. लेकिन, पिछले कुछ वर्षों से हम सभी समुदायों के मतदाताओं पर सक्रियता से नजर रखे हैं.’

उन्होंने कहा, ‘शिवसेना के लिए यह मुश्किल नहीं है. आखिरकार, संकटों के दौरान चाहे वह बाढ़ हो या अब कोविड जैसी महामारी हमने हमेशा मुंबई और उसके लोगों के लिए जाति, भाषा या धर्म में भेदभाव किए बिना काम किया है.’

उक्त नेता ने कहा कि मुंबई में लगभग 28-30 प्रतिशत मराठी मतदाता हैं, अन्य 30 प्रतिशत गुजराती, मारवाड़ी और जैन हैं, इसके बाद उत्तर भारतीय, दक्षिण भारतीय, मुस्लिम और ईसाई आते हैं.

अब जबकि पूर्व सहयोगी भाजपा एकदम कट्टर प्रतिद्वंद्वी बन गई है, शिवसेना के लिए गुजराती और जैन मतदाताओं को आकर्षित करना और भी ज्यादा अहम होग गया है.

परंपरागत रूप से भगवा गठबंधन में मुंबई के मराठी बहुल क्षेत्रों के वार्ड में शिवसेना मैदान में उतरती थी वहीं गुजराती और उत्तर भारतीय बहुल वार्ड भाजपा में खाते में जाते थे. इस तरह से शहर के गुजराती समुदाय का झुकाव अब तक भाजपा की ओर ज्यादा रहा है.

गुजराती समुदाय से नजदीकी की कोशिशें

1 मई 2014 को शिवसेना ने मुंबई के गुजरातियों पर आरोप लगाया कि वह अपने शहरों को सोने का बनाने के लिए मुंबई को ‘एक सेक्स वर्कर की तरह’  इस्तेमाल कर रहे हैं. सामना के एक संपादकीय में पार्टी ने सवाल उठाया था कि क्या गुजराती इसका साथ देने और धन और प्रसिद्धि पाने के बाद राज्य को कुछ लौटाने को तैयार हैं.

गुजरातियों को इस तरह निशाना बनाने पर तमाम लोगों को कोई आश्चर्य नहीं हुआ, लेकिन अगले दिन शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे के रुख ने जरूर हैरत में डाल दिया. ठाकरे और उनके बेटे आदित्य ठाकरे ने यह कहते हुइ इस संपादकीय से खुद को अलग कर लिया कि गुजराती हमेशा बाल ठाकरे के साथ खड़े रहे हैं.

शिवसेना ने 2017 के निकाय चुनावों से ऐन पहले सितंबर 2016 में भाजपा के इस मूल जनाधार को साधने की कोशिशें शुरू कीं क्योंकि शिवसेना को अच्छी तरह पता था कि अब उसे भाजपा, जो उस समय राज्य में उसकी सहयोगी थी, को ही मुख्य प्रतिद्वंद्वी मानते हुए लड़ना होगा.

भाजपा, जो उस समय बीएमसी में सेना की कनिष्ठ सहयोगी थी, शहर में सियासी समीकरणों को उलटने की उम्मीद के साथ तेजी से आगे बढ़ने की कोशिश कर रही थी, जैसा उसने 2014 में राज्य स्तर पर किया था.

शिवसेना ये जोखिम मोल नहीं ले सकती थी कि भाजपा को बीएमसी में बराबर ताकत हासिल हो जाए क्योंकि इससे न केवल राज्य स्तर पर शिवसेना सौदेबाजी की स्थिति में नहीं रहेगी, बल्कि बाल ठाकरे के नेतृत्व की साख भी खतरे में पड़ जाएगी क्योंकि 2017 का चुनाव बाल ठाकरे की मृत्यु के बाद बीएमसी का पहला चुनाव था.

सितंबर 2016 में शिवसेना ने राज्य की आवास नीति जारी होने से पहले समुदाय को लुभाने के लिए बड़े पैमाने पर गुजराती भाषियों वाले उपनगर घाटकोपर में गुजराती भाषा में पोस्टर लगवाए.

बाद में शिवसेना ने बृहद मुंबई गुजराती समाज के हेमराज शाह, कांदीवली से भाजपा की गुजराती विंग के उपप्रमुख राजेश दोशी, प्रोड्यूसर तेजस गोहिल जैसे गुजराती नेताओं को पार्टी में शामिल किया.

नोटबंदी को लेकर नरेंद्र मोदी की अगुवाई वाली सरकार पर लगातार निशाना साधने के दौरान शिवसेना इस अभियान में मुंबई के नाराज कारोबारी समुदाय खासकर गुजरातियों को साथ लाने की कोशिशें करती रही.

2019 के लोकसभा चुनाव से पहले दक्षिण मुंबई में शिवसेना के उम्मीदवार अरविंद सावंत को गुजराती समुदाय के बीच पहुंचने की कवायद के तहत मालाबार हिल, कोलाबा और कफ परेड जैसे सम्पन्न इलाकों में गुजराती में छपे पर्चे बांटते देखा गया था.

फिर, 2019 के राज्य विधानसभा चुनावों से पहले भी शिवसेना ने अपने निर्वाचन क्षेत्र वरली में गुजराती प्रचार सामग्री के साथ गुजराती मतदाताओं को लुभाने का प्रयास किया.

अपने परिवार से पहली बार चुनाव मैदान में उतरे आदित्य ठाकरे ने ‘केम छो वरली’ के संदेश के साथ अपनी आउटडोर होर्डिंग लगवाईं? और इसके लिए शिवसेना के परंपरागत सहयोगियों की तरफ से उन्हें सोशल मीडिया पर काफी ट्रोल भी किया गया.

हालांकि, दक्षिण मुंबई में शिवसेना के एक पदाधिकारी ने कहा कि अन्य समुदायों तक पहुंचना शिवसेना को उसके मूल जनाधार से दूर नहीं करता है.

उन्होंने कहा, ‘यह एक दुष्प्रचार वाला एजेंडा है कि अन्य समुदायों से नजदीकी बढ़ाने के कारण हमें हिंदुत्व की राह छोड़ धर्मनिरपेक्ष बनने वाला साबित कर दिया जाए. जबकि सच्चाई यह है कि हर राजनीतिक दल में विभिन्न समुदायों के नेता होते हैं. शिवसेना ने अपनी शुरुआत के समय से ही पूरी ईमानदारी से मराठी समुदाय के लिए काम किया है. 90 प्रतिशत नेता, कार्यकर्ता मराठी हैं, इसीलिए यहां ऐसी कोई गुंजाइश नहीं है.’

उन्होंने कहा, ‘हमारे कोर मराठी मतदाता अब भी जानते हैं कि शिवसेना ही उनके लिए एकमात्र विकल्प है क्योंकि हम शुरुआत से ही उनके लिए काम करते रहे हैं.’

प्रयास वोटों में तब्दील नहीं हुए

हालांकि, मुंबई के गुजरातियों और जैनियों को लुभाने के लिए शिवसेना की तरफ से लगातार कई वर्षों से किए जा रहे प्रयास वोटों में तब्दील होते नजर नहीं आ रहे हैं.

2014 के बाद से दो बार शिवसेना और भाजपा ने अलग-अलग चुनाव लड़ा है—2014 का राज्य विधानसभा चुनाव और 2017 में मुंबई नगर निकाय का चुनाव. इसमें ज्यादातर गुजराती बहुल वार्डों और निर्वाचन क्षेत्रों में भाजपा ही जीती.

2014 के विधानसभा चुनाव में शिवसेना ने मुंबई के 36 निर्वाचन क्षेत्रों में से 14 और भाजपा ने 15 पर जीत हासिल की.

सेना ने ऐसे लगभग सभी निर्वाचन क्षेत्रों में जीत हासिल की, जो परंपरागत रूप से मराठी भाषी आबादी वाले हैं, जैसे माहिम, सेवरी, वरली, मैगाथाने, भांडुप और विक्रोली आदि. लेकिन कई अन्य स्थानों पर पार्टी एक बड़े अंतर से भाजपा से हार गई, खासकर उपनगरों में जो जनसांख्यिकी लिहाज से ज्यादा कॉस्मोपॉलिटिन हैं.

गुजराती बहुल इलाकों में शुमार दहिसर से विनोद घोसलकर और गोरेगांव से सुभाष देसाई के अलावा सायन-कोलीवाड़ा और कोलाबा से मंगेश सतमाकर और पांडुरंग सकपाल जैसे प्रमुख शिवसेना नेताओं की हार पार्टी के लिए एक बड़ा झटका थी.

नतीजों के बाद शिवसेना के राज्यसभा सांसद संजय राउत, जो सामना के कार्यकारी संपादक भी हैं, ने अपने कॉलम में लिखा था कि मुंबई के गुजरातियों ने बाल ठाकरे द्वारा दिए गए अहसानों को भुला दिया और भाजपा को सिर्फ इसलिए चुना क्योंकि प्रधानमंत्री और तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष अमित शाह उनके समुदाय के हैं.

2017 के बीएमसी चुनाव में शिवसेना ने 14 गुजराती उम्मीदवारों को मैदान में उतारा, जिनमें से केवल दो ने जीत हासिल की.

राजनीतिक विश्लेषक प्रकाश बाल ने कहा, ‘वास्तव में मुझे नहीं लगता कि गुजराती समुदाय शिवसेना के साथ आएगा. जमीनी स्तर पर सैनिकों को गुजरातियों से कोई प्रेम नहीं है. सांस्कृतिक रूप से भी शिवसेना एक अलग पार्टी रही है.’

उन्होंने आगे कहा, ‘मुंबई में रहने वाले गुजराती यहां तक कि युवा भी खुद को नरेंद्र मोदी के साथ ही जोड़ पाते हैं. इस मामले में कोई भी खुद की पहचान को आदित्य ठाकरे, उद्धव ठाकरे यहां तक कि देवेंद्र फड़नवीस से नहीं जोड़ पाता है. शिवसेना मुंबई चुनाव में दिखाना चाहती है कि कैसे वह सभी समुदायों को साथ लेकर चल रही है लेकिन वह इसे वोटों में तब्दील करने में सफल नहीं होगी.’

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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