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ममता, द्रौपदी मुर्मू की वकालत क्यों कर रही हैं? बंगाल CM का कहना है राष्ट्रपति चुनाव में उनकी ‘संभावना अधिक’

तृणमूल प्रमुख की टिप्पणी के एक दिन बाद रविवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि एनडीए की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू पार्टियों के बीच ‘एकजुटता का माध्यम’ बन सकती हैं.

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पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी नई दिल्ली में कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी के साथ बैठक से पहले मीडिया को संबोधित करते हुए, जुलाई 2021 | फोटो: सूरज सिंह बिष्ट/दिप्रिंट

कोलकाता: पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी का यह कहना कि अगर विपक्षी दलों के साथ नाम पर पहले चर्चा की जाती तो वह भाजपा-नीत राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार द्रौपदी मुर्मू के समर्थन पर विचार कर सकता था, इस बयान के एक दिन बाद रविवार को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि मुर्मू की उम्मीदवारी सभी दलों को एक साथ ला सकती है.

बैठक में मौजूद सूत्रों के मुताबिक, हैदराबाद में रविवार को भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) की राष्ट्रीय कार्यकारिणी की बैठक को संबोधित करते हुए मोदी ने ममता का नाम लिए बगैर कहा कि एनडीए की राष्ट्रपति पद की उम्मीदवार सभी दलों के लिए ‘एकजुटता का माध्यम’ बन सकती हैं. प्रधानमंत्री ने कुछ विपक्षी दलों की तरफ से मुर्मू की उम्मीदवारी का समर्थन किए जाने के संदर्भ में यह बात कही.

प्रधानमंत्री ने मुर्मू की विनम्रता और समाज के उत्थान के लिए उनके कार्यों के बारे में बताया. निर्वाचित होने पर वह राष्ट्रपति बनने वाली पहली आदिवासी महिला होंगी.

आदिवासी समुदाय के एक सदस्य को अपना उम्मीदवार चुनने के एनडीए के फैसले को मोदी सरकार का मास्टरस्ट्रोक माना जा रहा है. मुर्मू की उम्मीदवारी को बीजेपी के सहयोगी दलों के अलावा बीजू जनता दल, शिरोमणि अकाली दल (एसएडी) और बहुजन समाज पार्टी (बसपा) ने खुले तौर पर समर्थन दिया है.

तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) प्रमुख ने शुक्रवार को संवाददाताओं से कहा कि अगर एनडीए ने बतौर दावेदार मुर्मू का नाम विपक्षी दलों के साथ पहले साझा किया होता, वह भी उस पर ‘चर्चा’ करता.

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उन्होंने आगे कहा, ‘उन्होंने हमारे साथ चर्चा नहीं की, उन्होंने हमसे हमारा सुझाव मांगा था. अगर उन्होंने हमें नाम बताया होता तो हम विपक्ष की बैठक में इस पर चर्चा करते. हम जानते हैं कि महाराष्ट्र के घटनाक्रम के बाद द्रौपदी मुर्मू की संभावना अधिक है लेकिन मैं एकजुट विपक्ष के फैसले के साथ खड़ी हूं.’

यह प्रतिक्रिया ऐसे समय में महत्वपूर्ण है जब ममता बंगाल में बीजेपी के आदिवासी जनाधार में सेंध लगाने की कोशिश में जुटी हैं, जिसने 2019 के आम चुनावों के दौरान राज्य में पार्टी की सफलता में अहम भूमिका निभाई थी. उस समय पार्टी ने 18 सीटों के साथ यहां सबसे ज्यादा सीटें हासिल की थीं.

वह ममता ही थीं जिन्होंने इस महीने के शुरू में देशभर के कई विपक्षी दलों को पत्र लिखकर नई दिल्ली में 15 जून की बैठक में भाग लेने को कहा था ताकि आगामी राष्ट्रपति चुनावों के लिए एक साझे उम्मीदवार का नाम तय किया जा सके. पूर्व केंद्रीय मंत्री यशवंत सिन्हा कांग्रेस समेत 13 विपक्षी दलों के सर्वसम्मति से राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के रूप में उभरे. उनकी उम्मीदवारी की घोषणा करने के लिए विपक्षी दलों की बैठक से कुछ ही समय पहले उन्होंने टीएमसी से इस्तीफा दे दिया.

दार्जिलिंग से भाजपा सांसद राजू बिस्ता ने दावा किया कि ममता का ‘आदिवासी विरोधी रुख अब उजागर हो गया है.’

उन्होंने दिप्रिंट से कहा, ‘द्रौपदी मुर्मू हमारे देश की पहली आदिवासी महिला राष्ट्रपति होंगी लेकिन उन्होंने (ममता) विपक्ष के साथ मिलकर इसके खिलाफ जाने का फैसला किया. इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि नाम की घोषणा कब की गई. दलित हों, आदिवासी हों या गोरखा, ममता बनर्जी ने हमेशा उनकी उपेक्षा की है और उनके विकास के लिए कुछ खास नहीं किया है. मैं इस पर कोई टिप्पणी नहीं करना चाहूंगा कि क्या विपक्ष को अपना उम्मीदवार हटा लेना चाहिए था. विरोध करना उनका धर्म है और वे यही करते रहे हैं.’


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ममता की आदिवासी समुदाय को लुभाने की कोशिश

अभी पिछले साल ही जब पश्चिम बंगाल में राज्य विधानसभा चुनाव हुए थे, ममता ने राज्य में हिंदू, आदिवासी और दलितों के बीच अपनी खोई जमीन फिर से हासिल कर ली थी जो कम से कम 240 विधानसभा क्षेत्रों में खासी अहमियत रखते हैं.

पश्चिम बंगाल में अनुसूचित जाति (एससी) के लिए 66 आरक्षित सीटें हैं, जो राज्य की कुल आबादी में लगभग एक चौथाई हिस्सेदारी रखते हैं. वहीं 16 सीटें अनुसूचित जनजाति (एसटी) के लिए आरक्षित हैं, जो राज्य की आबादी में करीब छह प्रतिशत हैं. 2011 की जनगणना के मुताबिक, पश्चिम बंगाल की एसटी आबादी 5.29 मिलियन थी.

2019 के लोकसभा चुनावों के दौरान भाजपा को पश्चिम बंगाल में मिली सफलता का कारण काफी हद तक हिंदुओं, एससी, एसटी, हिंदू दलितों और नामसुद्र मतदाताओं का समर्थन मिलना रहा है. भाजपा ने अपने आदिवासी मोर्चों और आरएसएस शाखाओं की मदद से इन समुदायों का विश्वास हासिल किया था जो एक ऐसा वोटबैंक है जिसे तृणमूल ने उस साल राजनीतिक रणनीतिकार प्रशांत किशोर के आने के पहले तक बहुत गंभीरता से नहीं लिया था.

लेकिन देर से ही सही ममता फिर आदिवासी समर्थन जुटाने की कोशिश कर रही हैं, खासकर पुरुलिया, बांकुरा, झारग्राम और पश्चिम मिदनापुर जिलों तक फैले राज्य के जंगलमहल इलाके में. यह दक्षिण बंगाल क्षेत्र है जहां भाजपा ने 2019 में सबसे ज्यादा बढ़त हासिल की थी.

पुरुलिया में टीएमसी ने कुल नौ सीटों में से तीन जीतीं जबकि भाजपा ने छह सीटें हासिल कीं. इसी जिले से सटे बांकुड़ा में पिछले साल भाजपा ने 12 में से सात सीटें जीती थीं. जबकि टीएमसी ने झारग्राम जीता और पश्चिम मिदनापुर में 13 सीटें जीतकर खोई हुई जमीन फिर हासिल की, भाजपा ने खड़गपुर सदर और घटल की केवल दो सीटें जीतीं लेकिन बीजेपी के लिए घाटल में जीत का अंतर मात्र 0.43 प्रतिशत था.

राष्ट्रीय भूमिका और 2024 में भाजपा से सीधे मुकाबले के अवसर, कम से कम पश्चिम बंगाल में, को देखते हुए ममता ने पिछले कुछ सालों में राज्य की आदिवासी आबादी के साथ मजबूत संबंध बनाने के लिए अतिरिक्त प्रयास किए हैं—फिर चाहे एक आदिवासी विकास विभाग की स्थापना हो, जाति प्रमाणपत्र जारी करने के लिए विशेष शिविर लगाना या फिर पिछले महीने पुरुलिया में अपनी प्रशासनिक बैठक के दौरान एसटी समुदाय की तरफ से शिकायतें मिलने के बाद अपने अधिकारियों को स्थानांतरित करना.

संथाल, लोढ़ा और कुर्मी सभी के लिए अलग-अलग विकास बोर्ड बनाए गए हैं. एसटी और एससी के लिए यूनिवर्सिटी हों, पॉलिटेक्निक कॉलेज हों या सड़कें बनाना, बंगाल की मुख्यमंत्री ने इन समुदायों के लिए किए जाने वाले कार्यों को प्राथमिकता दी है, खासकर यह जानते हुए कि उनका समर्थन बेहद अहम है.

राजनीतिक विश्लेषक और गैंगस्टर स्टेट: द राइज एंड फॉल ऑफ द सीपीआई (एम) इन वेस्ट बंगाल के लेखक सौर्य भौमिक ने दिप्रिंट को बताया, ‘लगता है कि ममता बनर्जी द्रौपदी मुर्मू को अपना उम्मीदवार चुनने के भाजपा के कदम की काट ढूढ़ने की कोशिश कर रही हैं, जो निश्चित तौर पर देश के साथ-साथ पश्चिम बंगाल में आदिवासियों पर भी गहरा असर डालेगा, जहां वे पहले से ही मजबूत हैं और जहां ममता बनर्जी 2021 के चुनावों में अपनी थोड़ी-बहुत जमीन हासिल करने में कामयाब रही हैं.

उन्होंने आगे कहा कि ममता की टिप्पणी को ‘परोक्ष समर्थन’ के रूप में देखा जा सकता है. ‘लेकिन अब थोड़ी देर हो चुकी है क्योंकि लोग पहले से ही जानते हैं कि उन्होंने ही मुर्मू के खिलाफ उम्मीदवार के रूप में यशवंत सिन्हा को मैदान में उतराने के लिए विपक्ष की बैठक आयोजित की थी.’

इस बीच, कोलकाता के बंगबाशी कॉलेज में राजनीति विज्ञान के एसोसिएट प्रोफेसर ओर राजनीतिक विश्लेषक उदयन बंधोपाध्याय ने दिप्रिंट से कहा, ‘ममता बनर्जी ने द्रौपदी मुर्मू का समर्थन नहीं किया है, उन्होंने केवल इतना कहा कि विपक्ष इस पर पहले सोच सकता था. यह भाजपा पर है क्योंकि उन्होंने यशवंत सिन्हा की उम्मीदवारी से पहले उनके नाम का उल्लेख नहीं किया था.’

उन्होंने आगे कहा, ‘ममता ने दोहराया है कि वह विपक्षी उम्मीदवार के साथ खड़ी हैं. उन्होंने मुर्मू के प्रति अपना सॉफ्ट कॉर्नर इसलिए जाहिर किया है क्योंकि वह एक महिला हैं और आदिवासी समुदाय से ताल्लुक रखती हैं. यही भावना सीताराम येचुरी ने भी व्यक्त की थी. यदि पश्चिम बंगाल की बात करें तो आदिवासी इस समय टीएमसी के साथ हैं. उन्होंने 2019 में कुछ समय के लिए भाजपा को चुना था लेकिन मुझे संदेह है कि इस राष्ट्रपति चुनाव का आदिवासी वोटिंग पैटर्न पर कोई सीधा प्रभाव पड़ेगा.’

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