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आगरा में मायावती के कोर वोटर को BJP के पक्ष में लाने में जुटीं ‘दलित की बेटी’ बेबी रानी मौर्य

अपने निर्वाचन क्षेत्र में दिप्रिंट को दिए एक इंटरव्यू के दौरान बेबी रानी मौर्य ने बताया कि वह आगरा की एक दलित बस्ती में बीते अपने बचपन के दिनों से ही राजनीति में आने की इच्छुक रही थीं.

उत्तराखंड की पूर्व राज्यपाल और आगरा ग्रामीण से भाजपा की उम्मीदवार बेबी रानी मौर्य | फोटो: मनीषा मोंडल/दिप्रिंट

आगरा: उत्तराखंड की राज्यपाल और आगरा की मेयर रह चुकी 65 वर्षीय बेबी रानी मौर्य आगामी उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में करीब 15 साल के बाद पहली बार मैदान में उतरी हैं.

दलितों के अधिकारों पर जोर देने वाली बहुजन समाज पार्टी (बसपा) प्रमुख मायावती के मुख्य निर्वाचन क्षेत्र के तौर पर देखे जाने वाले इलाके में उनके कोर वोट बैंक को लुभाने की भाजपा की कोशिश के तहत मैदान में उतरीं बेबी रानी मौर्य अपनी जीत के प्रति पूरी तरह आश्वस्त हैं.

खुद भी दलित समुदाय से आने वाली मौर्य ने मायावती के लिए इस्तेमाल किए जाने वाले उपनाम का जिक्र करते हुए कहा, ‘बहनजी नहीं तो बेबी रानी बहनजी.’

1995 में आगरा की पहली दलित महिला मेयर के तौर पर अपना राजनीतिक जीवन शुरू करने वाली मौर्य को भाजपा उम्मीदवार बनाए जाने को राज्य में जाटव उप-जाति के दलित वोट को लुभाने की पार्टी की एक कोशिश के तौर पर देखा जा रहा है.

मौर्य जाटव समुदाय से ताल्लुक रखती हैं, जिसे बसपा और उसकी सुप्रीमो मायावती का ‘कोर वोट बैंक’ भी माना जाता है.

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आगरा में बेबी रानी मौर्य के पैतृक आवास घर के बाहर बोर्ड में अभी भी उनके नाम के आगे ‘उत्तराखंड की राज्यपाल’ ही अंकित है, जिस पद पर सितंबर 2021 तक ही आसीन थीं.

दिप्रिंट जिस दिन आगरा ग्रामीण निर्वाचन क्षेत्र— जो अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित सीट है— से भाजपा उम्मीदवार मौर्य से मुलाकात करने उनके करीब 50 साल पुराने घर (जो उसे देखकर पता भी चलता है) तक पहुंचा तो उसके आसपास के रास्ते में काफी सक्रियता नजर आई.

भाजपा की तरफ से जारी उम्मीदवारों की पहली सूची में ही बेबी रानी मौर्य के नाम की घोषणा की गई थी और वह पार्टी के संगठनात्मक कार्यों के अलावा अधिकांश दिनों में सुबह 10 बजे से ही निर्वाचन क्षेत्र में डोर-टू-डोर अभियान में व्यस्त हो जाती हैं जो दिन में 10 घंटे से भी अधिक समय तक चलता है.

बेबी रानी मौर्य के पैतृक निवास के बाहर लगा बोर्ड | फोटो: मनीषा मोंडल/दिप्रिंट

वह जिन क्षेत्रों में जा रही हैं, वहां अपनी जाति के वर्चस्व के बावजूद अपना अभियान मतदाताओं को यह बात समझाने पर ज्यादा केंद्रित रखती हैं कि उन्होंने ‘राज्यपाल पद से इस्तीफा देकर’ आगामी चुनावों में विधायक पद के लिए चुनाव लड़ने का फैसला क्यों किया.

मौर्य ने अपने प्रचार अभियान के दौरान करीब 50 लोगों की एक जनसभा को संबोधित करते हुए कहा, ‘मैंने आपके बीच आने और एक विधायक के रूप में आपकी सेवा करने के लिए देश के एक सर्वोच्च संवैधानिक पद से इस्तीफा दिया है. यह आगरा और यहां के लोगों के लिए मेरा प्यार है जिसने मुझे ऐसा करने के लिए प्रेरित किया.’

उत्तर प्रदेश की दलित राजधानी आगरा

राज्य की दलित राजधानी कहे जाने वाले आगरा जिले में नौ विधानसभा सीटें आती हैं, जिनमें से आगरा ग्रामीण सहित दो सीटें अनुसूचित जाति के लिए सुरक्षित हैं. पिछले चुनाव में सभी नौ सीटें भाजपा के खाते में आई थीं, जाहिर तौर पर इसमें गैर-जाटव दलितों के साथ जिले के सवर्ण व्यापारिक समुदायों के समर्थन की अहम भूमिका रही थी.

हालांकि, इस बार पार्टी अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी दलों समाजवादी पार्टी और उसके गठबंधन सहयोगी राष्ट्रीय लोक दल के प्रचार अभियान के जवाब में जाटव वोटों को आकर्षित करने पर जोर देकर एक अलग तरह की ‘सोशल इंजीनियरिंग’ का प्रयास कर रही है.

पार्टी को क्षेत्र की अनुभवी नेता मानी जाने वाली मौर्य से उम्मीद है कि वह जाटव वोटों को लुभाने में सफल रहेगी और वह भी अपनी जिम्मेदारी बखूबी समझती हैं.

2011 की जनगणना के मुताबिक, उत्तर प्रदेश में दलितों की आबादी करीब 21 प्रतिशत है. राज्य की कुल आबादी में जाटवों की हिस्सेदारी करीब 11 प्रतिशत होने का अनुमान है. राज्य में कुल दलित आबादी में जाटव लगभग 54 प्रतिशत हैं, जिसकी वजह से उन्हें राज्य के राजनीतिक रूप से महत्वपूर्ण दलित मतदाताओं की सबसे प्रभावशाली उप-जाति माना जाता है.

2017 के चुनाव तक दलितों को पूरी तरह बसपा का वोट बैंक माना जाता था. हालांकि, इंडिया टुडे की तरफ से चुनाव-बाद किए गए एक सर्वेक्षण के मुताबिक, 2017 में भाजपा गैर-जाटव दलित वोटों (वाल्मीकि, पासी और खटीक जैसी उपजातियां) का 17 प्रतिशत अपने खाते में लाने में सफर रही.

फोटो: मनीषा मोंडल/दिप्रिंट

इससे बसपा के वोट बैंक में सेंध लग गई. दलित वोटों के इस तरह शिफ्ट होने (कुछ ओबीसी और एमबीसी उपजातियों के भी पक्ष में आने) को पिछले चुनावों में भगवा पार्टी की क्लीन स्वीप के कारणों में से एक माना गया, जब उसने राज्य की 403 विधानसभा सीटों में से 312 पर जीत हासिल की थी.

हालांकि, इस बार चुनाव में बड़े पैमाने पर बसपा की चुनावी गतिविधियां सिरे चढ़ते नहीं दिख रही हैं, भाजपा भी उसके ‘मूल’ वोट बैंक जाटव में सेंध लगाने की कोशिश में जुटी है.

यह कोशिश पश्चिमी यूपी में भगवा खेमे के लिए खास तौर पर महत्वपूर्ण है, जहां सपा-आरएलडी गठबंधन की नजरें जाट, गैर-जाटव दलित और गैर-यादव ओबीसी उप-जातियों पर टिकी हैं.


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‘जाटव बुद्धिजीवियों की धारणा बदली’

जब उनसे उनकी पार्टी द्वारा जाटवों पर ध्यान केंद्रित करने और मायावती के वोट बैंक को सफलतापूर्वक साधने की संभावनाओं के बारे में पूछा गया, तो मौर्य इसे लेकर पूरी तरह आश्वस्त नजर आईं.

उन्होंने कहा, ‘जाटव बुद्धिजीवी इस वजह से मायावती का समर्थन कर रहे थे क्योंकि उन्हें उम्मीद थी कि वह समुदाय की बेहतरी के लिए काम करेंगी. लेकिन उनकी यह धारणा अब बदल गई है. आप इस विधानसभा (चुनावों) के नतीजों में यह साफ देंखेंगे.’

खुद को आगरा की ‘बेटी और बहू’ कहने वाली मौर्य बताती हैं कि ‘राज्यपाल के तौर पर पिछले तीन वर्षों के कार्यकाल के अलावा’, वह ‘आगरा में हमेशा क्षेत्र की जमीनी राजनीति से जुड़ी रही हैं.’

1995 में मेयर का चुनाव जीतने के बाद मौर्य की अगली चुनावी पारी 2007 का यूपी चुनाव थी, जब उन्होंने आगरा के एत्मादपुर निर्वाचन क्षेत्र से भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़ा लेकिन हार गईं. बाद के सालों में उन्होंने राज्य समाज कल्याण बोर्ड सदस्य और राष्ट्रीय महिला आयोग की सदस्य के तौर पर भी काम किया.

उन्हें 2018 में उत्तराखंड की राज्यपाल नियुक्त किया गया था और उन्होंने अपना कार्यकाल पूरा होने से करीब दो साल पहले ही पिछले साल इस पद से इस्तीफा दे दिया. इसके बाद उन्हें भाजपा का राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाया गया.

मौर्य ने माना कि 2007 में उनके आखिरी बार चुनाव लड़ने के बाद से राजनीति काफी ‘बदल’ गई है.

उन्होंने कहा, ‘समय के साथ बहुत कुछ बदला है और मुझे इसके लिए खुद को तैयार करना पड़ा है. अब मेरे पास एक कॉल सेंटर और सोशल मीडिया के लिए एक टीम है जिसके माध्यम से मैं मतदाताओं से बात कर रही हूं और यहां तक कि उनकी बातें सुन भी रही हूं. निश्चित तौर पर एक जेनरेशन गैप है. बच्चे पढ़ लिख गए हैं. वे सूचना प्रौद्योगिकी में माहिर हैं और राजनीति उनके मुताबिक ही होनी चाहिए.’

उन्होंने यह भी कहा कि समाज और राजनीति ने जिस डिजिटल डायरेक्शन को अपनाया है, वह ये सुनिश्चित करती है कि ‘अपराध कम हों.’

उन्होंने कहा, ‘जो लोग आईटी समझते हैं उनमें से कितने अपराधों को अंजाम देंगे? पहले जैसा नहीं है की तमंचा लेकर चल रहे हैं.’


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भाजपा का ‘जाटव चेहरा’

मौर्य के आवास पर बरामदे के वेटिंग एरिया में उनकी पार्टी का एक बड़ा फ्लेक्स बोर्ड लगा हुआ है. इस बोर्ड के निचले बाएं कोने में डॉ. बी.आर. आंबेडकर की फोटो है और दूसरी ओर, वीर सावरकर की एक फोटो लगी है, जो यह सुनिश्चित करती है कि मौर्य जब भी टेलीविजन या वीडियो इंटरव्यू के लिए बैठें तो उनके दोनों ‘वैचारिक जुड़ाव’ एक फ्रेम में नजर आएं.

उन्होंने बताया कि आगरा की एक दलित बस्ती में बीते उनके बचपन और राजनीति में उनके परिवार की भागीदारी ने ही उन्हें 1995 में मेयर की कुर्सी के लिए चुनाव लड़ने को प्रेरित किया.

मौर्य ने बताया, ‘मेरे पिता और पूर्वज जूते बनाने के काम से जुड़े थे. मेरे पिता राजनीति में भी थे और दो बार चुनाव लड़े. मेरे भाई ने भी चुनाव लड़ा. इसलिए मेरी उत्सुकता स्वाभाविक थी और मेरी इसमें गहरी दिलचस्पी थी. हालांकि, मैंने किसी को बताया नहीं, लेकिन मैंने हमेशा राजनीति में आने का सपना देखा.’

उन्होंने आगे कहा कि अपने पिता से उन्होंने ‘समाज सेवा सीखी’ है.

मौर्य बताती हैं, ‘मैं जिस बस्ती में रहती थी, वहां के लोग बहुत गरीब थे. लोग अक्सर हमारे घर आकर छोटी-छोटी चीजें मांगते रहते थे- किसी को आटा चाहिए होता तो किसी को चीनी, किसी को थोड़ा नमक चाहिए होता था. मुझे हमेशा लगता था कि मुझे उनकी मदद करनी चाहिए.’

मौर्य ने कहा, ‘शादी के बाद मैंने अपने पति और ससुर से कहा कि मैं राजनीति में किस्मत आजमाना चाहती हूं. सच कहूं तो मैंने भी एक सपना देखा था कि मेरी फोटो अखबार में छपेगी और फिर जब लोग मुझे पहचानने लगेंगे तो मेरा ऑटोग्राफ मांगेंगे.’

मौर्य आज भी उस चुनाव को अपने राजनीतिक जीवन का सबसे महत्वपूर्ण क्षण मानती हैं.

उन्होंने काफी गर्व के साथ बताया, ‘मैं घर से निकलते ही मेयर बन गई. इससे पहले मुझे राजनीति में कोई अनुभव नहीं था.’

वह कहती हैं, ‘जिस दिन मैंने शपथ ली, मुझे याद है कि मेरे पिता और ससुर दोनों अगल-बगल में खड़े थे. शपथ लेने के बाद मैंने दोनों के पैर छुए. अगली सुबह आगरा के सभी अखबारों में पहले पन्ने की तस्वीर इस शीर्षक के साथ थी कि मैं शहर की पहली ‘दलित बेटी’ हूं जो मेयर चुनी गई.’

उन्होंने कहा कि हालांकि, शीर्षक में इस्तेमाल ‘बेटी’ शब्द उनके लिए ‘दलित’ जितना ही महत्वपूर्ण था.

तो क्या वो खुद को भाजपा का जाटव चेहरा मानती हैं?

उन्होंने कहा, ‘आज, जब मैं अपने प्रचार अभियान पर निकलती हूं तो देखती हूं कि घूंघट में बहुत-सी महिलाएं मुझसे मिलने के लिए बेहद उत्साह से दौड़कर मेरे पास आ जाती हैं. वे यह देखकर बेहद खुश होती हैं कि एक दलित महिला अपने राजनीतिक सफर में इतनी दूर पहुंच गई है और आज भी डटी हुई है.

उन्होंने आगे कहा, ‘जहां तक आपके प्रश्न का जवाब देने की बात है तो मैं भाजपा की महिला चेहरा हूं. और चूंकि मैं जाटव हूं, इसलिए जाटव चेहरा भी हूं.’

(इस खबर को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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