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‘जमात’ से ‘जात’ तक- कैसे बिहार में BJP को घेरने के लिए जातिगत जनगणना का सहारा ले रहे नीतीश कुमार

बिहार में शनिवार से शुरू हुई सामाजिक-आर्थिक जातिगत जनगणना के जरिए मुख्यमंत्री नीतीश कुमार 1990 के दशक की मंडल राजनीति को फिर से वापस लाने और राज्य में इसका राजनीतिक लाभ हासिल करने की कोशिश कर रहे हैं.

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार, फाइल फोटो | ANI

पटना : बिहार में जाति आधारित जनगणना का पहला चरण शनिवार 7 जनवरी से शुरू हो गया. बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार का कहना है कि यह कवायद राज्य को हर समूह की सामाजिक-आर्थिक हैसियत के बारे में जानकारी इकट्ठा करने में मदद करेगी. उन्होंने मीडियाकर्मियों से कहा, ‘एक बार इस जनगणना की कवायद पूरी हो जाने के बाद, हम केंद्र को इसका निष्कर्ष भेजेंगे.’

दूसरी तरफ, इस बात पर जोर देते हुए कि राष्ट्रीय जनता दल (राजद) लंबे समय से इस तरह का सर्वेक्षण कराने की मांग कर रहा था, राज्य के उपमुख्यमंत्री तेजस्वी यादव ने कहा, ‘भाजपा जातिगत जनगणना नहीं चाहती थी. प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हमारी मांग को खारिज कर दिया था.’

साल 2005 में जब नीतीश कुमार पहली बार सत्ता में आए थे, तो वे अक्सर कहा करते थे कि वह जमात (आम जनता) की राजनीति में विश्वास करते हैं, जात (जाति) की नहीं. लेकिन पिछले कुछ वर्षों में जाति की राजनीति से उनका जुड़ाव बढ़ा है.

राजनीतिक पर्यवेक्षकों द्वारा उनके रुख में आये इस बदलाव – जमात से जात की बात तक आ जाना – को उनके घटते हुए राजनीतिक प्रभाव का परिणाम बताया जा रहा है. पिछले साल तीन सीटों – कुढ़नी, गोपालगंज और मोकामा – पर हुए विधानसभा उपचुनाव परिणामों से पता चलता है कि अत्यंत पिछड़ी v (एक्सट्रीमली बैकवर्ड कास्ट्स- ईबीसी) व कुर्मी और कुशवाहा जातियों से मिलकर बने उनके मूल वोट बैंक ने भी उनका साथ छोड़ना शुरू कर दिया है.

पटना विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर एन.के. चौधरी ने दिप्रिंट को बताया, ‘बिहार में जाति की राजनीति के असल नायक लालू प्रसाद यादव ही हैं. नीतीश कुमार ने कभी भी जाति की उपेक्षा तो नहीं की, पर उन्होंने सुशासन को इसके पूरक के रूप में तैयार किया. दुर्भाग्यवश, उनकी इस राजनीति के राजनीतिक प्रतिफल में कमी आ रही है. इसलिए, उनके द्वारा जाति पर जोर देना मंडल की राजनीति को फिर से जिंदा करने और जद(यू) के वोट बैंक का भगवाकरण करने के भाजपा के प्रयास को कुंद करने का उनका एक प्रयास है.’

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हालांकि, भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) को इस बात पर संदेह है कि नीतीश का जातिगत जोर काम करेगा.

भाजपा नेता और पूर्व उपमुख्यमंत्री सुशील कुमार मोदी ने दिप्रिंट से कहा, ‘जब हर राजनीतिक दल ‘जाति की राजनीति’ का ही समर्थन कर रहा है तो नीतीश इसका (जाति का) फायदा कैसे उठा सकते हैं? मंडल राजनीति के दौर के दौरान, इसका विरोध करने वाली एक ताकत मौजूद थी.’

यह कहते हुए कि राज्य में महागठबंधन के नेता तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर पेश कर रहे हैं, सुशील कुमार मोदी ने कहा, ‘जाति आधारित सर्वेक्षण कराने का फैसला 9 जून 2022 को हुई कैबिनेट की बैठक में लिया गया था. तब भाजपा भी राज्य सरकार का हिस्सा थी. जातिगत जनगणना की मांग को लेकर प्रधानमंत्री से मिलने वाले सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल में हम भी शामिल थे. हम मुख्यमंत्री जी से पूछना चाहते हैं कि जातिगत जनगणना करने में इतना समय क्यों लगा और उन्होंने इसकी कार्यप्रणाली के बारे में विवरण देने के लिए सर्वदलीय बैठक क्यों नहीं की.‘

नीतीश की जाति आधारित जनगणना और इसके संभावित नुकसान

बिहार के कई राजनेताओं ने बताया है कि नीतीश वही सब करना चाह रहे हैं जो साल 2015 के विधानसभा चुनावों के दौरान लालू ने किया था – जब उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रमुख मोहन भागवत द्वारा आरक्षण की ‘सामाजिक समीक्षा’ के लिए दिए गए एक बयान को हथियाते हुए इसका इस्तेमाल ऊंची और पिछड़ी जातियों के बीच जाति आधारित विभाजन तैयार करने के लिए किया. वे कहते हैं कि नीतीश अपनी ‘जाति की राजनीति’ के साथ भी कुछ ऐसा ही करने की कोशिश कर रहे हैं.

साल 2006 में, उन्होंने पंचायतों और स्थानीय निकायों में अति पिछड़ी जाति (ईबीसी) के लिए 20 प्रतिशत आरक्षण लागू करवाया था. फिर साल 2009 में, उन्होंने दलितों की 21 उप-जातियों को मिलाते हुए एक अलग ‘महादलित’ समूह बनाते हुए दलितों को भी विभाजित कर दिया.

राज्य में हुए 2020 के विधानसभा चुनावों के बाद, नीतीश ने केंद्र सरकार द्वारा जातीय जनगणना कराने की राजद प्रमुख लालू प्रसाद के आह्वान का समर्थन किया था; और फिर अगस्त 2021 में, उन्होंने जातिगत जनगणना की मांग को लेकर पीएम मोदी से मिलने के लिए गए एक सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल की अगुवाई भी की थी. फिर भाजपा के साथ अपना गठबंधन खत्म करने के बाद से उन्होंने जातिगत सर्वेक्षण को अपने राजनीतिक एजेंडे में सबसे आगे रखा हुआ है.

लेकिन जाति आधारित जनगणना इसके साथ जुड़ी समस्याओं के बिना नहीं है.

कर्नाटक ने साल 2015 में एक जाति आधारित सर्वेक्षण कराया था, लेकिन अभी तक इसकी रिपोर्ट जारी नहीं की गई है. कथित तौर पर इसका कारण यह बताया जा रहा है कि एक प्रमुख जाति की जनसंख्या अपेक्षा से बहुत कम निकली और इसी वजह से न तो कांग्रेस और न ही भाजपा इस रिपोर्ट को जारी करने को तैयार है.

साल 2011 में केंद्र द्वारा शुरू की गई जाति आधारित जनगणना में भारत में 46 लाख जातियां पाईं गईं थीं और इसमें शामिल त्रुटियों के कारण इसे जारी नहीं किया जा सका था.

बिहार में किये जा रहे जाति आधारित सर्वेक्षण की रिपोर्ट जून में जारी होने वाली है, जब साल 2024 के लोकसभा चुनावों के लिए राजनीतिक हलचलें काफी अधिक हो जाएंगी.

यह याद करते हुए कि 1990 के दशक के मध्य में ही ओबीसी समूहों के अंदरूनी विरोधाभास सामने आने लगे थे, एक भाजपा नेता ने उनका नाम न जाहिर करने की शर्त पर, दिप्रिंट से कहा, ‘इससे ओबीसी समूहों के बीच भी तकरार पैदा हो सकती है. मिसाल के तौर पर, यदि किसी एक जाति की आबादी किसी दूसरे समूह की तुलना में कम सामने आती है, तो वे इस बात के लिए आंदोलन शुरू कर सकते हैं कि जाति आधारित सर्वेक्षण में हेरफेर की गई है. नीतीश जी ने एक ऐसे रास्ते पर कदम रख दिया है, जो समाधान से ज्यादा विवादों को सामने ला सकता है.‘

(इस ख़बर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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