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क्या योगी का ‘विकल्प’ बनना चाहते हैं मौर्य? UP के डिप्टी सीएम के ट्वीट को लेकर तेज हुईं अटकलें

भाजपा प्रदेश अध्यक्ष पद के दावेदार माने जाने वाले केशव प्रसाद मौर्य कई मौकों पर कह चुके हैं, ‘संगठन (पार्टी) सरकार से बड़ा है.’

लखनऊ में एक समारोह में केशव प्रसाद मौर्य और योगी आदित्यनाथ | ट्विटर/@kpmaurya1

दिल्ली/लखनऊ: उत्तर प्रदेश के उपमुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य के पास एक नया सियासी मंत्र है—संगठन सरकार से बड़ा है. और यह शायद परोक्ष रूप से मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ के लिए एक संदेश है.

राज्य के नवनियुक्त भाजपा महासचिव (संगठन) धर्मपाल सिंह के सम्मान में इस रविवार आयोजित एक परिचय बैठक में मौजूद रहे ब्रज और पश्चिमी यूपी क्षेत्र के 38 सांसदों और विधायकों को मौर्य ने संदेश दिया, ‘संगठन सरकार से बड़ा है. सरकार में जो लोग जाते हैं, संगठन ही उन्हें भेजता है.

उसी दिन, उन्होंने यही लाइन ट्वीट भी की, संगठन सरकार से बड़ा है. और उन्होंने मंगलवार को लखनऊ में अवध क्षेत्र के सांसदों और विधायकों की बैठक में इसी संदेश को फिर मजबूती से दोहराया.

इसके गहरे राजनीतिक निहितार्थ निकाले जा रहे हैं और लखनऊ के सत्ता के गलियारों में तीव्र अटकलें शुरू हो गई हैं.

पार्टी के कुछ नेता इस ओर इशारा करते हैं कि मौजूदा यूपी भाजपा अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह ने अपना कार्यकाल पूरा कर लिया है, और अब मौर्य (जो 2017 के चुनावों से पहले राज्य प्रमुख थे) इस पद के दावेदार हैं.

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पार्टी सूत्रों का दावा है कि उन्होंने इस संबंध में दिल्ली में भाजपा के शीर्ष नेताओं से बातचीत की है. इस महीने की शुरुआत में बतौर नेता विधान परिषद स्वतंत्र देव सिंह की जगह मौर्य ने ले ली है.

इसके अलावा, मौर्य के संदेश को ऐसे समय में योगी आदित्यनाथ पर एक कटाक्ष के तौर पर माना जा रहा है जब इस तरह की अटकलें चल रही है कि भाजपा आलाकमान मुख्यमंत्री के पर कतरना चाहता है.

योगी कैबिनेट के एक मंत्री ने दिप्रिंट से बातचीत में कहा, ‘क्या आपको लगता है कि मौर्य पार्टी आलाकमान की इच्छा के बिना ही ऐसे संदेश दे सकते हैं? इसका मतलब है कि आलाकमान राज्य में अधिक से अधिक शक्ति संतुलन चाहता है, और यह केवल एक व्यक्ति के हाथों में केंद्रित होना भी नहीं चाहिए. स्वतंत्र देव सिंह के मुख्यमंत्री के साथ अच्छे समीकरण हैं…उनकी जगह मौर्य को लाने से राज्य में सत्ता की डायनमिक्स में कुछ संतुलन साधा जा सकता है.’

पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने कहा कि 2024 के लोकसभा चुनावों से पहले, यह खास तौर पर महत्वपूर्ण है कि सत्ता में ‘संतुलन’ हो. उन्होंने कहा, ‘मौर्य (केंद्रीय गृह मंत्री) अमित शाह के भरोसेमंद व्यक्ति हैं. अभी पार्टी की सर्वोच्च प्राथमिकता यूपी की 80 लोकसभा सीटों में से कम से कम 60 सीटें जीतना है. इसमें किसी भी तरह की कोताही देश में पार्टी की संभावनाओं पर प्रतिकूल असर डाल सकती है.’

इस संदर्भ में पार्टी के कुछ अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि एक प्रभावशाली ओबीसी नेता मौर्य खुद को योगी के विकल्प के रूप में खड़े करने की कोशिश कर रहे हैं जो यूपी में ठाकुर समुदाय से आते हैं.

पिछले हफ्ते ही एक समारोह, जिसमें योगी भी शामिल थे, में उन्होंने 2017 में यूपी में पार्टी की जीत का श्रेय भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव सुनील बंसल को दिया था.

उन्होंने ऐसा कहा तो नहीं लेकिन यहां भी उनका संदेश यही लग रहा था कि संगठन व्यक्तिगत तौर पर नेताओं से बड़ा है.

2017 में मौर्य प्रदेश में पार्टी अध्यक्ष थे और बंसल उत्तर प्रदेश में महासचिव (संगठन) थे. मौर्य की तरह बंसल भी शाह के करीबी हैं और कथित तौर पर यूपी में उनके कार्यकाल के दौरान योगी के साथ उनके संबंध तनावपूर्ण ही रहे थे.

हालांकि, खुले तौर पर भाजपा नेता इस बात से इनकार करते हैं कि इस सबके पीछे कोई गुटीय राजनीति है.

सीएम और डिप्टी सीएम के बीच अनबन के बारे में पूछे जाने पर पूर्व राज्य भाजपा अध्यक्ष और राज्यसभा सांसद लक्ष्मीकांत बाजपेयी ने कहा कि मौर्य की टिप्पणी के बहुत ज्यादा निहितार्थ नहीं निकाले जाने चाहिए.

बाजपेयी ने कहा, ‘मौर्य पार्टी के एक प्रमुख नेता हैं. वह केवल कैडर के बीच इस बात पर जोर दे रहे थे कि हम यहां केवल उनकी वजह से हैं और सत्ता में होने के कारण हमें संगठन को भूल नहीं जाना चाहिए. कोई सत्ता संघर्ष नहीं है. हम सभी लोकसभा चुनाव में पार्टी के 75 से अधिक सीटें जीतने के लक्ष्य को हासिल करने के लिए काम कर रहे हैं.’

‘एक ओबीसी चेहरा’

केशव प्रसाद मौर्य 2022 के यूपी विधानसभा चुनाव में अपने निर्वाचन क्षेत्र सिराथू से हार गए थे, लेकिन फिर भी उन्हें राज्य के दो डिप्टी सीएम (दूसरे ब्रजेश पाठक) में से एक की कुर्सी मिली. चूंकि यूपी में द्विसदनीय विधायिका है, इसलिए उन्हें जून में एमएलसी बनाकर लाया गया.

पार्टी सूत्रों के मुताबिक, ऐसा यूपी में भाजपा के एक ‘ओबीसी चेहरे’ के तौर पर उनके कद के कारण किया गया, खासकर ऐसे समय में जब पार्टी अपने जाति समीकरण में इन समुदायों को साधने को अहमियत दे रही है.

एक दूसरे वरिष्ठ नेता ने कहा, ‘अभी चार महीने पहले ही केशव मौर्य को राज्य सरकार में उपमुख्यमंत्री के तौर पर शामिल किया गया था. चार महीने में ऐसा क्या हो गया कि भाजपा आलाकमान अब उन्हें प्रदेश अध्यक्ष बनाने की सोच रहा है? चुनाव हारने के बावजूद उन्हें शामिल किया गया ताकि वे मंत्रिपरिषद में जाति के प्रतिनिधित्व को संतुलित कर सकें. अमित शाहजी ने उन्हें राज्य में एक ओबीसी के चेहरे के तौर पर तैयार किया है. चार महीनों में भाजपा आलाकमान ने किसी और को संगठन के नेतृत्व के लिए उपयुक्त नहीं पाया.’

पूर्व में उद्धृत मंत्री ने कहा कि मौर्य को कुछ अच्छी वजहों से आलाकमान का आशीर्वाद हासिल है और वह पार्टी में पदोन्नत होने की काबिलियत रखते हैं.

मंत्री ने कहा, ‘वह न केवल एक ओबीसी का चेहरा हैं, हिंदुत्व को लेकर भी उनकी साख मजबूत है, उन्होंने राम जन्मभूमि आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी. वह आसानी से सुलभ राजनेता भी हैं. उनका भविष्य उज्ज्वल है, भले ही वह योगी का विकल्प का न बनें तब भी भविष्य में एक बड़ी भूमिका निभाने के काबिल हैं.’

हालांकि, योगी कैबिनेट में एक दूसरे मंत्री का आकलन है कि मौर्य खुद को योगी आदित्यनाथ के ‘विकल्प’ के तौर पर पेश करने के लिहाज से अच्छी स्थिति में हैं.

मंत्री ने कहा, ‘मौर्य ने 2017 में अपनी काबिलियत साबित की, जब उनकी अध्यक्षता में भाजपा ने यूपी में 300 से अधिक सीटें जीतीं—यह एक ऐतिहासिक जनादेश था. अगर आलाकमान उन्हें (यूपी में) फिर से संगठन का नेतृत्व संभालने की जिम्मेदारी देता है तो यह उनकी क्षमताओं पर उसके भरोसे को ही दर्शाएगा.’

उन्होंने आगे कहा कि मौर्य को ओबीसी नेता के तौर पर व्यापक लोकप्रियता हासिल करने का भी मौका मिला है, जैसा 90 के दशक में दिवंगत पूर्व मुख्यमंत्री कल्याण सिंह का रहा था.

उन्होंने कहा, ‘जब कल्याण सिंह लोध समुदाय की मदद से हिंदू हृदय सम्राट बन सकते हैं, जिसकी वोटबैंक में हिस्सेदारी लगभग तीन प्रतिशत है तो डिप्टी सीएम भी मौर्य और सैनी वोटों का लाभ उठा सकते हैं, जो करीब छह प्रतिशत हैं. वह न केवल यूपी के बल्कि राष्ट्रीय स्तर पर भी खुद को सबसे अहम ओबीसी नेताओं में से एक के तौर पर स्थापित कर सकते हैं.


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योगी बनाम मौर्य

गौरतलब है कि 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा की जीत के बाद मौर्य भी मुख्यमंत्री पद के एक दावेदार थे.

उस समय, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ उनकी समानताएं भी चर्चा में रही थीं, मसलन दोनों ही ओबीसी समुदाय से आते हैं और जब छोटे थे तब चाय की दुकान चलाते थे.

हालांकि, अगर मौर्य चुनाव बाद मुख्यमंत्री पद के साथ ‘पुरस्कृत’ होने की उम्मीद करते रहे होंगे तो उन्हें निराशा ही हाथ लगी थी और उन्हें एक कम दर्जे वाले पद से समझौता करना पड़ा.

यूपी के राजनीतिक हलकों में अक्सर यह सुगबुगाहट रहती है कि मौर्य को योगी का सुर्खियों में रहना खास पसंद नहीं आता है क्योंकि उनका मानना है कि उन्होंने 2017 के चुनावों से पहले पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष के रूप में पार्टी के लिए कड़ी मेहनत की है.

दोनों नेताओं के बीच तनातनी के कई संकेत मिलते रहे हैं. उदाहरण के तौर पर जब मौर्य पिछली योगी सरकार में लोक निर्माण विभाग (पीडब्ल्यूडी) संभाल रहे थे तो मुख्यमंत्री इसके अधिकारियों के साथ बैठकें करने और उनके काम में कमी के लिए उन्हें फटकार लगाने के लिए जाने जाते थे. मौर्य ने सीएम की तरफ से बुलाई गई अधिकांश बैठकों में हिस्सा नहीं लिया था.

फिर, 2019 में मौर्य ने भूमि आवंटन और आवास योजनाओं से संबंधित लखनऊ विकास प्राधिकरण (एलडीए) में बड़े पैमाने पर भ्रष्टाचार का आरोप लगाते हुए आदित्यनाथ को एक पत्र लिखा. इसे सीधी चुनौती के तौर पर देखा गया क्योंकि एलडीए का नेतृत्व मुख्यमंत्री कर रहे थे. यह भी बताया गया कि उनके विभाग में प्रबंध निदेशक पद पर योगी की तरफ से की गई नियुक्ति को मौर्य द्वारा भाजपा आलाकमान से शिकायत के बाद वापस ले लिया गया. ऐसी भी अटकलें हैं कि मौर्य के खिलाफ विभिन्न मामलों को दिल्ली के निर्देश पर बंद कर दिया गया था, क्योंकि उन्होंने तर्क दिया था कि योगी के लिए भी ऐसा ही किया गया था.

जून 2021 में खुद मौर्य की एक टिप्पणी ने इन अटकलों को हवा दी कि यूपी में सत्ता के दो केंद्रों के बीच सब कुछ ठीकठाक नहीं चल रहा.

मौर्य ने मीडियाकर्मियों से कहा था कि 2022 का विधानसभा चुनाव किसके नेतृत्व में लड़ा जाएगा, यह फैसला सिर्फ भाजपा संसदीय बोर्ड और राष्ट्रीय नेतृत्व ही कर सकता है. उन्होंने कहा, ‘इससे कोई फर्क नहीं पड़ता कि चुनाव किसके नेतृत्व में लड़ा जा रहा है. भाजपा दुनिया की सबसे बड़ी पार्टी है. यह कोई प्राइवेट लिमिटेड कंपनी नहीं है.’

मौर्य ने योगी के साथ अनबन के सवालों को दरकिनार कर दिया था, लेकिन कई लोगों ने इसके निहितार्थ निकाले.

भाजपा के अंदरूनी सूत्रों का कहना है कि उसी माह के अंत में योगी को आरएसएस और भाजपा के शीर्ष नेताओं की तरफ से असंतुष्ट डिप्टी के साथ संबंध सुधारने को कहा गया था. मुख्यमंत्री अपने कार्यकाल में पहली बार मौर्य के नवविवाहित बेटे को बधाई देने उनके घर पहुंचे. योगी विवाह समारोह में शामिल नहीं हुए थे.

मौर्य भाजपा के लिए महत्वपूर्ण क्यों हैं

2013 में भाजपा महासचिव के तौर पर अपने कार्यकाल के दौरान अमित शाह ने यूपी में विभिन्न जातियों के बीच समीकरण साधने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी, उनकी इस सोशल इंजीनियरिंग की पहल में गैर-यादव और गैर-जाटव दलित समुदायों का समर्थन हासिल करना शामिल था.

आरएसएस से संबद्ध मौर्य, जिन्होंने 2012 में पहली बार विधानसभा चुनाव जीता था, इसी दौरान शाह की नजर में आए. फिर 2014 में उन्हें फूलपुर लोकसभा सीट से टिकट दिया गया, जहां उन्होंने जीत हासिल की.

बाद में, शाह ने उन्हें भाजपा का प्रदेश अध्यक्ष बनाया, फिर उन्होंने सुनील बंसल के साथ काम करने से लेकर 2017 के विधानसभा चुनाव में पार्टी को बड़ी जीत दिलाने तक, हर स्तर पर अपनी क्षमताओं को साबित किया.

2024 के चुनावों के मद्देनजर मौर्य की प्रासंगिकता फिर काफी हद तक उनकी जाति से जुड़ी है.

यूपी में ओबीसी आबादी की हिस्सेदारी 40 फीसदी से ज्यादा है. यद्यपि माना जाता है कि गैर-यादव ओबीसी में लगभग 58 प्रतिशत ने 2017 में भाजपा को वोट दिया था, जो आंकड़ा बढ़कर 2022 के चुनाव में स्वामी प्रसाद मौर्य, दारा सिंह चौहान और धरम सिंह सैनी जैसे ओबीसी नेताओं के सपा में चले जाने के बावजूद लगभग 65 प्रतिशत पर पहुंच गया.

2019 के आम चुनाव में, भाजपा और उसके सहयोगी अपना दल ने कुल 64 सीटें जीती थीं, जिसमें कथित तौर पर ओबीसी वोटों का लगभग 65 प्रतिशत हिस्सा पार्टी के खाते में आया था.

हालांकि, भाजपा संतुष्ट नहीं है. 2022 के विधानसभा चुनाव में गैर-यादव ओबीसी समूहों के छोटे दलों के साथ समाजवादी पार्टी के गठबंधन ने पूर्वी यूपी में भाजपा की कई सीटों को नुकसान पहुंचाया, जिसे देखते हुए पार्टी अपना वोट-बैंक बरकरार रखने की हरसंभव कोशिश में जुटी है.

राज्य में मौर्य आबादी की हिस्सेदारी 6 प्रतिशत है जो यादवों (9 प्रतिशत) और कुर्मियों (7 प्रतिशत) के बाद राज्य में सबसे बड़ा वोटबैंक है. इसके अलावा, मौर्य समुदाय राज्य की 100 से अधिक सीटों पर असरदार है, जिसका मतलब है कि इसका प्रतिनिधित्व करने वाले एक प्रमुख नेता का होना चुनावी लिहाज से काफी अहम है.

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