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हिंदुइज़्म बनाम हिंदुत्व को लेकर बहस उदारवादियों के बौद्धिक आलस को दिखाता है

हिंदू धर्म के गैर-भाजपाई समर्थक यह नहीं समझ रहे हैं कि हिंदुत्व की सफलता दरअसल उनकी वाली धर्मनिरपेक्षता की नाकामी का नतीजा है. अगर वे हिंदुत्व का विकल्प प्रस्तुत करने को सच में गंभीर हैं तो उन्हें भारत की जमीनी हकीकतों पर ध्यान देना ही होगा.

प्रतीकात्मक तस्वीर | अयोध्या में रुद्राक्ष को हाथों में लिए एक साधु | फोटो: सूरज सिंह बिष्ट | दिप्रिंट

हिंदुत्व बनाम हिंदूइज़्म की जो ताजा बहस छिड़ी है वह भी मेरे ख्याल से ‘उदारवादियों के बौद्धिक आलस’ का ही एक रूप है. यह बहस शुरू करने में बहुर देर की जा चुकी है और बहुत संक्षिप्त भी है. बहुत देर से इसलिए कहता हूं कि हिंदुत्व तो भारतीय राजनीति में पिछले दो दशकों से भी ज्यादा समय से स्थापित मुहावरा है. गैर-भाजपा दलों ने इस अहम दौर में हिंदू धर्म को लेकर चर्चा चलाने के लिए लगभग कुछ नहीं किया. वे धर्मनिरपेक्षता के बेहद अस्पष्ट और राजनीतिक रूप से अनर्थकारी पहलू से चिपके रहे.

और बहुत संक्षिप्त इसलिए कहता हूं कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) और उसके साथी संगठनों ने सोची-समझी राजनीतिक रणनीतियों का सहारा लेते हुए हिंदुत्व की पूरी तरह से अलग अवधारणा प्रस्तुत करने पर काफी बौद्धिक ऊर्जा खर्च की है. उदारवादी खेमे की सुई अभी भी सावरकर-गोलवलकर के पुराने सिद्धांत पर अटकी है, मानो पिछले तीन दशकों में कुछ बदला नहीं है. शशि थरूर, पवन के. वर्मा और अब सलमान खुर्शीद सरीखे लेखक-राजनीतिक नेता हिंदू धर्म बनाम हिंदुत्व की बहस की आड़ ले रहे हैं.

यहां दो सवाल महत्वपूर्ण हैं. हिंदुत्व शब्द का ताजा इतिहास क्या है, जिसने इसे अभूतपूर्व राजनीतिक स्वीकार्यता प्रदान की है? और इस पर प्रतिक्रिया करने में उदारवादियों के बौद्धिक आलस की क्या वजह रही है?


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हिंदुत्व का वर्तमान इतिहास

2004 में भाजपा के अध्यक्ष रहे लालकृष्ण आडवाणी ने तब अपने अध्यक्षीय भाषण में एक सशक्त दावा किया था, ‘मुझे इस बात का अफसोस है कि हिंदुत्व जबकि हमारी राष्ट्रीयता की मूल पहचान होनी चाहिए थी, उसे गलती से एक राजनीतिक मार्ग के रूप में पेश किया गया है. हिंदुत्व एक भावना है, न तो यह चुनावी नारा है और न ही इसे धर्म मानने की गलती की जानी चाहिए.’

आडवाणी और दूसरे भाजपा नेता चाहते तो यह रहे कि हिंदुत्व भारतीय राष्ट्रीयता की एक जायज अभिव्यक्ति बने, लेकिन इसके बावजूद वे सुप्रीम कोर्ट के 1995 के उस फैसले को ही आधार मानते रहे जिसमें हिंदुत्व को ‘एक जीवन पद्धति’ के रूप में परिभाषित किया गया था.

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नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली भाजपा ने हिंदुत्व को अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता के तौर पर घोषित करने में अपनी ऊर्जा नष्ट करने की जहमत नहीं उठाई. इसकी जगह उसने इस मुहावरे का दायरा व्यापक बनाने और भारतीयता को हिंदुत्व की शर्तों में परिभाषित करने के लिए कड़ी मेहनत की, हालांकि कभी आडवाणी इसकी कल्पना किया करते थे. गौरतलब है कि मोदी अपने राजनीतिक कदमों को परिभाषित करने के लिए कभी हिंदुत्व शब्द का प्रयोग नहीं करते. आडवाणी या अटल बिहारी वाजपेयी के विपरीत वे इस मुद्दे पर सीधी चर्चा करने से परहेज ही करते हैं.

वैसे, 3 दिसंबर 2018 को एक चुनावी सभा में मोदी ने जो भाषण दिया था वह पिछले सात साल में शायद एकमात्र मौका है जब उन्होंने हिंदुत्व की अपनी कल्पना के बारे कुछ कहने की कोशिश की. मोदी ने राहुल गांधी के इस दावे का जवाब दिया था कि प्रधानमंत्री हिंदू धर्म के बारे में कुछ नहीं जानते. मोदी ने कहा था, ‘… भाइयों! हिंदुत्व की विरासत बहुत समृद्ध है. यह हिंदुत्व… यह हिंदू ज्ञान इतना गहरा है, इतना विशाल और इतना प्राचीन है… यह हिमालय से भी ऊंचा और सागर से भी गहरा है. यहां तक कि ऋषियों ने भी कभी दावा नहीं किया कि उन्हें हिंदू धर्म या हिंदुत्व का पूरा ज्ञान है. मैं तो बहुत छोटा आदमी हूं और ऐसे विशद ज्ञान का दावा नहीं कर सकता.’

यहां दो महत्वपूर्ण बिंदु उभरते हैं. पहला यह कि मोदी इस पुराने तर्क को दोहराने में दिलचस्पी नहीं रखते कि हिंदुत्व एक जीवन पद्धति है और इसका राजनीति से कोई लेना-देना नहीं है. वे हिंदू धर्म और परंपरा की व्याख्या हिंदुत्व के चश्मे से करते हैं और इसे एक तरह की ब्रह्मविद्या घोषित करते हैं. अनुष्टुप बसु ने इसे अपनी नयी किताब में ‘राजनीतिक एकेश्वरवाद’ के रूप में परिभाषित किया है.

दूसरे, मोदी हिंदुत्व को वास्तव में एक निर्विवाद, निष्पक्ष और स्वयंसिद्ध सांस्कृतिक अभिव्यक्ति मानते हैं. वे पूरे आत्मविश्वास से जोर देकर कहते हैं कि हिंदुत्व पर चुनावी राजनीति के संदर्भ में चर्चा करने की जरूरत नहीं है क्योंकि वह भारतीयता की वास्तविक अभिव्यक्ति है.

2014 के बाद की अवधि में भाजपा की चुनावी कामयाबी ने वास्तव में हिंदुत्व को नये राजनीतिक चलन में परिवर्तित हो जाने में बड़ा योगदान दिया है. कांग्रेस, ‘आप’, और माकपा जैसी गैर-भाजपा पार्टियां भी शक्तिशाली हिंदुत्ववादी आधार की अनदेखी करने की स्थिति में नहीं हैं. एक विचारधारा से राजनीतिक चलन में हिंदुत्व का परिवर्तन इतना शक्तिशाली है कि भाजपा को अब इसे एक जीवन पद्धति बताकर बचाव करने की जरूरत नहीं है. यह भी एक कारण हो सकता है कि हिंदुत्व को भाजपा का अधिकृत दर्शन बताने की जरूरत नहीं रह गई है.


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उदारवादियों का आलस

हिंदुत्व के बदलते अर्थ और एक राजनीतिक आधिपत्य के रूप में उसके उभार की व्याख्या करने में गैर-भाजपाई दलों (और स्वघोषित उदारवादियों के एक खेमे) की विफलता को उस चश्मे से नहीं देखा जाना चाहिए जिस चश्मे से ये सब खुद को उत्पीड़ित मान कर देखते हैं.

वे लंबे समय तक सत्ता में रहे. एक तरह से, कांग्रेस के नेतृत्व में यूपीए सरकार के दौरान ही हिंदू पदार्थवाद के निरंतर विस्तार के लिए अनुकूल माहौल बना. वास्तव में, गैर-भाजपा दलों ने बदलती हकीकतों का सामना नहीं किया और अपने पुराने, अप्रासंगिक, पलायनवादी, वैचारिक सांचे से चिपके रहे.

कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्षता का बचाव करते हुए नेहरू की आर्थिक संकल्पना को भुला दिया. जनता दल के टुकड़ों ने सामाजिक न्याय का परचम लहराते हुए राम मनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण के समाजवादी दर्शन की उपेक्षा कर दी. बसपा ने आंबेडकरवाद के नाम पर जाति-केंद्रित चुनावी इंजीनियरिंग के जोश में पूरी तरह से यू-टर्न ले लिया. और कम्युनिस्टों ने मार्क्सवाद से चिपके रहकर वर्गीय सवालों की फिक्र करनी छोड़ दी.

ऐसी स्थिति में धर्मनिरपेक्षता और सामाजिक समावेश ही बने-बनाए नारे रह गए, जो संघ परिवार के नेतृत्व वाली भाजपा के खिलाफ राजनीतिक दांवपेच के लिए वैचारिक औचित्य प्रदान कर सकते थे. भाजपा की चुनावी सफलताओं ने इस राजनीतिक सहमति की सीमाओं को उजागर कर दिया. गैर-भाजपा दल 2014 के बाद से हिंदुत्व के आगे असहाय, अनभिज्ञ दिखते हैं. वैचारिक सांचे अप्रासंगिक हो गए हैं और उनमें वह बौद्धिक क्षमता नहीं है कि वे कोई नया विचार दे सकें.

यही वजह है कि ये दल और उनसे जुड़े बुद्धिजीवी हिंदुत्व बनाम हिंदू धर्म के द्वंद्व की ओर आकर्षित हुए हैं. वे हमें यह विश्वास कराना चाहते हैं कि भारतीय लोगों की सामूहिक आकांक्षाएं हमेशा धार्मिक मान्यताओं से तय होती रही हैं. इसलिए, हिंदुत्ववादी राजनीति का मुकाबला करने के लिए उपयुक्त किस्म के हिंदू धर्म की जरूरत है.


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कुलीन हिंदू धर्म बनाम देसी हिंदुत्व

उदाहरण के लिए, पवन के. वर्मा ने अपनी किताब ‘द ग्रेट हिंदू सिविलाइजेशन: आचीवमेंट, नेगलेक्ट, बायस, ऐंड द वे फॉरवर्ड ’ में कहा है कि हिंदू सभ्यता तमाम आक्रमणों के बावजूद ‘हिंदू सत्य’ नामक एक चीज की बदौलत बची रही. हिंदू गौरव वाला यह तर्क पराजयवादी हिंदू इतिहास पर आधारित है कि हिंदू लोग मुसलमानों आदि-आदि से हारते रहे हैं.
इस तर्क से तो ‘मुसलिम सत्य’ के बारे में भी सोचा जा सकता है और ‘महान मुस्लिम सभ्यता’ का पदार्थवादी इतिहास लिखा जा सकता है, जो उन्हीं स्रोतों और तर्कों के आधार पर भारत में इस्लाम की विजय का आख्यान हो सकता है. आखिर, वर्मा का ‘हिंदू सत्य’ सावरकर के हिंदुत्व की तरह यह नहीं बताता कि संयोग से या दबाव में बड़ी संख्या में जो हिंदू मुसलमान बने वे पिछले 600 वर्षों में इस्लाम छोड़ वापस हिंदू क्यों नहीं बन गए.

सलमान खुर्शीद की नयी किताब ‘सनराइज़ ओवर अयोध्या: नेशनहुड इन अवर टाइम्स ’ अयोध्या मसले पर दिए गए फैसले का एक गंभीर, विचारोत्तेजक विवेचन है. यह अलग तरह की धर्मनिरपेक्षता को वापस लाने की संभावनाओं पर निश्चित ही कुछ सूक्ष्म तर्क प्रस्तुत करती है. लेकिन खुर्शीद हिंदू धर्म के पाठ आधारित अर्थों का ज्यादा सहारा लेते हैं. वर्मा और थरूर की तरह वे भी दार्शनिक आधारों पर हिंदू धर्म की प्रशंसा करते हैं और हिंदुत्व को पूरी तरह राजनीतिक मतवाद बताकर खारिज करते हैं. हिंदू धर्म की इस पाठ आधारित व्याख्या के प्रति आलोचना रहित लगाव खुर्शीद को यह समझने से रोकता है कि कमजोर दलित एवं आदिवासी समुदाय हिंदुत्व को वास्तव में किस तरह देखते हैं.

बद्री नारायण की किताब ‘रिपब्लिक ऑफ हिंदुत्व ’ बताती है कि पिछले दो दशकों में आरएसएस ने गुमनाम दलित नायकों को किस तरह व्यापक हिंदुत्व के दायरे में शामिल किया है. इस तरह की सामाजिक-सांस्कृतिक स्वीकार्यता हाशिये पर पड़े इन समुदायों को एक नयी सामूहिक पहचान देती है. ऐसे मामलों में हिंदू धर्म और हिंदुत्व के बीच भेद पूरी तरह बेमानी हो जाता है.

याद रहे कि हिंदू धर्म के इन गैर-भाजपाई समर्थकों को अभी यह एहसास नहीं हुआ है कि हिंदुत्व की सफलता दरअसल उनकी किस्म की धर्मनिरपेक्षता की विफलता का परिणाम है. अगर वे हिंदुत्व का विकल्प प्रस्तुत करने के लिए सच में गंभीर हैं तो इन्हें भारतीय वास्तविकताओं पर ध्यान देना ही होगा ताकि वे खास भारत की धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के दैनंदिन रूप को पहचान सकें. बदकिस्मती से, आम जन के रोजाना की जिंदगी की विद्रूपताओं में किसी की दिलचस्पी नहीं है.

जो भी हो, यही हमारे समय का सबसे अहम ‘सेक्युलर’ सवाल है.

(हिलाल अहमद राजनीतिक इस्लाम के स्कॉलर और सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज में एसोसिएट प्रोफेसर हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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