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शी ने मोदी के सामने चुनौती खड़ी कर दी है, नेहरू की तरह वो इसे स्वीकार ले या फिर नया विकल्प चुन सकते हैं

अपने पूर्ववर्तियों की तरह मोदी ने भी भारत-पाकिस्तान-चीन के त्रिशूल से मुक्त होने की कोशिश की मगर नाकाम रहे. अब आगे वे जो भी करना चाहेंगे उसका अर्थ होगा नए समझौते करना. 

चित्रण: सोहम सेन/ दिप्रिंट

माओ ने 1959-62 में नेहरू के साथ जैसा किया था, शी जिंपिंग ने ठीक उसी तरह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के लिए उनके सार्वजनिक जीवन की सबसे बड़ी चुनौती खड़ी कर दी है. अगले कुछ दिनों, हफ्तों, महीनों और सालों में मोदी को ऐसे कदम उठाने पड़ेंगे, जो देश की रणनीतिक तकदीर और खुद उनकी राजनीतिक विरासत का फैसला करेंगे.

उनके दिमाग को पढ़ पाना एक दुस्साहस का काम है. पिछले छह वर्षों में उन्होंने सबसे स्तब्धकारी कदम उठाने की ख्याति अर्जित कर ली है, जिनके बारे में किसी को कभी पहले से कोई आभास नहीं हुआ, भले ही वे बेहद महत्वपूर्ण रणनीतिक या विदेश नीति संबंधी मसले क्यों न रहे हों. एक बार काबुल से लौटते हुए वे अचानक पाकिस्तान उतर गए थे, यह तो आप नहीं ही भूले होंगे?

लद्दाख में चीन ने जो उकसाने वाली कार्रवाई की है उस पर उनका क्या जवाब हो सकता है उसके बारे में अनुमान लगाना एक जटिल काम है लेकिन तीन संकेत उभरते हैं. आज जब वे रणनीतिक और राजनीतिक विकल्पों को तौल रहे हैं, तब उनके दिमाग में क्या प्रमुख सवाल उठ रहे होंगे, इसका अंदाजा हम लगा सकते हैं. सीधी-सी बात यह है कि वे चुनौती का जवाब उस तरह तो कतई नहीं देना चाहेंगे जिस तरह नेहरू ने दिया.

खुद उन्होंने और उनके वैचारिक-राजनीतिक अभिभावकों आरएसएस और भाजपा ने राजनीति व रणनीति, दर्शन व विचार का जो घटाटोप खड़ा किया है उसका मूल मंत्र नेहरू जैसा बनने की सीख कतई नहीं देता. इसलिए सबसे महत्वपूर्ण यह है कि ‘नेहरू की भयंकर भूलों को मत दोहराओ’.

शी जिंपिंग ने अपनी पसंद का समय चुनकर उन्हें चुनौती दी है, ठीक उसी तरह जैसे 1962 में माओ ने किया था. इसलिए मोदी पर जल्दी में, गुस्से में और खीझ कर वैसा ही जवाब देने का दबाव डाल दिया है, जैसा नेहरू ने दिया था. दबाव यह है- देश और दुनिया को यह कैसे दिखाया जाए कि हम 1962 वाले नेहरू नहीं हैं और इसके साथ ही ऐसा कुछ न किया जाए जैसा नेहरू ने उस साल दबाव में किया था.

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नेहरू ने एक फैसला किया था (‘मैंने अपनी फौज को कह दिया है, चीनियों को मार भगाओ’), जो साहसी भले दिखा हो मगर हकीकत से दूर था. इतिहास ने उनके बारे में काफी कठोर निर्णय लिया. वे एक ऐसे साहसी, सख्त नेता के रूप में नहीं याद किए जाते, जो लड़ते हुए ‘विदा हुआ’. यही याद किया जाता है कि उस फैसले के बाद वे राजनीतिक और व्यक्तिगत रूप से कभी उबर नहीं पाए. उन्हें हमेशा एक कमजोर नेता के रूप में देखा जाएगा, जो कमजोर मन से लड़ाई लड़ा.

आज, 2020 में मोदी को कई तरह की बढ़त हासिल है. उनके लिए जो राजनीतिक माहौल उपलब्ध है उसमें और नेहरू को उपलब्ध माहौल में जमीन-आसमान का अंतर है. नेहरू के सबसे बड़े आलोचक वे राष्ट्रवादी थे, जो खुद उनके मंत्रिमंडल में मौजूद थे. मोदी के साथ ऐसी कोई समस्या नहीं है. विपक्ष कमजोर है. संसद से कोई खतरा नहीं है. सेना तब के मुकाबले आज कहीं ज्यादा मजबूत है, भले ही चीनी सेना पीएलए एक आधुनिक फौज है.

लेकिन नेहरू की तरह उनके साथ भी एक कमजोरी जुड़ी थी- विशाल सार्वजनिक छवि और पतली चमड़ी. शी ने उनकी यह खुली कमजोरी भांप ली है. चूमर से डोकलाम और पुलवामा तक हर मामले में चीनियों ने देख लिया है कि मोदी के लिए अपनी घरेलू राजनीति में ‘चेहरा’ कितना महत्व रखता है. उन पर एक सख्त, निर्णायक, जोखिम मोल लेने वाला नेता दिखते रहने का निरंतर दबाव है और फिर कुछ ऐसा शुरू करने का भी दबाव है जिसे इस तरह पूरा किया जाए कि अपनी जीत का दावा किया जा सके. लेकिन यह सब चीन के मामले में कोई आसान विकल्प नहीं हो सकता.


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शी ने यह टक्कर क्यों शुरू की, यह जानना अब प्रासंगिक नहीं रह गया है. यह जान लेने से भी कोई फर्क नहीं पड़ने वाला क्योंकि चीन हमारी दहलीज पर पहुंच गया है. और जिस तरह वह वहां जमावड़ा कर रहा है, अपने भारी साजोसामान ला रहा है उससे साफ है कि वह लंबे टकराव के लिए तैयार है.

यह मोदी को भी उन दुविधाओं से रू-ब-रू करा रहा है जिनसे उनके पूर्ववर्ती नेता जूझ चुके हैं. क्या इतिहास और भूगोल ने भारत की किस्मत में दो मोर्चों पर लड़ना लिख दिया है? भारत इस स्थिति को कैसे बदल सकता है? क्या वह इन दो में से एक के साथ सुलह करके ‘त्रिशूल’ की जकड़न से मुक्त हो सकता है? अगर ऐसा हो सकता है तो वह किसे चुने? तीसरे, अगर उसके पास कोई उपाय नहीं है या जब तक कोई उपाय मिल नहीं जाता तब तक क्या वह मूलतः गुटनिरपेक्ष रह सकता है?

स्थिति को साफ करने के लिए, अगर इस दिखावे से तौबा कर भी लें और किसी एक महाशक्ति से जुड़ जाएं तब भी आप रणनीतिक स्वायत्तता की शीतयुद्ध वाली धारणा से चिपके नहीं रह सकते. क्या आप इसके बूते बेहतर सुरक्षा हासिल कर सकते हैं?

हर विकल्प के साथ समझौते का तत्व जुड़ा है. मोदी को एक विकल्प चुनना है. 1962 में नेहरू ने गुटनिरपेक्षता की उदात्त धारणा को परे रखकर मदद के लिए केनेडी के अमेरिका को आवाज़ लगाई थी. मदद मिली और उन्होंने अमेरिका को नई दिल्ली में अपने दो-सितारा वाले जनरल के नेतृत्व में मिलिटरी मिशन स्थापित करने की इजाजत दे दी. जाहिर है, मदद कीमत देकर मिली.

पश्चिमी देशों ने अक्टूबर-नवंबर 1962 में पाकिस्तान को चेताया कि वह भारत की परेशानी का फायदा उठाने की कोशिश न करे. लेकिन दिसंबर में सरदार स्वर्ण सिंह दबाव में कश्मीर मसले पर ज़ुल्फिकार अली भुट्टो से वार्ता कर रहे थे. यह पश्चिमी देशों से मदद पाने के एवज में करना पड़ा था. स्वर्ण सिंह अटक गए, नेहरू पीछे हटे, केनेडी की हत्या हो गई और अमेरिका के साथ जो अवसर बन रहा था वह खत्म हो गया. भारत फिर ‘केंद्र-के-वाम’ वाले खांचे में चला गया.

इंदिरा गांधी तेज थीं. 1971 में बांग्लादेश के रूप में जो अवसर बना, तो उन्हें पता था कि वे तभी कामयाब हो सकती हैं जब भारत को चीन के दबाव से मुक्त किया जाएगा. उन्होंने सोवियत संघ के साथ शांति, मैत्री और सहयोग की संधि की. यह रणनीतिक गठजोड़ का ही छद्म नाम था. इसने उन्हें युद्ध निपटाने के लिए कुछ सप्ताह दे दिए.


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नेता की गद्दी पर केवल फूल ही नहीं बिखरे होते हैं. रणनीति और विदेश से संबंधित नीतियों की दुनिया शिखर बैठकों जितनी आकर्षक नहीं होती.

राजीव गांधी, नरसिम्हा राव, अटल बिहारी वाजपेयी और डॉ. मनमोहन सिंह को भी इस चुनौती से निपटना पड़ा था. इनमें से किसी के पास वह राजनीतिक पूंजी नहीं थी जैसी मोदी के पास है. इन सबने उस ‘त्रिशूल’ को तोड़ने के लिए पाकिस्तान से सुलह की एक कोशिश तो की ही थी. हम डॉ. मनमोहन सिंह द्वारा पढ़ाए गए इस पाठ का जिक्र कर चुके हैं कि चीन को सस्ते में तुलनात्मक रणनीतिक बढ़त से वंचित करने के लिए भारत के लिए यही बेहतर है कि वह पाकिस्तान की ओर शांति का हाथ बढ़ाए.

मोदी ने भी नवाज़ शरीफ के साथ नाटकीय शुरुआत तो की थी मगर जल्दी ही कदम खींच लिये थे. बेशक, गुरुदासपुर और दूसरी जगहों पर धोखा मिला. लेकिन महान नेता सामरिक नीति और रणनीति में फर्क करना जानते हैं. बहरहाल, आगे जो कुछ हुआ, उन्होंने और उनकी पार्टी ने पाकिस्तान विरोध को अपनी सियासत का सूत्र बना लिया. आतंकवाद हमारे राष्ट्रवादी सोच में सबसे प्रमुख रणनीतिक खतरा बन गया. पाकिस्तान-आतंकवाद-इस्लाम भाजपा का चुनावी त्रिशूल बन गया.

मोदी के पूर्ववर्तियों ने ‘त्रिशूल’ से मुक्त होने की जो नाकाम कोशिश की थी, वह कोशिश मोदी ने भी की. लेकिन वे उनसे अलग हट कर चीन की ओर झुके, उसके नेता का खूब अभिनंदन किया, उसके उकसावों की अनदेखी की, उसकी ओर से किए गए निवेशों का स्वागत किया और उसके साथ व्यापार घाटा 60 अरब डॉलर के पास पहुंच गया तो भी इससे मुंह फेरे रहे. यह तब था, जब उनका आर्थिक राष्ट्रवाद उन्हें अमेरिका के साथ छोटा-सा भी व्यापारिक सौदा करने से रोक रहा था.

सारा गणित यह था कि चीन को यह एहसास दिलाया जाए कि भारत के साथ सुलह-शांति में उसका ही हित है. शी ने अब दिखा दिया है कि विश्व का ‘डिप्टी सुपरपावर’ अपने रणनीतिक हितों को व्यापार सरप्लस से नहीं तौलता. पाकिस्तान को अलग-थलग करने के लिए उसके साथियों- पूरब में चीन और पश्चिम में अरब जगत को अपने साथ लेने का विचार रचनात्मक और दुस्साहसी था. लेकिन शी ने पेशकश ठुकरा दी और यह विचार विफल हो गया.

अब मोदी के पास वही तीन विकल्प बचे हैं- किसी सुपरपावर का हाथ थाम लो, अपने दो पड़ोसियों में से किसी एक से सुलह-शांति कर लो या ‘एकला चलो’ गाते हुए दोनों मोर्चों पर लड़ते रहो. इनमें से पहले दो विकल्पों का मेल कैसा रहेगा?

एक ध्रुवीय दुनिया का दौर खत्म हुआ, साथ ही गुटनिरपेक्षता का भी. दूसरे ध्रुव पर कभी सोवियत संघ होता था, आज वहां चीन काबिज है. सीमा समस्या को सुलझाना या एलएसी का निर्धारण करना उसके लिए कोई फायदेमंद नहीं है. इन दो प्रतिद्वंदियों के बीच अमन तभी मुमकिन है जब सुपरपावर चाहेगा. भारत के लिए शी का चीन वह सुपरपावर नहीं है.

अब सवाल यह है कि क्या मोदी उस स्थिति की ओर लौटेंगे, जहां भारत ज्यादा ताकतवर शक्ति के रूप में पाकिस्तान से शांति की मांग करे? आप पाकिस्तान से चाहे जितनी नफरत कर लें, वह भी अंतरराष्ट्रीय और खासकर पश्चिमी प्रभावों से अछूता नहीं है— विशेषकर इसलिए कि वह आर्थिक बदहाली का प्रतीक भी है. पाकिस्तानी राज्यतंत्र के सुधार में विश्व समुदाय की भी दिलचस्पी है. यह सुधार रातोरात नहीं हो सकता. लेकिन अगर आप उस दिशा में बढ़ेंगे तो आपको अपनी घरेलू राजनीति में जरूरी बदलाव करने होंगे. तब यह पेचीदा प्रश्न उभरेगा कि आपके रणनीतिक विकल्प आपकी चुनावी राजनीति से तय होते हैं या इसका उलटा है?


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मोदी के सामने विकल्पों की वही पुरानी थाली है. नेहरू ने सबसे बुरा विकल्प चुना, इंदिरा ने सही विकल्प चुना मगर कुछ ही समय के लिए, मनमोहन सिंह ने तीसरा विकल्प आजमाने की कोशिश की थी लेकिन उनके पास न तो समय था और न राजनीतिक पूंजी थी.

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