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न्यायपालिका के कामकाज में पारदर्शिता के लिए क्या उसे सूचना के अधिकार कानून के दायरे में आना चाहिए

न्यायपालिका की स्वतंत्रता और अभिव्यक्ति की आज़ादी के बीच संतुलन कायम करने तथा प्रधान न्यायाधीश का पद को आरटीआई कानून के दायरे में शामिल करने जैसे सवालों पर संविधान पीठ का फैसला आयेगा.

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सुप्रीम कोर्ट. (फाइल फोटो/पीटीआई)

सरकारी कामकाज में पारदर्शिता लाने के बाद से ही न्यायपालिका के प्रशासनिक कार्यो में भी पारदर्शिता का मुद्दा लगातार उठ रहा है. न्यायपालिका के कामकाज में पारदर्शिता लाने के लगातार प्रयास भी हो रहे हैं. इसके बावजूद एक तथ्य यह भी है कि सूचना के अधिकार कानून का ज़रूरत से ज़्यादा विस्तार करने से न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर भी असर पड़ सकता है. सूचना क्रांति और सोशल मीडिया के इस दौर में न्यायपालिका की स्वतंत्रता और जानकारी प्राप्त करने, बोलने तथा अभिव्यक्ति की आज़ादी के मौलिक अधिकारों के बीच तर्कसंगत संतुलन बनाने की आवश्यकता है.

न्यायपालिका के कामकाज में पारदर्शिता की मांग एक सीमा तक तो सही हो सकती है. लेकिन न्यायाधीशों की नियुक्ति, पदोन्नति और स्थानांतरण के संबंध में सारी प्रक्रिया को सूचना के कानून के दायरे में लाने की मांग तर्कसंगत नहीं है. हां, न्यायाधीशों की पदोन्नति और उनके तबादले की प्रक्रिया या इस बारे में लिये गये निर्णय के आधारों के सार को पारदर्शिता के दायरे में लाना सर्वथा उचित होगा.

परंतु न्यायाधीशों के पद नियुक्तियों के मामले में सारे तथ्यों को पारदर्शिता के दायरे में लाना शायद उचित नहीं होगा. क्योंकि इसके रास्ते में निजता का अधिकार आड़े आ सकता है. न्यायाधीश के पद के लिये अनेक वकीलों के भी आवेदन आते हैं और कॉलेजियम इनमें से कुछ के ही नामों की सिफारिश करती है. ऐसी स्थिति में यदि सूचना के अधिकार के कानून के तहत उन वकीलों के नाम सार्वजनिक किये जाते हैं, जिनके नाम की सिफारिश नहीं की गयी या जिनके नामों को कॉलेजियम ने किसी वजह से उपयुक्त नहीं पाया, तो इससे न सिर्फ उनके निजता के अधिकार का हनन होगा बल्कि उनकी वकालत पर भी असर पड़ सकता है.

न्यायाधीशों के तबादले और पदोन्नति की प्रक्रिया पारदर्शिता ज़रूरी है. मद्रास उच्च न्यायालय की मुख्य न्यायाधीश वी के ताहिलरमणी और न्यायपालिका में भ्रष्टाचार के आरोपो की जांच का आदेश देने वाले पटना उच्च न्यायालय के न्यायाधीश राकेश कुमार के तबादले ने कई सवाल उठाये जिनके जवाब अपेक्षित थे.

हालांकि, न्यायाधीशों की पदोन्नति के मामले में आवाज़ उठने की वजह वरिष्ठता को नजरअंदाज़ किया जाना या संदिग्ध पृष्ठभूमि वाले किसी न्यायाधीश को पदोन्नति करने की सिफारिश के खिलाफ स्वर भी मुखर होता है.

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न्यायाधीशों के चयन की प्रक्रिया में पादर्शिता के अभाव का ही नतीजा शीर्ष अदालत की कॉलेजियम के सदस्य रह चुके न्यायमूर्ति जे चेलमेश्वर की नाराज़गी और इस व्यवस्था के प्रति असंतोष सार्वजनिक हुआ था. न्यायमूर्ति चेलामेश्वर ने तो राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग कानून को निरस्त करने वाले बहुमत के अक्तूबर, 2015 के फैसले से इतर अपने अल्पमत के निर्णय में इस कानून को सही ठहराया था.

न्यायमूर्ति चेलामेश्वर के बाद न्यायाधीश मदन बी लोकूर ने भी इस मामले में बयान दिया था जिससे ऐसा लगता है कि उच्चतम न्यायालय की कॉलेजियम में सबकुछ ठीक नही है. ये दोनों न्यायाधीश अपने कार्यकाल के दौरान कॉलेजियम के सदस्य रह चुके हैं. कॉलेजियम की कार्यशैली को लेकर उठ रही आवाज़ों को देखते हुये ज़रूरी है कि इसमें उचित सुधार किया जाये. लेकिन इसकी कार्यशैली में पारदर्शिता की सीमा के बारे में तो शीर्ष अदालत ही फैसला करेगी.


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यहां एक सवाल यह भी उठता है कि आखिर सूचना के अधिकार कानून के तहत किसी व्यक्ति से संबंधित व्यक्तिगत जानकारी प्राप्त करने की क्या सीमा होनी चाहिए? क्या यह जानकारी मांगना तर्कसंगत होगा कि किसी न्यायाधीश या उसके परिजन की किस बीमारी के इलाज पर कितना धन खर्च हुआ? शारीरिक अस्वस्थता किसी भी तरह से सूचना के अधिकार का हिस्सा नहीं माना जा सकता, लेकिन इस तरह की भी जानकारी मांगी जाने के मामले सामने आये हैं.
देश के भावी प्रधान न्यायाधीश एस ए बोबड़े की भी कुछ ऐसी ही राय है कि देश के प्रत्येक नागरिक की निजता के अधिकार की रक्षा होनी चाहिए और उन नामों को सार्वजनिक करने की कोई आवश्यकता नहीं है जिन्हें कॉलेजियम ने न्यायाधीश पद के लिये सिफारिश करने के उपयुक्त नहीं पाया.

बहरहाल, न्यायपालिका की स्वतंत्रता और बोलने, जानकारी प्राप्त करने तथा अभिव्यक्ति की आज़ादी के बीच संतुलन कायम करने तथा प्रधान न्यायाधीश का पद सूचना के अधिकार कानून के दायरे में शामिल करने जैसे सवालों पर संविधान पीठ बुधवार की सवेरे साढ़े दस बजे अपनी व्यवस्था देगी.

इस व्यवस्था के बाद साफ हो जायेगा कि उच्चतम न्यायालय की कॉलेजियम द्वारा नियुक्तियों, पदोन्नति और स्थानांतरण के मामले में पद के लिये नामों की सिफारिश और देश के प्रधान न्यायाधीश का कार्यालय सूचना के अधिकार कानून के दायरे में आयेगा या नहीं.

न्यायालय का फैसला ही यह निर्धारित करेगा कि न्यायाधीशों की कोलेजियम इसके दायरे में आयेगी या नहीं क्योंकि शीर्ष अदालत की रजिस्टरी का यही तर्क रहा है कि इस तरह की जानकारी सार्वजनिक करना न्यायपालिका के कामकाज के हित में नहीं है. न्यायाधीशों की नियुक्तियों, पदोन्नति और तबादलों का संबंध है तो इस बारे में उच्चतम न्यायालय ने अपनी वेबसाइट पर पहले ही जानकारी देना शुरू कर दिया है.

केन्द्रीय सूचना आयोग के जनवरी, 2009 के आदेश से उठा यह विवाद पिछले साल ही संविधान पीठ के पास पहुंचा. संविधान पीठ ने इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर चार अप्रैल को सुनवाई पूरी की थी. इसके बाद से ही सूचना के अधिकार को लेकर संघर्षरत कार्यकर्ताओं की निगाहें शीर्ष अदालत के निर्णय की ओर लगी हुयी हैं.

प्रधान न्यायाधीश रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली पांच सदस्यीय संविधान पीठ सूचना के अधिकार कानून के प्रावधानों की व्याख्या करके इन सवालों के जवाब देगी. संविधान पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति एन वी रमण, न्यायमूर्ति डा धनन्जय, वाई चन्द्रचूड़, न्यायमूर्ति दीपक गुप्ता और न्यायमूर्ति संजीव खन्ना शामिल है.

वैसे तो यह मामला जनवरी, 2009 से ही चर्चा का केन्द्र बना हुआ है. केन्द्रीय सूचना आयोग ने छह जनवरी, 2009 को उच्चतम न्यायालय को आदेश दिया था कि शीर्ष अदालत के चुनिन्दा न्यायाधीशों की निजी संपत्तियों के विवरण की जानकारी दे.

उच्चतम न्यायालय की रजिस्टरी ने केन्द्रीय सूचना आयोग के इस आदेश को दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती दी थी. उच्च न्यायालय के न्यायाधीश रवीन्द्र भट, जो अब उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश हैं, ने सूचना आयोग के आदेश को सही ठहराया था. उच्चतम न्यायालय ने इस आदेश के खिलाफ अपील की तो 12 जनवरी 2010 को उच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ ने इसे बरकरार रखा था.

उच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों न्यायमूर्ति ए पी शाह, न्यायमूर्ति विक्रमजीत सेन और न्यायमूर्ति एस मुरलीधर की पीठ ने आरटीआई कार्यकर्ता सुभाष चंद्र अग्रवाल की याचिका पर अपने फैसले में कहा था कि उच्चतम न्यायालय और प्रधान न्यायाधीश का कार्यालय सूचना के अधिकार कानून के दायरे में आता है.

उच्च न्यायालय ने स्पष्ट शब्दों में कहा था कि प्रधान न्यायाधीश का कार्यालय सूचना के अधिकार कानून के दायरे में आता है और उसने उच्चतम न्यायालय की अपील यह कहते हुये ठुकरा दी थी क न्यायपालिका की स्वतंत्रता न्यायाधीश का निजी विशेषाधिकार नहीं है बल्कि यह उन्हें एक ज़िम्मेदारी देता है.

उच्च न्यायालय की पूर्ण पीठ के फैसले के खिलाफ उच्चतम न्यायालय की रजिस्टरी ने उच्चतम न्यायालय में अपील दायर की और इस इस तरह सारा मामला शीर्ष अदालत पहुंच गया.

इस मामले का एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि उच्चतम न्यायालय के न्यायमूर्ति बी सुदर्शन रेड्डी की अध्यक्षता वाली दो सदस्यीय पीठ ने 26 नवंबर, 2010 को इस मामले में उठे तीन सवाल तीन न्यायाधीशों की खंडपीठ के पास विचारार्थ भेजे थे.

ये सवाल थे-

1.क्या सुभाष चंद्र अग्रवाल द्वारा मांगी गयी जानकारी न्यायपालिका की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप करेगी? क्या यह सूचना देना जनहित में नहीं होगा?

2.क्या यह सूचना उपलब्ध कराने से कोलेजियम के फैसले की विश्वसनीयता खत्म करेगी और या भविष्य में उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीशों की नियुक्ति के मसले पर विचार करते समय कोलेजियम के सदस्यों द्वारा खुल कर अपनी राय व्यक्त करने से रोकेगी?

3.क्या सूचना के अधिकार कानून की धारा 6:आई(जे) सीपीआईको मांगी गयी सूचना उपलब्ध कराने से छूट प्रदान करता है? क्या यह धारा निजी जानकारी सार्वजनिक करने से छूट देती है और इसका सार्वजनिक गतिविधि से कोई संबंध नहीं है?
क्या उच्चतम न्यायालय और प्रधान न्यायाधीश का कार्यालय सूचना के अधिकार कानून के दायरे में आता है या नहीं? इस सवाल को न्यायमूर्ति रंजन गोगोई की अध्यक्षता वाली तीन सदस्यीय पीठ ने इस मामले को संविधान पीठ को सौंपा था. इस पीठ के अन्य सदस्यों में न्यायमूर्ति प्रफुल्ल चंद्र पंत (अब सेवानिवृत्त) और न्यायमूर्ति ए एम खानविलकर शामिल थे.
इस पीठ ने मामला संविधान पीठ को सौंपते हुये कहा था कि इस प्रकरण में न्यायपालिका की स्वतंत्रता ओर निजता के अधिकार से संबंधित सांविधानिक सवाल जुड़े हैं. पीठ ने यह भी कहा था कि सूचना का अधिकार कानून नागरिकों के बोलने और अभिव्यक्ति के सांविधानिक अधिकार को मान्यता देता है.

न्यायालय ने यह भी कहा था कि न्यायपालिका की स्वतंत्रता संविधान के बुनियादी ढांचे का हिस्सा है. शीर्ष अदालत ने न्यायपालिका की स्वतंत्रता और बोलने तथा अभिव्यक्ति के मौलिक अधिकार को अत्यधिक महत्वपूर्ण बताते हुये कहा था कि दोनों में संतुलन बनाने की आवश्यकता है.


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न्यायालय ने हालांकि व्यवस्था मेें पारदर्शिता को लेकर चल रहे अभियान और मौजूदा बहस को स्वस्थ राष्ट्र का संकेत बताया था लेकिन साथ ही उसने इससे जुड़े बिन्दुओं को सुविचारित व्यवस्था के लिये सारा मामला संविधान पीठ को सौप दिया था.

यह सही है कि न्यायपालिका से संबंधित कुछ जानकारियां, जिन्हें रेखांकित किया जा सकता है, सूचना के अधिकार कानून के दायरे में शामिल की जानी चाहिएं लेकिन प्रधान न्यायाधीश के कार्यालय को पूरी तरह से इस कानून के दायरे में लाना शायद न्यायपालिका जैस संस्था को मज़बूती तो प्रदान नहीं करेगा. इसलिए न्यायपालिका की स्वतंत्रता और मौलिक अधिकारों के बीच संतुलन बनाने की आवश्यकता है.

देखना यह है कि संविधान पीठ न्यायपालिका की स्वतंत्रता, निजता के अधिकार और नागरिकों के बोलने तथा अभिव्यक्ति के अधिकारों के बीच किस तरह संतुलन बनाती है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं .जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. इस लेख में उनके विचार निजी हैं)

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