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ऐसे मज़बूत हुई 377 के खिलाफ कानूनी लड़ाई

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मेनका गुरुस्वामी, हरीश अय्यर, रितु डालमिया और नवतेज सिंह जौहर | दिप्रिंट

धारा 377 के खिलाफ लड़ाई गैर सरकारी संगठनों से स्वयं एलजीबीटी के लोगों तक, सेक्स से अधिकारों तक गोपनीयता से समानता तक पहुँच चुकी है|

2001 से 2012 तक, भारतीय दंड संहिता (आईपीसी) की धारा 377 के लिए कानूनी चुनौती सेक्स और एड्स के बारे में थी।

2001 में, नाज़ फाउंडेशन ने सार्वजनिक हित में यह तर्क देते हुए मुकदमा दायर किया था कि वे एक एनजीओ के रूप में एचआईवी-एड्स पर काम कर रहे थे और धारा 377 उनके रास्ते कि अड़चन बन गया|

यह तर्क दिया गया कि पुरुषों के साथ यौन संबंध बनाने वाले पुरुष (“एमएसएम”), एचआईवी-एड्स की उच्च जोखिम श्रेणी में आते थे लेकिन एनजीओ ने समाज के इस वर्ग के साथ काम करने में कठिनाई महसूस की क्योंकि आईपीसी की धारा 377 के तहत ऐसे यौन संबंध, चाहे क्यों न सहमति से ही हों, एक दंडनीय अपराध थे| भला हो सामाजिक कलंक का जिसे 377 ने समलैंगिकता के इर्द-गिर्द सुदृढ़ किया और पुलिस को भी शुक्रिया जिसने समलैंगिक पुरुषों का उत्पीड़न किया, समुदाय अदृश्य हो गया था|

यह 2001 से 2009 तक नाज़ मामले में दिल्ली उच्च न्यायालय के समक्ष मुख्य मुद्दों में से एक था। वॉइसेज़ अगेन्स्ट 377 नामक एक अन्य एनजीओ भी अपराधीकरण और एलजीबीटी समुदाय के उत्पीड़न के बारे में तर्क देते हुए इस मामले में शामिल हो गया|

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2009 में जब दिल्ली उच्च न्यायालय ने समलैंगिकता को वैध किया तो इसने मौलिक अधिकारों की बात की| इस फैसले ने पाया कि धारा 377 अनुच्छेद 14 (कानून के समक्ष समानता), अनुच्छेद 21 (जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार), और अनुच्छेद 15 (धर्म, कुल, जाति, लिंग या जन्म स्थान के आधार पर भेदभाव की रोकथाम) का उल्लंघन करती है।

एक ज्योतिषी सुरेश कुमार कौशल ने सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष इस फैसले के खिलाफ अपील की। न्यायमूर्ति जी.एस. सिंघवी की अगुवाई में एक न्यायपीठ ने महसूस किया कि यह अदालत का काम नहीं था बल्कि कानून बदलने के लिए संसद की ज़िम्मेदारी थी। समलैंगिकता का समाज में स्वीकार्य होना या न होना एक सामाजिक मुद्दा था और इस प्रकार यह विधायिका का कार्य था कि वह इसे कानून में प्रतिबिम्बित करे|

ऐसा करने में, फैसले ने इस विचार को खारिज कर दिया कि किसी भी मौलिक अधिकार का उल्लंघन किया गया था। असल में इसने घृणित ढंग से कहा, “उच्च न्यायालय ने अनदेखी की कि देश की आबादी में एक छोटा सा हिस्सा महिला समलैंगिकों, पुरुष समलैंगिकों, उभयलिंगियों या ट्रांसजेंडरों का है और पिछले 150 से भी अधिक वर्षों में धारा 377 के तहत अपराध के लिए 200 से भी कम लोगों पर मुकदमा चलाया गया है|”

भारत का संविधान कहता है कि एक भी भारतीय के मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं किया जा सकता है। और इस तरह धारा 377 के खिलाफ कानूनी लड़ाई जनहित याचिका से रिट याचिका में बदल गयी, गैर सरकारी संगठनों से व्यक्तियों पर केन्द्रित हो गयी और सेक्स से हटकर अधिकारों तक पहुँच गयी|

उपचारात्मक याचिकाएं दायर की गईं, और मनमोहन सिंह सरकार ने खुद भी एक समीक्षा याचिका दायर की। लेकिन इनका दायरा सीमित था क्योंकि उन्हें यह देखना था कि सुप्रीम कोर्ट का अपना निर्णय सही था या नहीं।

नाज़ से नवतेज तक

2016 में, अधिवक्ता मेनका गुरूस्वामी ने स्वयं को एलजीबीटी घोषित करने वाले पाँच सफल भारतीयों की ओर से एक याचिका दायर की थी। यह एक उल्लेखनीय बदलाव था। कोई गैर सरकारी संगठन नहीं बल्कि एलजीबीटी के लोग स्वयं कह रहे थे कि “मैं एलजीबीटी हूँ और संविधान द्वारा प्रत्याभूत मेरे मौलिक अधिकारों का धारा 377 के द्वारा उल्लंघन किया जा रहा है।“

याचिका इस प्रकार शुरू होती हैः

याचिकाकर्ता संख्या 1 नवतेज सिंह जौहर, संगीत नाटक अकादमी अवार्ड से पुरस्कृत एक भरतनाट्यम नर्तक हैं, याचिकाकर्ता संख्या 2 सुनील मेहरा एक वरिष्ठ पत्रकार हैं। याचिकाकर्ता संख्या 1 और 2 1998 से एक वचनबद्ध रिश्ते में एक साथ रहते हैं। याचिकाकर्ता संख्या 3 रितु डालमिया एक प्रसिद्ध रेस्तरां मालकिन हैं, जिनके रेस्तरां, टीवी शो और पुस्तकें इटैलियन कुकिंग को देश भर में घर-घर लेकर आए हैं। याचिकाकर्ता संख्या 4 अमन नाथ भारतीय कला और साहित्य के एक विशेषज्ञ हैं जिन्होंने 23 वर्षों तक उनके साथी रहे स्वर्गीय फ्रांसिस वैकजियार्ग के साथ मिलकर भारत की ऐतिहासिक इमारतों की मरम्मत और संरक्षण के लिए नीमराना शृंखला के होटलों की स्थापना की। याचिकाकर्ता संख्या 5 (आयशा कश्यप) ने मार्केटिंग के क्षेत्र में एक सफल पेशेवर के रूप मे कार्य किया है और अब वह खाद्य एवं पेय उद्योग में एक सलाहकार हैं।

समान याचिकाओं के साथ कुछ अन्य लोग भी शामिल हुए: होटल व्यवसायी केशव सूरी; ट्रांसजेंडर राइट एक्टिविस्ट अक्काई पद्मशाली, उमा उमेश और सुमा एम; एलजीबीटी लोगों के अभिभावकों का एक समूह, एक्टिविस्ट हरीश अय्यर और अशोक रॉ कवि; आरिफ जफर – एक समलैंगिक जिन्होंने 47 दिन जेल में गुजारे; और 20 वर्तमान तथा पूर्व आईआईटी विद्यार्थियों का एक समूह।

इन सभी याचिकाओं की एक साथ सुनवाई न केवल इसे एक मजबूत मामले का दर्जा देती  है बल्कि द्दढ़तापूर्वक यह भी दर्शाती है की हमारे बीच एक एलजीबीटी समुदाय भी है।

नतीजतन, अब मुद्दा केवल सेक्स से कहीं ज्यादा है। यह मुद्दा अधिकारों के बारे में भी है – भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का अधिकार, कानूनी समानता का अधिकार, जीवन और स्वतंत्रता का अधिकार।

संविधान का हृदय और उसकी आत्मा

सुप्रीम कोर्ट अब यह नहीं कह सकता कि केवल थोड़े से अल्पसंख्यक प्रभावित हुए हैं, क्योंकि यह एक जनहित याचिका नहीं है बल्कि एक रिट याचिका है। प्रत्येक नागरिक के मौलिक अधिकारों की सुरक्षा करना सर्वोच्च न्यायालय का संवैधानिक कर्तव्य है।

यदि किसी भारतीय नागरिक के मौलिक अधिकारों का हनन किया जाता है, तो वह निवारण के लिए एक रिट याचिका के माध्यम से सीधे सुप्रीम कोर्ट से संपर्क कर सकता है। यह अधिकार संविधान के अनुच्छेद 32 के तहत स्थापित हैं, जिसे बी.आर. अम्बेडकर ने “संविधान की आत्मा और इसका दिल” कहा था।

धारा 377 के खिलाफ वर्तमान कानूनी चुनौती संविधान के दिल और आत्मा से अन्य भारतीयों के बराबर की कानूनी स्थिति की अपील कर रही है । मुद्दा अब किसी के बेडरूम की गोपनीयता में यौन संबंध रखने का अधिकार नहीं है और न ही इसके लिए अपराधी कहे जाने का है। मुद्दा अब केवल पुलिस द्वारा उत्पीड़न का नहीं है। मुद्दा मुख्यधारा से अलग यौन उन्मुखीकरण की मान्यता का है।

नाज़ से लेकर नवतेज सिंह जोहर तक, जनहित याचिका से लेकर रिट याचिका तक, लिंग से लेकर उसके कानूनी दर्जे तक, गोपनीयता से लेकर भेदभाव न करने तक, दीर्घकालिक प्रभाव के साथ यह एक शक्तिशाली परिवर्तन है। सुप्रीम कोर्ट ने पहले ही संकेत दिया है कि वह धारा 377  स्पष्टीकरण करेगी , लेकिन निर्णय का उपयोग निश्चित रूप से कानूनी चुनौतियों को बढ़ाने के लिए किया जाएगा। आज इसके बारे में सोचना असंभव हो सकता है, लेकिन भारत का संविधान समान-लिंग विवाह को हमारी कल्पना से पहले वास्तविकता बना देगा।

Read in English : Why the legal challenge to Section 377 is much stronger this time

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