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क्या जासूसों के भी उसूल होते हैं? वो भी भारत-पाकिस्तान के? इन दुर्लभ कहानियों से तो यही लगता है

चित्रण पियैलीडिज़ाइन

युद्ध के दौरान शांति बहाल करतीं भारतीय और पाकिस्तानी जासूसों की कुछ अनकही और दुर्लभ कहानियां।

ह एक खूब बोला जाने वाला स्वयं सिद्ध सत्य है कि चोरों की भी आचार संहिता होती है। लेकिन क्या ऐसा सम्मान जासूसों के बीच भी होता है? क्या ऐसा उन पेशेवरों के बीच भी संभव है जिन्हें अपने मौन युद्धों को लड़ने में छल, झूठ यहाँ तक कि हिंसा और अस्वीकरणीयता का भी उपयोग करने के लिए प्रशिक्षित और अनुकूलित किया जाता है? ऐसा युद्ध, जिसमें कोई वर्दी नहीं पहनी जाती, कोई नियम नहीं, कोई जिनेवा सम्मलेन नहीं, कोई युद्ध बंदी नहीं या किसी प्रकार का कोई भी युद्ध नहीं।

जासूसी का इतिहास कहानियों से भरा हुआ है जो आपको बतायेगा कि अक्सर हमारी समझ से भी ज्यादा ऐसी चीजें हो सकती हैं, और होती भी हैं, यहाँ तक कि शीत युद्ध के दौरान भी ऐसा हुआ है। प्रतिद्वंदी शत्रु मिलते हैं, बात करते हैं, आपसी सम्मान विकसित करते हैं और कभी-कभी व्यक्तिगत प्रेम भी प्रदर्शित करते हैं। विशेष रूप से ऐसा तब होता है जब वे अपने सिद्धांतों के अनुरूपतः गुप्त रूप से एक दूसरे से किसी विषय पर बातचीत करते हैं।

इस सप्ताह हमारा इस असामान्य क्षेत्र का अन्वेषण करने का कारण यह है कि भारतीय और पाकिस्तानी मीडिया अपने पक्ष के सम्बंधित जासूस प्रमुखों,रॉ प्रमुख ए.एस. दुलत और आईएसआई बॉस असद दुर्रानी जिन्होंने अलग-अलग अवधियों में कार्य किया,के वास्तव में सराहनीय संयुक्त प्रयास में हुए खुलासे पर छाती पीट रहे हैं। इन उल्लेखनीय वार्तालापों के सूत्रधार या एंकर हैं पत्रकार आदित्य सिन्हा।

यह ज्ञात है कि विभिन्न बिन्दुओं पर दोनों देशों के जासूस प्रमुख (या राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार जो भूतपूर्व जासूस प्रमुख भी थे) दूरस्थ स्थानों पर गुप्त रूप से मिलते हैं (थाईलैंड भारतीयों और पाकिस्तानियों के लिए उतना ही सुविधाजनक है जितना अमेरिकी और सोवियत के जासूसों के लिए विएना हुआ करता था)।इस किताब, द स्पाई क्रॉनिकल्स में एक मर्मभेदी कहानी है कि कैसे रॉ ने असद दुर्रानी के बेटे की मदद की, जब उन्हें वीजा उल्लंघन के लिए हवाई अड्डे पर बॉम्बे पुलिस ने पकड़ा था और उन्होंने कभी पता भी नहीं लगने दिया कि वह एक पूर्व आईएसआई प्रमुख के बेटे थे। दुर्रानी उस समय बहुत पहले से सेवानिवृत्त हो चुके थे। लेकिन दुलत, जिन्होंने तत्कालीन रॉ प्रमुख राजिंदर खन्ना से बात की थी, के साथ उनके सम्बन्ध “सद्भावनापूर्ण” थे।

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हमारे भी कुछ जासूस प्रमुखों के सेवाकाल में गुप्त वार्तालाप हुए थे।अपनी मृत्यु से कुछ ही समय पहले, राजीव गाँधी के समय में रॉ निदेशक रहे आनंद वर्मा ने द हिन्दू में एक टिप्पणी में उस समय के तत्कालीन आईएसआई प्रमुख बहुत कुख्यात लेफ्टिनेंट जनरल हामिद गुल के साथ अपनी गुप्त बातचीत के बारे में आश्चर्यजनक खुलासे किए थे।उन्होंने कहा कि वार्ताओं, जो ज्यादातर विदेश में हुई थीं और बाद में कोड वर्ड और संकेतों का इस्तेमाल करते हुए फ़ोन लाइनों पर,  वे सियाचीन विवाद को सुलझाने और कश्मीर में तनाव कम करने को लेकर करीब आये थे।

उन्होंने विश्वास बनाने के लिए यह भी खुलासा किया कि एक गुप्त अभियान में गुल ने सिख इकाइयों के चार सैनिकों को भारत को सौंपा था जो 1984 में ऑपरेशन ब्लू स्टार के बाद धोखा देकर भारत से पाकिस्तान चले गये थे।

उन्होंने लिखा कि बातचीत की प्रक्रिया पाकिस्तान द्वारा शुरू की गई थी और इसमें राजीव गाँधी और जनरल ज़िया-उल-हक़ का प्रत्यक्ष योगदान था। उन्होंने लिखा कि पहली बैठक के लिए राजीव ने जॉर्डन के क्राउन प्रिंस हसन की मध्यस्थता की मांग की थी। वह राजीव के निजी मित्र थे (भारत द्वारा रॉयल जॉर्डनियन एयरलाइन्स को ट्रैफिक अधिकारों की अनुमति देने और प्रिंस द्वारा राजीव को एक फैंसी कार उपहार देने के विवाद को याद कीजिये)। हसन की पाकिस्तान में भी बहुत अच्छी साख थी (उनकी पत्नी पाकिस्तानी मूल की थीं)।

ज़िया की हत्या होते ही यह संचलन रुक गया। वर्मा को संदेह था कि उनकी हत्या से, उनके द्वारा शांति बहाली के लिए उन्हीं की सेना के कमांडरों की असम्मति का नाता हो सकता था। गुल कुछ समय बाद ही आईएसआई से निकल गए और एक आजीवन स्वच्छंद जिहादी बन गये। और दुसरे छोर पर एकमात्र नागरिक, तत्कालीन पूर्व विदेश सचिव नियाज़ नाइक (हम उन्हें दिल्ली में पाकिस्तानी उच्चायुक्त के रूप में अच्छी तरह से जानते थे), भी उसी समय के दौरान रहस्यमय परिस्थितियों में मृत पाए गये।

यह सब एक स्पष्ट षड्यंत्र सिद्धांत से जुड़ता है। वर्मा, दुलत/रमन की पीढ़ी से पहले के अधिकांश भारतीयों की तरह एक बहुत सतर्क और न्यून-कथित जासूस थे और निश्चित रूप से इन्होंने यह खुलासा करने में लगभग तीन दशकों का इंतजार किया। बेशक, गुल की मौत और तब उनकी आलोचनाओं से उन्हें भड़काया गया, जिसमें ये लेखक भी शामिल थे।

मैं मानता हूँ कि वर्मा अपने अनुस्मरण में सत्यवादी रहे हैं। मैंने इस तरह की ट्रैक-II बैठकों की एक श्रृंखला में भाग लिया। इनमें से एक, अम्मान में बलुसा समूह की एक बैठक थी, जिसकी मेज़बानी क्राउन प्रिंस हसन ने की थी। इसमें एक पूर्व भारतीय प्रमुख एयर चीफ मार्शल एस.के कौल, उनके भाई और पूर्व मंत्रिमंडल सचिव और अमेरिका में भारतीय राजदूत पी.के. कौल, लेफ्टिनेंट जनरल सतीश नाम्बियार, पाकिस्तानी सेना के पूर्व उप-प्रमुख जनरल के.एम. आरिफ एवं शीर्ष उद्योगपति और समाज-सेवी बाबर अली (उन्होंने पाकिस्तान के बेहतरीन प्रबंधन संस्थान, एलयूएमएस, जिसकी स्थापना में इनका योगदान था, में लाहौर में एक सत्र की मेजबानी की थी) शामिल थे।

क अन्य ट्रैक-II समूह (बलुसा नहीं) जिसमें मैं शामिल हुआ, उसमें भी भूतपूर्व भारतीय और पाकिस्तानी सेना प्रमुख जनरल सुंदरजी और जहाँगीर करामत, जसवंत सिंह (बाद में वाजपेयी मंत्रिमंडल में थे), भारतीय रणनीतिक विचार के संस्थापक के. सुब्रमण्यम और अब भारत के बेहतरीन रणनीतिक मस्तिष्क सी. राजा मोहन शामिल थे।

बेशक, समूह के सबसे नेकनीयत सदस्यों में से एक थे सेवानिवृत्त मेजर जनरल महमूद दुर्रानी(असद से कोई सम्बन्ध नहीं), वह अब तक मिलने वाले लोगों में सबसे समझदार, अमनपसंद और एक सैनिक जैसे पाकिस्तानी जनरल थे। कोई आश्चर्य नहीं कि कमांडो-कॉमिक पाकिस्तानी टिप्पणीकारों ने उन्हें निंदापूर्ण “जनरल शांति” नाम दिया था।बाद में, 2008 में, पाकिस्तान के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार के रूप में, उन्होंने यह स्वीकार करने के लिए नैतिक साहस और ईमानदारी दिखायी कि कसाब एक पाकिस्तानी था और इस तथ्य को नकारने का कोई मतलब नहीं था। इसका अंजाम उन्हें अपनी नौकरी से हाथ धो कर भुगतना पड़ा।

वह एक पाकिस्तानी देशभक्त और एक सख्त सैनिक थे इस बात पर किसी को भी संदेह नहीं हो सकता।उन्होंने सियालकोट सेक्टर की हिफ़ाज़त के लिए भारत से एक युवा टैंक कमांडर के रूप में युद्द लड़ा, विशेष रूप से फिलोरा और चाविंडा के क्रूरतापूर्वक लड़े गए युद्दों में जहाँ एक आर्मर्ड डिवीज़न के नेतृत्व में भारत का सैन्यदल आगे बढ़ा था।शाम की एक लंबीसैर पर इटली के बेलगायो झील में बलुसा की बैठकों में से एक में, उन्होंने हमें 1965 की कहानी सुनाई।
उन्होंने कहा कि यह एक मूर्खतापूर्ण संघर्ष था क्योंकि दोनों पक्षों के जनरलों में सामरिक फुर्ती या पहल की कमी थी। एक मामले को छोड़कर, उन्होंने कहा कि आपकी तरफ से एकमात्र सही मायने में मेधावी और अत्यंत साहसी सामरिक कदम लेफ्टिनेंट कर्नल ए.बी. तारापोर द्वारा उठाया गया था जिन्होंने हमले में अपनी रेजिमेंट का नेतृत्व किया लेकिन तोप की गोलाबारी में मारे गये थे।उन्हें उस युद्ध के दो परम वीर चक्रों में से एक से सम्मानित किया गया था। महमूद दुर्रानी को तारापोर का शरीर मिल गया था और उन्होंने तब भी साथी घुड़सवार होने के कारणउन्हें सम्मान दिया।

ब यह बहुत चर्चा थी कि भारत 1987-88 में एक “निकट चीज” से एक नहीं बल्कि दो बार बच गया था,पहला 1987 में ब्रैसटैक्स के दौरान युद्ध और दूसरा 1988 में शांति। यह “सामान्य बोध” था, हालाँकि किसी भी खिलाड़ी द्वारा निर्दिष्ट या पुष्टिकृत नहीं किया गया कि सियाचीन डील लगभग पक्की हो गयी थी,यानि की फिर से पर्दे के पीछे से जासूसों के जरिये। यही कारण है कि यह मनोदशा युद्ध से शांति और फिर यथास्थिति में इतने नाटकीय ढंग से बदल गयी थी।

मैं वर्मा के सुझाव से बिलकुल सहमत हूँ कि पाकिस्तान की प्रमुख शक्ति ज़िया से छुटकारा पा चुकी थी क्योंकि वह नर्म होते हुए दिखाई दे रहे थे। लेकिन मैं यह भी मानता हूँ कि गुलशांति चाहने वाले के बजाय उस साजिश का अधिक संभावित हिस्सा थे।आईएसआई प्रमुख के रूप में गुल की निगरानी में एक अध्यक्ष और सैन्य तानाशाह की मौत हुई थी और वह उसके बाद एक साल तक उस नौकरी में बने रहे फिर बेनजीर भुट्टो द्वारा हटा दिए गये। निष्कासित नहीं किए गये, बस मुल्तान में एक महत्वपूर्ण सैन्यदल की कमान सँभालने के लिए स्थानांतरित कर दिए गये।

उपसंहार: मैं पहली बार लेफ्टिनेंट जनरल असद दुर्रानी से प्रतिष्ठित लन्दन स्थित इंटरनेशनल इंस्टिट्यूट ऑफ़ स्ट्रेटेजिक स्टडीज द्वारा मालदीव के कुरुम्बा विलेज रिसोर्ट(माले के नजदीक) में आयोजित ट्रैक-2 प्रकार के भारत-पाकिस्तान सम्मलेन में मिला था। यह 1998 की सर्दियाँ थीं और ऐसा लगता था मानो अटल बिहारी वाजपेयी और नवाज़ शरीफ के अंतर्गत भारत-पाकिस्तान संबंधों में कुछ शांति लौट आई थी। दुर्रानी ने जोर देते हुए आश्चर्य प्रकट किया कि भारतीय पक्ष की बड़ी बड़ी बातें इतने नाटकीय ढंग से क्यों गायब हो गयीं। मैंने कहा,क्योंकि कश्मीर में लगभग पूर्ण सामान्य अवस्था और शांति जमीन पर वापस आ गई थी। मैंने जनरल को तनी हुई भृकुटी और माथे के लकीरों के साथ उनके जासूसी कार्यकाल वाली तीखी मुद्रा को देखा,और उन्होंने कहा: “जमीन पर वह स्थिति किसी भी समय बदल सकती है।” यह हूबहू उस समय की बात है जब पाकिस्तानियों ने कारगिल में अपनी पहली घुसपैठ शुरू की थी। छः महीने बाद, आज से ठीक 19 वर्ष पहले दोनों सेनाएं वहां लड़ रही थीं। दुर्रानी पांच साल से सेवानिवृत्त थे, लेकिन भूतपूर्व आईएसआई बॉस, आप हमेशा ही निगाहों में रहेंगे।

Read in English: The barely told stories of Indian and Pakistani spies making peace while waging war

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