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कोरोना महामारी में लोकतंत्र को कोसने वाले ध्यान रखें, तानाशाह के लिए भी तानाशाही अच्छी नहीं

जिंदगी केवल एक बार किसी महामारी के दौरान बच निकलने के बारे में ही नहीं है. इसके मायने उससे भी अधिक हैं. ये कला, साहित्य, सिनेमा और सबसे महत्वपूर्ण हर तबके के लोगों से जुड़ने के बारे में भी है.

मजदूर को डांटता हुआ पुलिस कर्मी, फाइल फोटो । वीडियो का स्नैपशॉट

कोरोना महामारी ना सिर्फ अर्थव्यवस्था के लिए घातक साबित हो रहा है बल्कि ये लोकतंत्र की व्यवस्था के साथ हमारे रिश्ते को भी प्रभावित कर रही है. पिछले दिनों से हमने प्रवासी मज़दूरों के पलायन से लेकर तबलीगी जमात के मामलों में लोकतंत्र कोसा है. इसी बीच हमने लॉकडाउन के दौरान अनुशासन बनाए रखने के लिए तानाशाही के बारे में भी कल्पना करनी शुरू कर दी थी.

जब दिसंबर 2019 और शुरुआती 2020 में सोशल मीडिया पर कोरोनावायरस से जुड़ी खबरें आनी शुरू हुईं तो लग रहा था कि दुनिया के लोकतांत्रिक देश जल्द ही इसके लिए कोई समाधान निकाल लेंगे. भारत में भी, नरेंद्र मोदी सरकार से उम्मीद थी कि उनके सभी विभाग मिलकर इस लड़ाई से लड़ेंगे जैसा कि अतीत में हमने आतंकी हमलों और युद्धों के दौरान देखा है.

लेकिन मार्च का महीना आते आते हमारा विश्वास डगमगाने लगा. इटली, यूके, स्पेन, फ्रांस और जर्मनी जैसे विकसित देशों में स्थिति बद से बदतर होने लगी. इकॉनॉमी के मामले में दुनिया की सबसे बड़ी डेमोक्रेसी यूएस के पैरों तले जमीन खिसकने लगी. यहां के प्रेसीडेंट डोनाल्ड ट्रंप एक के बाद एक तर्कहीन बयान देते रहे. हालांकि उनकी समझदारी एकबारगी तब दिखी जब उन्होंने भारत से हाइड्रॉक्सीक्लोक्वीन के लिए आग्रह किया. उसके बाद एक बात स्पष्ट नजर आ रही थी कि इस महामारी के खिलाफ एकजुट होकर लोकतांत्रिक तरीके लड़ाई करना हॉलीवुड फिल्मों में ही संभव है. वास्तव में इस तरह की लड़ाई में कई तरह की गड़बड़ थी.

तानाशाही की तरफ झुकाव

सोशल मीडिया पर कोरोनावायरस की चपेट में आने वाले करोड़ों लोगों और लगातार हो रही मौतों के आंकड़ों की एक बाढ़ सी आ गई. इसके बाद लोगों ने तानाशाही शासन के लिए चीयर करना शुरू कर दिया. लोकतंत्र लोगों को बहुत ज्यादा आजादी प्रदान करता है. इसलिए भारत के लोगों का सख्त नियमों और स्कूल में दिए जाने वाले दंड के लिए एक सीक्रेट प्रेम भी उभरकर सामने आने लगा. कइयों ने यहां तक कहा कि लोकतंत्र कोरोना से जारी लड़ाई में आड़े आ रहा है.

अब नहीं रहे ऋषि कपूर ने कहा था कि अब वक्त आ गया है कि इमर्जेंसी की घोषणा कर लोगों को उनके घरों में रखा जाए और लॉकडाउन का पालन कराया जाए. डॉक्टरों और नर्सों पर हो रहे लगातार हमले भी ऐसे दिखाए जाने लगे कि ये भारत के लोकतांत्रिक होने का ही नतीजा है. पंजाब पुलिस के एक जवान का हाथ काट दिया गया. सत्ताधारी पार्टी के पक्ष में खड़े टीवी चैनल और सोशल मीडिया के नफरती लोगों ने एक अभी तक चर्चा में नहीं आए तबलीगी जमात को कोरोनावायरस के सबसे बड़े वाहक के तौर पर विलेन की तरह दिखाना शुरू कर दिया. ये सारे घटनाक्रम इस तरह प्रोजेक्ट किए गए कि एक लोकतंत्र में ही इस तरह की घटनाएं हो रही हैं और लोकतंत्र का नेचर ही ऐसा है कि वो आगे ऐसी घटनाएं होने देगा.

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सोशल मीडिया पर बहुत से लोग जो चीन के सख्त रवैये को नापसंद करते थे वो भी निरंकुश तरीके से लगाए गए लॉकडाउन की तारीफे करने लगे. लोकतांत्रिक ढांचे ने नुक्स निकालने वाले कई मिडिल एज अंकलस भी लिख रहे थे कि डेमोक्रेसी, फ्रीडम और ह्यूमन राइट्स की बातें शांति के समय में ही अच्छी लगती हैं. उन्होंने कहा कि देखिए चीन आखिरकार कोरोनोवायरस को फैलने से रोक पाया और अपने ‘नेशनल कैरेक्टर‘ को दिखा पाया जबकि इटली जैसे यूरोपियन देशों ने संघर्ष ही किया.

घरों में बंद हुए बुजुर्गों ने इमरजेंसी के दिनों को याद करते हुए कहा कि उस वक्त दफ्तर और रेलगाड़ियां समय से चलने लगी थीं. भारत के लोगों ने ताली और थाली बजाकर अपनी एकता का प्रदर्शन किया है. आखिरकार एक व्यक्ति के आह्वान पर वो घरों के भीतर ही रहे. आखिर में वो टिप्पणी करते हैं, ‘ऐसी महामारियो से लड़ने के लिए एक कड़े अनुशासन की जरूरत पड़ती ही है.’

जब लोकतंत्र छूटने लगा

जैसे-जैसे कोरोनावायरस ने दुनिया के कोने-कोने में पांव पसारे, वैसे-वैसे लोगों का लोकतंत्र से प्रेम कम होता गया और ज्यादातर एक पावरफुल लीडर की चाहत रखने लगे जो लोगों को जबर्दस्ती घरों में रोकने की विलक्षण क्षमता रखता हो. एक नेता जो लोगों से इकॉनॉमी को पटरी पर लाने के लिए रोजाना 10-15 घंटे काम करा सके. और जब महामारी पर काबू पाया जाए तब हम ये कह सकें कि देखो हमने इस पावरफुल नेता के लिए कितनी मेहनत की कि आज हम एक दशक बाद वर्ल्ड पावर बनकर उभर सके.’

बॉलीवुड एक्ट्रेस कंगना रानौत की बहन रंगोली चंदेल ने तो 2024 के लोकसभा चुनाव पर पूरी तरह प्रतिबंध लगाने तक की मांग कर डाली कि पीएम मोदी ही बिना चुनाव के प्रधानमंत्री क्यों नहीं रह सकते. कई और लोगों ने भी ऐसी बातें लिखीं. मगर उन गरीब प्रवासी मजदूरो की परवाह क्यों नहीं की गई जो सिर्फ अपने लोकतांत्रिक अधिकारों का प्रयोग करके हजारों किलोमीटर दूर अपने घरों को लौट जाना चाहते थे. वो इसके लिए भूखे प्यासे चलने को भी तैयार थे. लेकिन जहां थे वही रुक भी सकते थे. क्या चीन में वो लॉकडाउन के दौरान इस तरह की यात्रा कर सकते थे?

इस दौरान हमने एक ऐप जिसका नाम आरोग्य सेतु है, के बारे में भी जाना. ये ऐप हमारे बारे में जानकारी लेना चाहती है ताकि कोरोनावायरस के केसों को ट्रेस किया जा सके. हां ये बात भी गौर करने लायक है कि हमारे जानकारी इकट्ठा करने वाले डाटा की कोई लिमिट नहीं है. मोदी सरकार ने इससे जुड़ी कई सिक्योरिटी दिक्कतों को ठीक कर दिया है और अब इसे रेड जोन में रह रहे लोगों के लिए डाउनलोड करना भी अनिवार्य कर दिया गया है.

ये एक वेक अप कॉल का समय है. हम चाहे दुनिया के किसी भी हिस्से में हों और किसी भी स्थिति में हों, अपने लोकतांत्रिक अधिकारों को खत्म नहीं होने दे सकते. जिंदगी केवल एक बार किसी महामारी के दौरान बच निकलने के बारे में ही नहीं है. इसके मायने उससे भी अधिक हैं. ये कला, साहित्य, सिनेमा और सबसे महत्वपूर्ण हर तबके के लोगों से जुड़ने के बारे में है. लोगों के साथ मिलकर हंसने, रोने और जीवन के संघर्ष करने के बारे में है. इसलिए उनके और हमारे लिए, सभी के लिए लोकतंत्र जरूरी है. तानाशाही लोगों के जीवन के उन कमजोर क्षणों के बारे में है जब वो अपने लोकतांत्रिक अधिकारों की जिम्मेदारी नहीं ले सकते. इसलिए तानाशाही किसी के लिए भी ठीक नहीं है. खुद तानाशाहों के लिए भी नहीं. और हां, कोरोनावायरस की एक दूसरी लहर चीन में वापस आ गई है.

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