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रामनवमी हिंसा के केंद्र में क्या है? भारतीयों के बीच मौजूद ‘मुस्लिम क्षेत्र’ वाली सोच खत्म करनी होगी

रामनवमी दंगों के ऐतिहासिक पैटर्न से इस बात का पता चलता है कि अधिकारियों ने हमेशा जुलूस को मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों से गुजरने की अनुमति देने से इनकार किया है.

30 मार्च 2023 को दिल्ली के जहांगीरपुरी में रामनवमी का जमावड़ा | फोटो: देबदत्ता चक्रवर्ती | दिप्रिंट

राम नवमी, जो हिंदुओं के भगवान राम के जन्मोत्सव के रूप में मनाया जाता है, आमतौर पर अकसर उत्साही भक्तों द्वारा प्रार्थना, उपवास और भव्य जुलूस के रूप में मनाया जाता है. हालांकि, बीते कुछ वर्षों में दंगों और झड़पों की घटनाओं ने इस खुशी के उत्सव को नुकसान पहुंचाया है. इस साल रामनवमी के जुलूस में बिहार, पश्चिम बंगाल, गुजरात, झारखंड और महाराष्ट्र में हिंसा देखी गई, जबकि ओडिशा में हनुमान जयंती समारोह के दौरान हिंसा की सूचना मिली. तो आखिर इस समस्या के मूल में क्या है? कुछ मोहल्लों को ‘मुस्लिम क्षेत्र’ कहने की भारतीयों की आदत है.

चूंकि इन जुलूसों पर साम्प्रदायिक हिंसा का खतरा मंडरा रहा है, इसलिए हमें सभी दृष्टिकोणों पर विचार करते हुए एक ईमानदार और व्यापक तरीके से समस्या का विश्लेषण और समाधान करना चाहिए.

भारत में साम्प्रदायिक हिंसा का इतिहास

हमें यह निर्धारित करने के लिए मौजूद आंकड़ों की जांच करने की आवश्यकता है कि क्या रामनवमी के दौरान हुई हिंसा हाल की घटना है. जबकि इस विषय पर अकादमिक शोध भी सीमित है. इस विषय पर विद्वान आशुतोष वार्ष्णेय और स्टीवन विल्किंसन 1950 से लेकर 1995 तक भारत में सांप्रदायिक दंगों का एक व्यापक डेटाबेस प्रदान करते हैं. इंडियन एक्सप्रेस द्वारा इस डेटासेट के विश्लेषण के मुताबिक, इस दौरान हुए 1,192 दंगों में से केवल नौ रामनवमी से जुड़े हुए थे. लगभग 0.01 प्रतिशत से भी कम. ये नौ उथल-पुथल झारखंड, महाराष्ट्र, ओडिशा, गुजरात और उत्तर प्रदेश में दर्ज किए गए थे. झारखंड में रामनवमी के अवसर पर हिंसा की पहली बड़ी घटनाओं में से एक 1979 में हुई थी जिसमें जमशेदपुर में एक संघर्ष में 116 लोगों की जान चली गई थी. इसलिए, हम यह नहीं कह सकते कि ये झड़पें हाल की घटना हैं.

भारत में रामनवमी दंगों के पैटर्न से पता चलता है कि अधिकारियों ने अक्सर जुलूस को मुस्लिम-बहुल क्षेत्रों से गुजरने की अनुमति देने से इनकार कर दिया है. यह 1978 में जमशेदपुर में स्पष्ट था, जहां राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) ने डिमना बस्ती के आदिवासी इलाके से रामनवमी जुलूस की योजना बनाई थी. हालांकि, जुलूस का रास्ता मुस्लिम बहुल क्षेत्र सबीरनगर से होकर गुज़रता, जिसके कारण अधिकारियों ने रैली की अनुमति देने से इनकार कर दिया. आरएसएस ने सबीरनगर से न गुजरने के प्रशासन के सुझाव को नहीं माना और एक साल तक अनुमति के लिए अपना अभियान जारी रखा. अगले वर्ष अनुमति मिलने के बाद रैली सबीरनगर इलाके से गुजरी और हिंदुओं और मुसलमानों के बीच झड़पें हुईं, जिसके परिणामस्वरूप 116 लोग मारे गए. इस साल दिल्ली शहर में 52 रामनवमी जुलूस देखे गए, जिनमें से एक जुलूस 30 मार्च को हिंदू समूहों द्वारा पुलिस की अनुमति से इनकार के बावजूद निकाला गया था.


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मुस्लिम इलाके बंद क्यों हैं?

आरएसएस और बहुमत समुदाय वाले वर्ग का यह तर्क होता है कि हिंदुओं को अपने ही देश में जुलूस निकालने की स्वतंत्रता से वंचित किया जाता है. लेकिन दूसरों का तर्क है कि इन धार्मिक जुलूसों को मुस्लिम बहुल क्षेत्रों से गुजरने की अनुमति देने से मुस्लिम समुदाय की सुरक्षा को खतरा होगा और असुरक्षा और भय पैदा होगा. उनका तर्क है कि एक विशेष इलाके या पड़ोस को ‘मुस्लिम क्षेत्र’ के रूप में लेबल करना सांप्रदायिक विभाजन को आगे बढ़ाता है और हिंदू बनाम मुसलमानों की धारणा को मजबूत करता है.

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हालांकि समस्या की जड़ आदिवासीवाद में निहित प्रतीत होती है. आरएसएस द्वारा भारत को ‘हिंदुओं की भूमि’ कहने की व्याख्या बहुसंख्यक वर्चस्व को बढ़ावा देने के रूप में की जा सकती है, यह सुझाव देते हुए कि देश केवल हिंदुओं का है. लेकिन मुस्लिम आबादी वाले क्षेत्रों को ‘मुस्लिम क्षेत्रों’ के रूप में संदर्भित करना और हिंदुओं से वहां जुलूस न निकालने की अपेक्षा करना भी समस्या को जोड़ता है. मुहर्रम के दौरान हर साल मुसलमान ताजिया का जुलूस निकालते हैं, जो कई इलाकों से शांतिपूर्ण तरीके से गुजरता है.

फिर सवाल उठता है कि क्यों कुछ क्षेत्रों को हिंदू उत्सवों के लिए सीमा से बाहर माना जाता है जबकि मुसलमान इस्लाम को सार्वजनिक रूप से मनाते हैं, चाहे वह नमाज अदा कर रहा हो या धार्मिक जुलूस निकाल रहा हो.

इस तरह की आवर्ती हिंसा को रोकने के लिए स्टेकहोल्डर्स को मिलकर काम करना चाहिए. इसके लिए सरकार, नागरिक समाज संगठनों, धार्मिक नेताओं और आम नागरिकों द्वारा बहुआयामी दृष्टिकोण अपनाने की आवश्यकता है. केंद्र को कानून और व्यवस्था बनाए रखने के लिए कदम उठाने चाहिए और यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हिंसा भड़काने के लिए जिम्मेदार लोगों को न्याय के कटघरे में लाया जाए. अभद्र भाषा और हिंसा के लिए उकसाने के सख्त कानूनी परिणाम होने चाहिए. सरकार को संभावित रूप से अस्थिर क्षेत्रों में पुलिस की उपस्थिति भी बढ़ानी चाहिए और अंतर्निहित शिकायतों को दूर करने के लिए सामाजिक आर्थिक स्थितियों में सुधार करना चाहिए जिसके कारण हिंसा हो सकती है.

साथ ही, धार्मिक जुलूसों के दौरान होने वाली हिंसा को रोकने में नागरिकों की महत्वपूर्ण भूमिका होती है. उन्हें ऐसी गतिविधियों में शामिल होने से बचना चाहिए जो गड़बड़ी पैदा कर सकती हैं और साथ ही अधिकारियों को किसी भी संदिग्ध गतिविधियों की सूचना देनी चाहिए. उन्हें विभिन्न समुदायों के लोगों के साथ बातचीत में शामिल होने और आपसी सम्मान और समझ की संस्कृति को बढ़ावा देने के लिए भी तैयार रहना चाहिए. एकता और भाईचारे की भावना से मनाए जाने वाले रामनवमी जैसे त्योहारों के दौरान बार-बार होने वाली गड़बड़ी से सभी वर्ग के लोगों को चिंतित होना चाहिए.

(आमना बेगम अंसारी एक स्तंभकार और टीवी समाचार पैनलिस्ट हैं. वह ‘इंडिया दिस वीक बाय आमना एंड खालिद’ नामक एक साप्ताहिक यूट्यूब शो चलाती हैं. उनका ट्विटर हैंडल @Amana_Ansari है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(संपादन: ऋषभ राज)

(इस लेख़ को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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