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अखिलेश की ‘भैंस’ यानी जन्म, कर्म और राजनीति का कॉकटेल

खासकर दलित और पिछड़ी जातियों के नेताओं को अक्सर जातिसूचक अपमानजनक संबोधन झेलने पड़ते हैं और जाति कर्म के आधार पर उनका मजाक उड़ाया जाता है. क्या है इसकी समाजशास्त्रीय व्याख्या?

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अखिलेश यादव की फाइल फोटो | फेसबुक

उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ योगी ने एक भाषण में कहा कि ‘संविधान नहीं होता तो अखिलेश यादव सैफई के किसी जमींदार के घर की भैंस चरा रहे होते.’

कुछ समय पहले केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन के बारे में केरल में भाजपा के एक मुखपत्र में कार्टून छपा कि विजयन को राजनीति छोड़ कर अपना पुश्तैनी पेशा यानी ताड़ी उतारना शुरू कर देना चाहिए!

इससे पहले अन्ना आंदोलन के दौरान एक मंचीय कवि और कथित राजनीतिक ने कहा था कि ‘जिन्हें भैंस चराना चाहिए था, वे राज चलाने लगे हैं.’ जाहिर है, निशाने पर लालू प्रसाद थे!

दिवंगत कर्पूरी ठाकुर जब बिहार के मुख्यमंत्री थे और उन्होंने बिहार में ओबीसी के लिए आरक्षण लागू किया था तब सवर्णों ने उनके लिए नारा प्रचारित किया था- ‘कर कर्पूरी कर पूरा, गद्दी छोड़ धर उस्तरा’…

मायावती के मुख्यमंत्री बन जाने के बाद भी उनकी जाति को लेकर क्या टिप्पणियां की गई थीं, यह छिपा नहीं रहा!

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इस तरह के जहरीले बयानों की एक लंबी सूची बन सकती है. इसके अलावा कि आज भी रोजमर्रा की जिंदगी में आम दलित-वंचित तबकों के लोगों को इसी तरह के अपमानजनक और कमतर करने वाली बातें अलग-अलग शक्ल में सुनने को मिलती हैं.

जिस दौर में भारत और इसके सत्ताधारी तबके देश की ‘आसमानी कामयाबियों’ का हवाला पेश कर रहे हैं, उसी दौर में दलित-पिछड़ी जातियों की पृष्ठभूमि से आने वाले लोकप्रिय नेताओं के लिए इस तरह की बातें अगर आम हैं तो यह समझना मुश्किल नहीं है कि आज भी सत्ताधारी सवर्ण जातियों के कई लोगों के मन में किस तरह की सामंती ग्रंथियां गहरे पैठ की हुई हैं.

आखिर दलित-पिछड़ी जातियों के किसी व्यक्ति के सत्ता में आ जाने के बाद उन्हें अपमानित करने या कमतर साबित करने के लिए उनकी जाति और उनके जातिगत पेशे का ही हवाला क्यों दिया जाता है! क्या इसके उलट कभी किसी ब्राह्मण नेता या मुख्यमंत्री को किसी ने कहा कभी कि ‘जिन्हें भिक्षा मांगना चाहिए था… जिन्हें पूजा-पाठ कराना चाहिए था, वे राज चलाने लगे हैं’?

शायद ऐसा किसी ने नहीं कहा हो! नहीं कहने की वजह भी है कि इस देश में सामाजिक हो या राजनीतिक या फिर आर्थिक या धार्मिक सत्ता, उस पर सवर्णों या ब्राह्मणों का स्वाभाविक अधिकार माना जाता है. इसलिए विधायक, सांसद, मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री होने को इन जातियों के लिए एक सहज राजनीतिक आचरण के रूप में देखा जाता है. सवाल है कि जब दलित-पिछड़ों के जीवन को उनके जातिगत पेशों से जोड़ कर पेश किया जाता है और अलग-अलग शक्लों में उन्हें हिदायत के लहजे में अपने जातिगत पेशों के दायरे में रहने को कहा जाता है तो उसके पीछे मंशा और मकसद क्या होता है?


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सच यह है कि इस समाज में जाति और उनके साथ पेशे या काम तक को इस कदर श्रेणीबद्ध कर दिया गया है कि काम को भी उच्च या निम्न दर्जे में बांट कर देखा जाता है. काम के प्रति नजरिये का यह विभाजन केवल बाहरी नहीं होता, बल्कि इसका मनोवैज्ञानिक असर काफी गहरा होता है. एक ऐसा काम, जो उपयोगिता के लिहाज से समूचे समाज के लिए बेहद अहम होता है, उस काम को करने वाले लोगों को कमतर और हेय नजर से देखा जाता है.

लेकिन सवाल है कि समाज में मौजूद यह ‘नजर’ किसने तय की है?

आखिर मांग कर गुजारा करने वाले दो समूहों के लोगों के बारे समाज का नजरिया दो क्यों होता है? दिनभर मेहनत करके अपनी मजदूरी मांगने वाले के प्रति क्या लोग वही भाव रखते हैं, जो आधा घंटा कोई कथा पढ़ कर ‘दक्षिणा’ मांगने वाले के प्रति होता है? फटा-पुराना ही सही, शरीर पर पूरा कपड़ा पहने एक गरीब व्यक्ति जब किसी व्यक्ति से भीख के रूप में कुछ मांगता है तो उस पर दया करके कुछ देने के साथ ही उसके प्रति असम्मान की भावना और इसके बरक्स कंधे पर जनेऊ लटकाए एक पुरोहित जब किसी से कुछ मांगता है तो उसके प्रति सम्मान और उलटे उससे कृपा या दयाभाव प्राप्त करने की भावना का स्रोत क्या है? जाति और कर्म के विभाजन के बारे में बाबा साहेब और महात्मा फुले ने अपने साहित्य में विस्तार से लिखा है.

इसी तरह हिंदू समाज में अलग-अलग जातियों और पारंपरिक रूप से उनके पेशों के प्रति ‘बेहतर’ या ‘कमतर’ दृष्टि निर्धारित है! लेकिन यह ध्यान रखने की जरूरत है कि 21वीं सदी और इस बदलते दौर में व्यवसाय और उसमें मुनाफे को ध्यान में रख कर अगर किसी उच्च कही जाने वाली जाति के व्यक्ति ने किसी निम्न कही जाने वाली जाति के पारंपरिक पेशे को अपना कारोबार बनाया, तो उस उच्च जाति के व्यक्ति के प्रति समाज के नजरिये में कोई फर्क नहीं पड़ता.

यानी वह काम के आधार पर किसी उच्च जाति के बारे में अपनी ‘दृष्टि’ को संचालित नहीं करता. मसलन, शहरों-महानगरों में बाल काटने, दाढ़ी साफ करने यानी हेयर पार्लर के महंगी दुकानों शायद ही किसी नाई जाति से आने वाले व्यक्ति हो, लेकिन सामाजिक वर्णक्रम में नाई जाति की जो ‘निम्न’ हैसियत है, वह यही काम ‘उच्च और आभिजात्य स्तर पर’ करने वाले किसी ब्राह्मण या राजपूत या भूमिहार जाति के व्यक्ति की नहीं मान ली जाएगी. चमड़े के जूते या अन्य सामान, फूलों के कारोबार और यहां तक कि बीफ के निर्यात जैसे व्यवसाय में लगे हुए किसी उच्च जाति के व्यक्ति के प्रति सामाजिक नजरिया ‘निम्न’ नहीं होता.

साफ है कि यह ‘दृष्टि’ या भाव काम के प्रति नहीं है, बल्कि इसलिए है कि उससे कोई खास जाति जुड़ी हुई है. फिर वह काम भी हेय मान लिया गया!

वर्णक्रम और जाति की हाइरार्की के मुताबिक संबोधन की भाषा और उसमें निहित अपमान या कमतर करने का भाव दरअसल वह मनोवैज्ञानिक हथियार है, जिससे किसी व्यक्ति या समूह के मनोबल को कमजोर बनाए रखा जाता है. तो ऐसा लगता है कि अपनी समूची परिकल्पना में एक बेहद पिछड़ी हुई, असभ्य और अमानवीय व्यवस्था होने के बावजूद ब्राह्मणवाद अपने व्यवहार में मानो एक बारीक मनोवैज्ञानिक सूत्र के सहारे काम करता है.


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पारलौकिक भ्रम और आस्था के जाल में फंसा कर एक समूचे समाज को आत्मविश्वास से हीन और अंधविश्वास में डुबोए रखना और फिर उस अंधविश्वास के उपचार के लिए कुछ चुनी हुई जातियों और लोगों को सामने रख देना. इसके समांतर सामाजिक व्यवहार के लिए संबोधन की भाषा रच देना.

लेकिन अब इस रवायत के बरक्स चुनौती खड़ी हो रही है, ऐसी भाषा पकड़ी जाती है, उस पर बात होती है, बोलने वाले को कठघरे में खड़ा किया जाता है और किसी तरह का अपमान बर्दाश्त नहीं करने की बात साफ लहजे में कही जाती है. यह स्थिति ब्राह्मणवाद और उसके पैरोकारों के लिए चिंता पैदा करने वाली है. इसलिए मौजूदा दौर में देखा जा सकता है कि सामाजिक, राजनीतिक और नीतिगत स्तर पर हर तरफ से ऐसे फैसले किए जा रहे हैं, जिनके जरिए दलित-वंचित जातियों-तबकों के बीच तेजी से पसरती चेतना की लड़ाई को बाधित किया जा सके.

लेकिन समाज में आगे की ओर बढ़ने वाले इस सफर में वापसी का रास्ता नहीं है.

(लेखक वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक हैं और यह इनके निजी विचार हैं)

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