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ओलम्पिक साइक्लिस्ट से भारत क्या सीख सकता है कि ग्रोथ के लिए एक लीड सेक्टर की जरूरत होगी

दशकों से ऐसा कोई सेक्टर नहीं उभरा है जो भारत की आर्थिक वृद्धि की अगुआई करे. लेकिन उसे अगर तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनना है तो असली चुनौती होगी बहुआयामी गरीबी को मिटाने की

चित्रणः मनीषा यादव । दिप्रिंट

साइकिल चालक जब समूह के रूप में लंबी दूरी की रेस में भाग लेते हैं तब प्रायः वे उड़ते हुए हंसों की तरह एक आकार जैसा बनाकर दौड़ लगाते हैं, जिसे ‘पेलोटोन’ आकार कहा जाता है. अगुआ साइकिल चालक इस तरह चलता है कि पीछे वालों को हवा का कम दबाव महसूस होता है. कुछ-कुछ देर बाद दूसरे साइकिल चालक इसी तरह बारी-बारी से अगुआई करते हैं. दीर्घकालिक आर्थिक वृद्धि भी इसी ‘पेलोटोन’ आकार जैसी होती है, इस तरह कि इसकी गति तय करने वाला अगुआ सेक्टर बदलता रहता है और इस समूह के हर सदस्य को गति बनाए रखने का मौका देता है. भारत में पिछले तीन-चार दशकों से ऐसा ही चल रहा है.

आर्थिक वृद्धि की गति 1970 के संकटग्रस्त दशक में 2.5 फीसदी की थी, जो 1980 के दशक में 5.5 फीसदी हो गई और एक नया मध्यवर्ग उभरा. इसने तत्काल उपभोग से लेकर लंबे समय तक उपयोगी रहने वाले कई तरह के उपभोक्ता सामान की मांग पैदा की. इसका लाभ औरों के साथ ऑटोमोबाइल उद्योग को भी मिला क्योंकि छोटी कारों (मसलन मारुति) और दोपहिया वाहनों की मांग का विस्फोट हुआ.

अगले चरण में, 1990 के दशक में इन्फोटेक की बहार आई और तकनीकी परिवर्तनों तथा भारत के सस्ते इंजीनियरों की बदौलत विदेश में भी कदम बढ़े. दूसरे बदलावों (मसलन पेटेंट की व्यवस्था) ने दवा उद्योग को अमेरिका में जेनरिक दवाओं के बाजार का लाभ लेने और तेज वृद्धि करने में मदद की.

इन तीनों सेक्टरों ने निर्यात में भारी उछाल ला दिया, जो आर्थिक वृद्धि का एक और ज़रिया बना. 1990 के दशक में निजी उपक्रमों को छूट मिली तो बैंकिंग/वित्त और विमानन जैसे सहायक सेक्टरों में वृद्धि हुई. इसके परिणामस्वरूप आवास, कार खरीद और यात्राओं की मांग बढ़ी.

हाल के वर्षों में वृद्धि की रफ्तार घटी, जिसकी वजह यह थी कि अगुआ साइकिल चालक की भूमिका निभाने के लिए उस पैमाने का कोई सेक्टर नहीं उभरा.

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इस बीच, दवा सेक्टर खराब औद्योगिक प्रथाओं और नियमन में विफलता के कारण समय से पहले सुस्त पड़ गया. अब इन्फोटेक सेक्टर में उछाल सुस्त, प्रौढ़ चरण में पहुंच गया है. और नोटबंदी, कोविड जैसे झटकों के कारण घरेलू मांग में वृद्धि भी सपाट हो गई है. उदाहरण के लिए, दोपहिया वाहनों की बिक्री ठिठक गई है.

इस सबकी एक वजह यह हो सकती है कि भारत में आय के स्तर के लिहाज से उपभोक्ताओं पर कर्ज का बोझ बढ़ गया है. विमानन उद्योग में भारत में केवल एक ही समर्थ कंपनी है जो वृद्धि की खातिर निवेश कर सकती है.

इस बीच, व्यापारिक माल का निर्यात पिछले दशक में बुरा ही रहा है क्योंकि अर्थव्यवस्था वियतनाम और बांग्लादेश जैसे प्रतियोगियों के मुक़ाबले प्रतिस्पर्द्धी मैनुफैक्चरिंग आधार नहीं तैयार कर पाई.

इसलिए अब सवाल यह है कि भारत की आर्थिक वृद्धि के अगले चरण का नेतृत्व कौन सेक्टर करेगा? सरकार ने नाकामी के क्षेत्र मैनुफैक्चरिंग में साहसी दांव लगाया है.

पहले, ‘मेक इन इंडिया’ का जो दांव चला गया वह अपने लक्ष्य नहीं हासिल कर पाया. इसलिए अब इलेक्ट्रॉनिक्स सेक्टर पर विशेष जोर देते हुए निवेश तथा उत्पादन के लिए वित्तीय प्रोत्साहन की पेशकश की जा रही है. जबकि हम आयात पर निर्भरता घटाने की पहल के नतीजे का इंतजार करेंगे, भौतिक इन्फ्रास्ट्रक्चर में भारी निवेश करके वृद्धि के इंजिन को चालू रखा गया है. इसके कारण धातुओं और सीमेंट जैसे सहायक उद्योगों में निजी निवेश बढ़ा है.

इन्फ्रास्ट्रक्चर में भारी निवेश और मैनुफैक्चरिंग के लिए प्रोत्साहनों से सरकार की वित्तीय स्थिति पर दबाव बढ़ेगा. इससे भी अहम बात यह है कि अब जिन नये क्षेत्रों पर ज़ोर दिया जा रहा है वे पूंजीखोर हैं. इसका अर्थ यह हुआ कि उत्पादन में प्रति यूनिट वृद्धि के लिए आपको कहीं ज्यादा यूनिट में पूंजी निवेश करना पड़ेगा, और उत्पादन में जीतने यूनिट की वृद्धि होगी उस अनुपात में रोजगार नहीं बढ़ेंगे. इसके चलते उपभोग की गति में गिरावट का नतीजा संभवतः सुस्त आर्थिक वृद्धि के रूप में मिलेगा. लेकिन सुस्त होती वैश्विक अर्थव्यवस्था में भारत को अपने पूंजी भंडार में विदेशी निवेश जारी रखने के लिए 5.5-6 फीसदी की मामूली दर से ज्यादा तेजी से वृद्धि नहीं करना होगा.

इसलिए, प्रधानमंत्री जो ‘गारंटी’ दे रहे हैं उसकी बात करें तो भारत अगले पांच साल में इतनी वृद्धि करने की उम्मीद कर सकता है कि उसकी अर्थव्यवस्था स्थिर पड़े जापान और सुस्तचाल वाली जर्मनी की अर्थव्यवस्थाओं के आकार से बड़ी हो जाए. इस तरह, तीसरी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बनना एक उल्लेखनीय उपलब्धि होगी. इसके लिए बहुत ज्यादा पसीना नहीं बहाना पड़ेगा.

लेकिन वास्तव में महत्वपूर्ण सवाल यह है कि क्या भारत ‘बहुआयामी गरीबी’ से मुक्त हो पाएगा? यह एक सीधी-सी अवधारणा है जिसमें बेहद बुनियादी बातें— न्यूनतम आय, शिक्षा, और जीवन स्तर (पीने का पानी, सफाई, बिजली)— शामिल हैं. अगर हम असली चुनौती की बात करें तो वह यही है.

(बिज़नेस स्टैंडर्ड से स्पेशल अरेंजमेंट द्वारा)

(संपादनः शिव पाण्डेय)
(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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