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महाराष्ट्र की सीख: लोक पर तंत्र के पहरे में हमें शांतिपूर्वक मूर्ख बनाया जा रहा!

जम्मू कश्मीर व कर्नाटक के बाद महाराष्ट्र में मंचित किये जा रहे सत्ता के अपहरण या लोकतंत्र के चीरहरण के महानाटक के बाद इस तथ्य में किसी को भी संदेह नहीं रह जाना चाहिए कि हमारा ‘शांतिकामी’ निज़ाम उसे अभीष्ट शांति की स्थापना के लिए लोक लाज को भी उसकी औकात बता देने पर आमादा है.

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फोटो : दिप्रिंट

कोई छींकता तक नहीं/इस डर से/कि मगध की शांति/भंग न हो जाये, मगध को बनाये रखना है तो/मगध में शांति/रहनी ही चाहिए/मगध है, तो शांति है/कोई चीखता तक नहीं/ इस डर से/ कि मगध की व्यवस्था में/दखल न पड़ जाये/ मगध में व्यवस्था रहनी ही चाहिए/मगध में न रही, तो कहां रहेगी?….वैसे तो मगध निवासियों/कितना भी कतराओ/तुम बच नहीं सकते हस्तक्षेप से/जब कोई नहीं करता/तब नगर के बीच से गुजरता हुआ मुर्दा/यह प्रश्न कर हस्तक्षेप करता है/मनुष्य क्यों मरता है?

अपने समय के महत्वपूर्ण कवि श्रीकांत वर्मा ने ‘हस्तक्षेप’ शीर्षक यह कविता रची तो सोचा तक नहीं होगा कि उनकी कल्पना का यह मगध उनके संसार को अलविदा कहने के लम्बे अरसे बाद 21वीं सदी के दूसरे दशक में देश के ऐसे यथार्थ में बदल जायेगा, जिसमें नगर के बीच से गुज़रते हुए मुर्दे को भी यह प्रश्न पूछकर हस्तक्षेप करने की ‘इजाज़त’ नहीं दी जायेगी कि मनुष्य क्यों मरता है? इतना ही नहीं, ‘मगध में नहीं तो कहां रहेगी शांति?’ जैसा सवाल पूछने वाले शांति के ‘लोकतांत्रिक’ समर्थकों को उसकी रक्षा के लिए ‘अशांत’ लोक पर तंत्र या कि सेना का पहरा बिठाने और लोकतंत्र व संविधान के मूल्यों व प्रतिमानों को रौंदने से भी गुरेज नहीं होगा.

एक दिन गृहमंत्री आह्लादित होते हुए देश की संसद को बतायेंगे कि बूट-बन्दूकों और संगीनों के साये भर से जम्मू-कश्मीर इस तरह ‘काबू’ में आ गया है और इतनी तेज़ी से ‘सामान्य’ होने लगा है कि वहां एक भी गोली चलाने की ज़रूरत नहीं पड़ रही, यहां तक कि संविधान का अनुच्छेद 370 हटाकर उसका राज्य का दर्जा छीन लेने के बाद ‘पत्थरबाजों’ की अकड़ भी ढीली पड़ गई है, तो इन ‘शांतिकामियों’ की खुशी का पारावार नहीं रह जायेगा.


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वे वहां कुछ दुकानें व स्कूल खुलने, कर्फ्यू हटने और टेलीफोनों की लाइनें चालू हो जाने की ‘उपलब्धियों’ को सिर-आंखों पर लेकर यह पूछने वालों को लाखों लाख लानतें भेजने लगेंगे कि राज्य के तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों-फारुख व उमर अब्दुल्ला और महबूबा मुफ्ती-को कब तक नज़रबंद रखा जाएगा, इंटरनेट सेवाएं कब बहाल की जायेंगी और मीडिया स्वतंत्र होकर कब काम कर पायेगा? ‘शांतिकामियों’ में से कुछ तो यह कहने पर भी उतर आयेंगे कि राज्य में शांति है तो, लोकतंत्र गया तेल लेने, इन तीनों पूर्व मुख्यमंत्रियों को नज़रबन्द रखना ही बेहतर है.

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जम्मू कश्मीर व कर्नाटक के बाद महाराष्ट्र में मंचित किये जा रहे सत्ता के अपहरण या लोकतंत्र के चीरहरण के महानाटक के बाद इस तथ्य में किसी को भी संदेह नहीं रह जाना चाहिए कि हमारा ‘शांतिकामी’ निज़ाम उसे अभीष्ट शांति की स्थापना के लिए लोक लाज को भी उसकी औकात बता देने पर आमादा है. उसे इस बात से भी फर्क नहीं पड़ता कि लोकतंत्र के बारे में आम धारणा है कि वह लोकलाज से ही चलता है. इसीलिए एक पार्टी को सरकार बनाने का न्यौता देने के बाद अचानक राष्ट्रपति शासन लगवा देने और हालात अपने पक्ष में कर लेने के बाद अचानक उसके खात्मे के लिए प्रधानमंत्री के विशेषाधिकार तक का इस्तेमाल करने और बाजी पलटकर अलसुबह गुपचुप ढंग से नई सरकार को शपथ दिला देने जैसे सारे काम वह शांतिपूर्वक व चुपचाप कर लेता है. इसके लिए वह कितना श्रम करता हैं, इसे इस बात से समझा जा सकता है कि इस सिलसिले में दिल्ली और मुम्बई में उसकी अहर्निश गतिविधियों के आगे कोलकाता में बांग्लादेश के साथ चल रहा डे-नाइट क्रिकेट टेस्ट पानी भरने लग जाता है.

गौर कीजिए, अपने खिलाफ असहमति का एक भी सुर या कठघरे में खड़ा करने वाला एक भी असुविधाजनक सवाल बर्दाश्त न कर सकने वाले इस निज़ाम ने देशवासियों को ‘बनाने’ के लिए सुबह पौने 6 बजे का वक्त चुना तो इस पर प्रधानमंत्री व राष्ट्रपति से लेकर गृह मंत्रालय तक किस कदर एक राय हो गये? ऐसे जैसे वाकई, जैसा कि एक अंग्रेज़ी अखबार ने अपनी हेडलाइन में लिखा भी, हम जो ‘वी दि पीपुल’ हुआ करते थे, ‘वी द इडियट्स’ में बदल गये हैं और हमें ‘बनाना’ उतना ही आसान हो गया है, जितना दूसरे सवाल पूछने वालों को अकेला कर देशद्रोही या सेना के शौर्य का विरोधी ठहराना.

यह निजाम कश्मीर को ही छावनी नहीं बनाये हुए है. अभी थोड़े ही दिनों पहले अयोध्या विवाद का फैसला आने वाला था तो इसने अयोध्या को भी छावनी में बदल ही डाला था. देश की राजधानी दिल्ली में जेएनयू के कुछ हज़ार छात्रों से निपटने का भी उसे दिल्ली को छावनी में बदल देने के अलावा कोई और तरीका नहीं सूझा था. मामला शांति का हो तो वह किसी पर भरोसा नहीं करता. अपने लोगों पर भी नहीं. राज्यसभा के मार्शलों की जो सैनिकों जैसी वर्दी सभापति के हस्तक्षेप के बाद वापस ले ली गई है, उसके आलोक में देखें तो इस निज़ाम को ‘शांति’ की स्थापना के लिए सेना का दुरुपयोग तो सही लगता ही है, सेना का भरम भी सही लगता है.

देख लीजिए गौर से, इस ‘सही’ के चक्कर में, देश में सब-कुछ अपने आप ‘सही’ होता जा रहा है. हरियाणा में नई सरकार बनते ही करदाताओं के पैसे का सदुपयोग करते हुए वहां के मंत्रियों का आवास भत्ता दोगुना कर दिया गया और राज्य में या उसके बाहर कहीं भी शांति भंग नहीं हुई. इससे पहले उत्तर प्रदेश में कांवड़ियों पर हेलीकाप्टर से फूल बरसाये, कुंभ में सात सितारा शिविर गाड़े और अयोध्या में लाखों दीये जलाये गये तो भी नहीं. सड़कों, शहरों, जिलों या स्टेशनों का नाम बदलने में किये गये भारी खर्च को भी ‘करदाताओं के धन का सदुपयोग’ ही माना गया.

सत्तारूढ़ भाजपा ने टेरर फंडिंग के लिए जानी जाने वाली कम्पनी से चन्दा लिया और चुनावी बाॅन्डों से मालामाल होने में भी परहेज नहीं बरता तो भी उसका इकबाल इतना बुलन्द रहा कि कहीं अशांति का पत्ता तक नहीं खड़का. कोई उसे उसकी पुरानी नैतिकताएं, मूल्य, आदर्श और सिद्धांत नहीं याद दिला पाया.

अशांति तो तब शुरू हुई, जब पता पला कि जेएनयू में छात्रों की पढ़ाई पर जनता के धन की ‘बर्बादी’ की जा रही है. इस बर्बादी को रोका जाने लगा तो ‘मुफ्तखोर’ छात्रों के पेट में दर्द शुरू हो गया और वे अमीरी-गरीबी का भेद किये बिना सबको शिक्षा का हक मिलने जैसी बहकी-बहकी बातें करने लगे. ऐसे बहक गये कि अभी भी न देशद्रोह के आरोप से डर रहे हैं, न मुफ्तखोरी और अय्याशी के. यहां तक कि पुलिस की लाठी से भी नहीं.


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यह निजाम अभी भी परेशान है कि ये छात्र शिक्षा के अधिकार की बात कर रहे और अशांति भड़का रहे हैं. दूसरी ओर अनेक भाई गोरख पांडे का लिखा ‘समझदारों का गीत’ गा रहे हैं: हवा का रुख कैसा है, हम समझते हैं/हम उसे पीठ क्यों दे देते हैं, हम समझते हैं/हम समझते हैं खून का मतलब/पैसे की कीमत हम समझते हैं/क्या है पक्ष में, विपक्ष में क्या है, हम समझते हैं/हम इतना समझते हैं/कि समझने से डरते हैं और चुप रहते हैं/चुप्पी का मतलब भी हम समझते हैं/बोलते हैं तो सोच-समझ कर बोलते हैं हम/हम बोलने की आज़ादी का/मतलब समझते हैं/टुटपुंजिया नौकरी के लिए/आज़ादी बेचने का मतलब हम समझते हैं/मगर हम क्या कर सकते हैं/अगर बेरोज़गारी अन्याय से/तेज दर से बढ़ रही है/हम आज़ादी और बेरोज़गारी दोनों के/खतरे समझते हैं/हम खतरों से बाल-बाल बच जाते हैं, हम समझते हैं/हम क्यों बच जाते हैं, यह भी हम समझते हैं…यहां विरोध ही वाजिब कदम है/हम समझते हैं/हम कदम-कदम पर समझौते करते हैं/हम समझते हैं/हम समझौते के लिए तर्क गढ़ते हैं/हर तर्क गोल-मटोल भाषा में/पेश करते हैं, हम समझते हैं/हम इस गोल-मटोल भाषा का तर्क भी/समझते हैं/वैसे हम अपने को किसी से कम/नहीं समझते हैं/हर स्याह को सफेद और/सफेद को स्याह कर सकते हैं….

उनका यह गाना खत्म होने के बाद ही यह फैसला हो पायेगा कि फिलहाल देश में जो शांति स्थापित है, उसकी उम्र कितनी है और मरघट की शांति से उसके रिश्ते कैसे हैं? जीवंत समाजों के बारे में ‘दिनकर’ यों ही नहीं कह गये हैं: शान्ति खोलकर खड्ग क्रान्ति का जब वर्जन करती है, तभी जान लो, किसी समर का वह सर्जन करती है. शान्ति नहीं तब तक, जब तक सुख-भाग न नर का सम हो, नहीं किसी को बहुत अधिक हो, नहीं किसी को कम हो.

लेखक फैज़ाबाद के स्थानीय पत्रकार है. लेख उनका निजी विचार है.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)

1 टिप्पणी

  1. Tujhe in teen dalo ka pap nhi dikhai de rha, Sena ki aukat h ki Bina bjp k 4 bhi seat Jeet le, ab tu khud hi soch ki Kon Lok k liye khatra h,

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