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वसुंधरा राजे ने एक बार फिर भाजपा को सबक सिखाया, और इस काम में गहलोत-पायलट मददगार बने

सचिन पायलट का विद्रोह वसुंधरा राजे और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत दोनों के लिए ही वरदान साबित हुआ. दोनों ने ही नई दिल्ली स्थित केंद्रीय नेतृत्व को अपनी हैसियत का एहसास कराया.

फाइल फोटो: वसुंधरा राजे/ पकंज नागिया/दिप्रिंट

आप इस पर असहमत हो सकते हैं कि राजस्थान कांग्रेस में सचिन पायलट और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बीच लड़ाई में वास्तव में किसकी जीत हुई. लेकिन इस पूरे प्रकरण में एक निर्विवाद और अप्रत्याशित विजेता हैं, जिसे हर किसी ने खारिज कर दिया था – भाजपा की वसुंधरा राजे. उन्होंने लंबी शीतनिद्रा से सही समय पर बाहर आते हुए, अपनी विशिष्ट शैली में, अपने राजनीतिक प्रभाव को पुनर्स्थापित किया है.

राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री और भाजपा की वरिष्ठ नेता वसुंधरा राजे ने एक बार फिर साबित किया है कि भले ही आप उन्हें पसंद करें या उनसे नफरत करें, लेकिन आप उनको नजरअंदाज नहीं कर सकते. उनकी कार्यशैली या उनके कदाचित अहंकार पर शायद कइयों को आपत्ति हो, लेकिन कोई उनके करिश्मा, उऩकी अपील और राज्य में उनकी हैसियत पर सवाल नहीं खड़ा कर सकता.

साल भर से अधिक समय से राजे समर्थक दिल्ली स्थित भाजपा के केंद्रीय नेतृत्व द्वारा उपेक्षित महसूस कर रहे थे. लेकिन कांग्रेस की अशोक गहलोत सरकार को करीब एक महीने के लिए संकट में डाले रखने वाला हालिया सचिन पायलट प्रकरण उनके लिए एक वरदान साबित हुआ. इस प्रकरण ने अशोक गहलोत और राजे दोनों को ही राज्य में और साथ ही राष्ट्रीय स्तर पर अपने नेतृत्व कौशल को साबित करने का अवसर प्रदान किया.


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राजे की ताकत

जब मुख्यमंत्री अशोक गहलोत भाजपा पर अपनी सरकार को अस्थिर करने की कोशिश करने का आरोप लगा रहे थे, तो राजे चुप रहीं और उन्होंने कोई बयान जारी नहीं किया. बजाय इसके, वह जन्मदिन की बधाइयां और छात्रों को शुभकामनाएं देने वाले ट्वीट जारी करने में व्यस्त थीं, और कांग्रेस संकट पर उन्होंने बस एक बार ट्वीट किया. उन्होंने राज्य भाजपा अध्यक्ष सतीश पूनिया और उनके सहयोगियों को सियासी संकट से निपटने दिया. इस राजनीतिक परिदृश्य में उनका प्रवेश कांग्रेस के संकट की समाप्ति के मात्र तीन दिन पूर्व हुआ.

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कई भाजपा नेताओं ने मुझे बताया कि अपने नई दिल्ली प्रवास के दौरान राजे ने पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व को स्पष्ट कर दिया कि उऩकी सहमति के बिना राजस्थान में कुछ नहीं हो सकता. उन्होंने पार्टी की राज्य कार्यकारिणी के गठन का मुद्दा भी उठाया जिसमें अधिकांशत: उनके विरोधियों को शामिल किया गया है. उन्होंने उन्हें उचित महत्व नहीं दिए जाने की बात केंद्रीय नेतृत्व के समक्ष दृढ़ता से रखी.

जयपुर के राजनीतिक गलियारे में होने वाली चर्चाओं की मानें तो राजे ने भाजपा नेतृत्व को स्पष्ट कर दिया कि पायलट प्रकरण में उनकी राय नहीं ली गई और उन्हें भरोसे में नहीं लिया गया, और वह कांग्रेस के युवा नेता को भाजपा में लिए जाने पर सहमत नहीं थीं. बताया जाता है कि इस समय राजे को विधानसभा में भाजपा के 72 विधायकों में से आधे से अधिक का समर्थन प्राप्त है.

इसीलिए भाजपा राजस्थान में वो काम नहीं कर पाई जोकि उसने मध्यप्रदेश और कर्नाटक में कर दिखाया था.


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अपने गढ़ में

पूरी स्थिति को आसानी से समझा जा सकता है. वसुंधरा राजे भला एक और प्रतिद्वंद्वी क्यों चाहेंगी – वो भी दूसरी प्रतिस्पर्धी पार्टी से? वह राजस्थान के मुख्यमंत्री पद से कुछ भी कम के लिए तैयार नहीं हैं; और जब वह अपनी पार्टी के ही किसी अन्य नेता को स्वीकार करने के लिए राज़ी नहीं हैं, तो कांग्रेस के किसी नेता का तो सवाल ही नहीं उठता.

अब जबकि सचिन पायलट और गहलोत की लड़ाई खत्म हो गई है, राजे ने नई दिल्ली में बैठे शीर्ष पार्टी नेताओं को अपनी राजनीतिक ताकत का एहसास करा दिया है. वह ये साबित करने में कामयाब रही हैं कि राजस्थान में अभी भी उऩका ही प्रभाव है.

राजनीतिक विश्लेषक भी मानते हैं कि कांग्रेस के संकट के दौरान यदि भाजपा की कमान राजे के हाथों में होती, तो परिणाम कुछ और ही होता.

कभी-कभार पार्टी के ज़मीनी कार्यकर्ताओं और कतिपय पूर्व मंत्रिमंडलीय सहयोगियों से मुलाकात के अलावा राजे करीब दो वर्षों से चुप बैठी रही हैं. उनका ज़्यादातर समय धौलपुर स्थित अपने घर पर बीतता है. बॉलीवुड की गायिका कनिका कपूर के कोविड पॉजिटिव पाए जाने के बाद उन्हें कुछ दिनों के लिए लखनऊ में आइसोलेशन में रहना पड़ा था. क्योंकि वह कनिका की मौजूदगी वाले एक आयोजन में शामिल हुई थीं. राजे ने मई में राजस्थान के सभी विधायकों और सांसदों के साथ मुख्यमंत्री अशोक गहलोत की वीडियो कॉन्फ्रेंस बैठक में भी भाग लिया था.

लेकिन पिछले दिनों भाजपा ने उन्हें पूरी तरह दरकिनार कर रखा था. राजे के एक विश्वस्त सहयोगी युनूस ख़ान के जन्मदिन के मौके पर जयपुर में भाजपा कार्यालय के सामने लगे उनके पोस्टर को कुछ पार्टी कार्यकर्ताओं द्वारा फाड़ दिए जाने से पार्टी में गुटबाज़ी के बढ़े स्तर का अंदाजा लगाया जा सकता है. अंदरूनी राजनीतिक सूत्रों का कहना है कि राज्य भाजपा प्रमुख के चयन के मुद्दे पर भी राजे की राय नहीं ली गई – और पूनिया को अध्यक्ष बना दिया गया. उन्हें राजे गुट का हिस्सा नहीं माना जाता है, हालांकि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) से उनकी निकटता है.

ये नहीं भूला जाना चहिए कि राजे की कार्यशैली या शासन को लेकर लोगों की नाराज़गी और शिकायतें हो सकती हैं, लेकिन राज्य में उनके कद का दूसरा नेता नहीं है. जनता अब भी उनका सम्मान करती है, और अगर वह पार्टी गतिविधियों से दूर रहती हैं या उन्हें चुप बैठने पर विवश किया जाता है तो वैसी स्थिति में भाजपा को समस्याओं का सामना करना पड़ सकता है.

अहंकारी नेता

कांग्रेस के हालिया प्रकरण के बाद एक बात तो स्पष्ट हो चुकी है कि यदि भाजपा राजस्थान में अपनी स्थिति मज़बूत करना चाहती है तो राजे को अधिक अधिकार दिए जाने चाहिए. पार्टी में उत्तरोत्तर बढ़ती गुटबाज़ी और भीतरघात की स्थिति कांग्रेस से अलग नहीं है. राजे के पास व्यक्तिगत करिश्मा, जनसमर्थन और राजनीतिक कौशल है, और 2023 में निर्धारित विधानसभा चुनाव से पहले राज्य में पार्टी को मज़बूत करने के लिए वह सही विकल्प साबित होंगी.


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हालांकि उससे पहले, राजे को भी अपनी कार्यशैली को बदलना होगा जोकि भाजपा कार्यकर्ताओं के अनुसार 2013 से 2018 के उनके मुख्यमंत्री के कार्यकाल के दौरान निरंकुश प्रवृति की थी. कार्यकर्ता अक्सर शिकायत करते थे कि वह चाटुकारिता को बढ़ावा देती हैं. उन्हें अहंकारी माना जाने लगा क्योंकि वह जनता और पत्रकारों से दूर रह रही थीं. साथ ही, ये भी माना जा रहा था कि वह आम पार्टी कार्यकर्ताओं के लिए सुलभ नहीं हैं.

उम्मीद है कि राजे अपनी पूर्व की गलतियों को नहीं दोहराएंगी और भाजपा दोबारा राजस्थान में उन्हें दरकिनार करने की गलती नहीं करेगी.

(लेखक जयपुर स्थित वरिष्ठ पत्रकार हैं. उनका ट्विटर हैंडल @anilsharma45 है. ये उनके निजी विचार हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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