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भारत की दिक्कत ‘वैक्सीन मैत्री’ नहीं बल्कि कोविड के बढ़ते मामलों के बीच केंद्र-राज्य के बीच तकरार है

जनसभाओं पर रोक लगाने और लोगों को अनुशासित करने के काम में अभी भी देर नहीं हुई है. लेकिन लोगों को अनुशासन का पाठ पढ़ाने से पहले सरकारों को खुद का उदाहरण पेश करने की जरूरत है.

कोविड से ज्यादा प्रभावित राज्यों के सीएम से बैठक करते पीएम नरेंद्र मोदी | स्क्रीनशॉट

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा महात्मा ज्योतिबा फुले और बीआर आंबेडकर की जयंती के अवसर पर 11-14 अप्रैल तक ‘टीका उत्सव‘ के आयोजन का आह्वान कोविड-19 महामारी शुरू होने के बाद से भाजपा सरकार द्वारा घोषित अनेक जागरूकता कार्यक्रमों में से एक था. सरकार का मानना है कि टीकाकरण के बारे में अधिक जागरूकता भारत को कोरोनावायरस के प्रसार को नियंत्रित करने में अधिक सक्षम बनाएगी.

ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि टीकाकरण अभियान पर मुख्यत: दो कारणों से विवाद छिड़ गया. पहला विवाद इस सवाल को लेकर है कि क्या कोविड की नई लहर के दौरान हमें अन्य देशों को बड़ी मात्रा में टीकों का निर्यात और दान करना चाहिए.

दूसरा मुद्दा कुछ राज्यों के टीकाकरण में पिछड़ने का है. दोनों ही विवादों से बचा जाना चाहिए, खासकर ऐसे समय में जबकि कोरोनावायरस महामारी से निपटना भारत की प्राथमिकता होनी चाहिए.

विभिन्न देशों के साथ उपयोगी जुड़ाव हमेशा से विदेश नीति के तहत आउटरीच प्रयासों में शामिल रहा है और इस काम को स्थिति और अवसरों— विशेष प्रयासों से निर्मित और/या बदलते हालात के कारण उपलब्ध— के अनुसार कई तरह से किया जा सकता है. महामारी ने नई दिल्ली को टीके के सहारे दुनिया तक पहुंचने का एक बड़ा मौका प्रदान किया है. टीका कूटनीति शुरू करने के दो महीने से भी कम समय में, मोदी सरकार 91 देशों को वैक्सिन की लगभग 66 मिलियन खुराकें बांट चुकी है.

यह बेहद सराहनीय कार्य है क्योंकि दुनिया का कोई अन्य देश महामारी प्रबंधन के लिए इस तरह की विकास सहायता की अब तक बराबरी नहीं कर पाया है. प्रधानमंत्री मोदी और विदेश मंत्री एस जयशंकर दोनों ने इस आउटरीच को ‘वैक्सीन मैत्री ‘ करार दिया है. टीका कूटनीति को भारत की सौम्य शक्ति के हिस्से के रूप में देखा जाना चाहिए, जो उभरती विश्व व्यवस्था में नई दिल्ली को एक प्रतिष्ठित रणनीतिक स्थान दिलाने में सक्षम है.

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टीकाकरण करें, आरोप-प्रत्यारोप से बचें

घरेलू मोर्चे पर, लगता है कि कोविड महामारी पर काबू नहीं रखा गया और उसने अब पूरे देश को अपने घातक प्रभाव में जकड़ लिया है. ये दुर्भाग्यपूर्ण है कि मामले बढ़ने के साथ-साथ राज्य सरकारों और केंद्र सरकार के बीच लापरवाही बरतने को लेकर आरोप-प्रत्यारोप का दौर शुरू हो गया है. ये महामारी से लड़ने का तरीका नहीं है और इससे हमें कोई फायदा नहीं होने वाला है.

मोदी सरकार ने महामारी से निपटने में कोताही के लिए कुछ राज्य सरकारों की खिंचाई की और कुछ लोग इसे महज संयोग नहीं मानते कि केंद्र ने जिन तीन राज्यों का उल्लेख किया है वहां गैर-भाजपा सरकारें हैं. एक तरफ तो ये मामला है, वहीं ये हैरानी की बात नहीं है कि महामारी का ठीक से प्रबंधन नहीं कर पाने वाली राज्य सरकारें केंद्र सरकार पर ठीकरा फोड़ रही हैं.

भारत के औषध महानियंत्रक (डीसीजीआई) ने दो ‘मेड इन इंडिया’ टीकों— भारत बायोटेक इंटरनेशनल लिमिटेड (बीबीआईएल) के कोवैक्सीन और सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एसएसआई) के कोविशील्ड को कोविड-19 प्रबंधन नीति के तहत आपात उपयोग की मंजूरी (ईयूए) दी है.

रूस निर्मित स्पुतनिक वी, जिसकी प्रभावशीलता 91.6 प्रतिशत पाई गई है, को भी भारत में इस्तेमाल की अनुमति मिल चुकी है. अमेरिका के औषध नियंत्रक एफडीए, यूरोप के ईएमए, ब्रिटेन के एमएचआरए और जापान के पीएमडीए से ईयूए प्राप्त या डब्ल्यूएचओ की आपात उपयोग सूची में शामिल टीकों को भी कुछ अनिवार्य शर्तों को पूरा करने के बाद सार्वजनिक उपयोग की अनुमति दे दी जाएगी. अंतरराष्ट्रीय वैक्सीन गठबंधन गावी के अनुसार, ‘इस समय कोविड-19 के 88 टीकों का क्लिनिकल परीक्षण चल रहा है, जबकि 184 टीके विकास के पूर्व-नैदानिक चरण में हैं.’

इन टीकों को मंजूरी मिल जाने पर घरेलू उपयोग के लिए टीकों की उपलब्धता बढ़ जाएगी. आयातित टीके आयात शुल्क और जीएसटी के कारण स्वदेश में उत्पादित टीकों की तुलना में बहुत महंगे होंगे. केंद्र को इन आयातित टीकों की निरंतर आपूर्ति सुनिश्चित करनी चाहिए ताकि दूसरी खुराक के वक्त इनकी कमी न हो. मोदी सरकार को भी टीकों पर से मूल्य सीमा हटाने के बारे में गंभीरता से विचार करना चाहिए. जो लोग भुगतान करने में सक्षम हैं, वे एक तरह से गरीबों और जरूरतमंदों में टीकों के मुफ्त वितरण पर दी जाने वाली रियायत का बोझ उठा सकते हैं.


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नया संकट

वायरस के प्रसार को रोकने के लिए अधिकाधिक लोगों को टीके लगाने के अलावा सख्त उपाय किए जाने की भी आवश्यकता है. पुलिस का एक तरफ तो बिना मास्क वाले लोगों के पीछे भागना और दूसरी ओर जनसभाओं को संबोधित करने वाले राजनीतिक नेताओं की सुरक्षा में खड़े रहना तर्कसंगत नहीं कहा जा सकता. चूंकि कोविड-19 का नया स्ट्रेन बच्चों और युवाओं को भी प्रभावित करता है, इसलिए राज्य सरकारों द्वारा छात्रों को बोर्ड परीक्षाओं में बैठने के लिए मजबूर करने का कोई तुक नहीं है. ये दुर्भाग्यपूर्ण वास्तविकता है कि छात्रों का एक शैक्षणिक वर्ष बर्बाद कर चुकी महामारी अब अगले को भी बर्बाद करने के लिए तैयार है.

अन्य विवाद तो और भी दुर्भाग्यपूर्ण है. महाराष्ट्र सरकार अपने टीकाकरण लक्ष्य से पीछे चल रही है. वास्तव में, महाराष्ट्र जैसे घनी आबादी वाले राज्यों और मुंबई जैसे शहरों को अधिकाधिक लोगों को टीके लगाने के विशेष प्रयास करने चाहिए थे.

महामारी से हो रही मौतों को कम करने और कोविड-19 के प्रसार की गति को भी कम करने की तत्काल आवश्यकता है. ये अब सबको पता है कि टीका कोई स्थायी इलाज नहीं है. फिर भी, टीके दो मोर्चों पर सफल रहे हैं— चिकित्सकीय और मनोवैज्ञानिक.

चिकित्सकीय रूप से देखें तो टीका स्थायी इलाज भले ही नहीं हो लेकिन यह बीमारी की गंभीरता को कम करता है और मौत की आशंका को दूर करता है. लेकिन इसका दूसरा पक्ष बेहद चिंताजनक है. टीका लोगों को सुरक्षा का झूठा भरोसा देता है और उन्हें एहतियात कम करने के लिए प्रेरित करता है.

महाराष्ट्र में सर्वदलीय बैठक में पूर्ण लॉकडाउन से बचने और सख्ती से पाबंदियों को लागू कर इस समस्या से निपटने का फैसला किया गया. उत्तराखंड सरकार हरिद्वार के कुंभ मेले में श्रद्धालुओं के जमावड़े को हतोत्साहित करके अच्छी मिसाल पेश कर सकती थी. अब तक वहां 1,700 से अधिक पॉजिटिव मामले मिल चुके हैं और अधिकारियों ने कुंभ मेले की अवधि में कटौती करने से इनकार किया है. इसलिए स्थिति जल्द ही नियंत्रण से बाहर हो सकती है, जबकि सरकार जानती है कि संक्रमित व्यक्तियों को ट्रैक करना कितना मुश्किल काम है.

जनसभाओं पर रोक लगाने और लोगों को अनुशासित करने के काम में अभी भी देर नहीं हुई है. लेकिन लोगों को अनुशासन का पाठ पढ़ाने से पहले सरकारों को खुद का उदाहरण पेश करने की जरूरत है.

(शेषाद्री चारी ऑर्गनाइज़र के पूर्व संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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