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भारत को अमेरिका से कहना चाहिए कि वह क्वाड की खातिर ‘अफगानिस्तान का कुछ हिस्सा बचाकर रखे’

अफगानिस्तान से अमेरिका की वापसी वहां चीन के प्रवेश का द्वार खोलेगी. दिल्ली के पास सीमित विकल्प ही हैं.

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यूएस के विशेष प्रतिनिधि अफ़ग़ानिस्तान जलमय खलीलजाद और तालिबान के सर्वोच्च राजनीतिक नेता मुल्ला अब्दुल गनी बरदार शांति समझौते पर हस्ताक्षर करते हुए, दोहा | फोटो- एएनआई

काबुल स्थित भारतीय दूतावास ने सुरक्षा की स्थिति को ‘खतरनाक’ बताते हुए अफगानिस्तान में भारतीय नागरिकों के लिए सुरक्षा चेतावनी जारी की है. वहां विभिन्न आतंकवादी संगठनों ने हिंसा बढ़ा दी है और गैरस्थानीय अफगानों सहित बाहरी लोगों पर हमले हुए हैं. हालांकि भारतीय नागरिकों को अभी गैरजरूरी आवाजाही और भीड़भाड़ वाले वक्त में निकलने से बचने की सलाह दी गई है, लेकिन स्थिति के शीघ्र सामान्य होने के आसार कम ही हैं.

इस बात की पूरी संभावना है कि एक दिन नई दिल्ली को भारतीयों और अन्य इच्छुक एशियाइयों को वहां से निकालने और दूतावास में सीमित संख्या में कर्मचारियों को रखने के लिए मजबूर होना पड़े. और उसके बाद जल्दी ही हर समझदार देश इसका अनुसरण करेगा — यानि अपने नागरिकों को बाहर निकालना और दूतावास को बंद करना. जो लोग वहां रुके रहेंगे उनको तालिबान के हथियारबंद आतंकवादियों की दया पर रहना होगा, जिनका तब तक देश पर कब्जा हो चुका होगा. सितंबर के दूसरे सप्ताह तक अफगानिस्तान से अमेरिका की प्रस्तावित वापसी के बाद का यही परिदृश्य है.

उत्तरोत्तर अमेरिकी सरकारों की अफगान नीति अत्यधिक भ्रमित, जटिल और लक्ष्यहीन रही है, जिसने इस क्षेत्र की स्थिति को विस्फोटक और अस्थिर बनाने का काम किया. इस कदर दिशाहीनता और दोषपूर्ण लक्ष्यों के कारण जमीनी समर्थन नहीं जुट सका, फलस्वरूप महाशक्ति अमेरिका को पाकिस्तान पर निर्भर रहने के लिए मजबूर होना पड़ा. इस प्रकार, आतंकवाद के खिलाफ अमेरिकी युद्ध उसी भूमि से लड़ा गया जोकि आतंकवाद का केंद्र बना हुआ है.


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कोई पहला पलायन नहीं

वियतनाम युद्ध में अमेरिका की करारी हार और सत्तर के दशक में अमेरिकी-सोवियत तनाव में कमी की पृष्ठभूमि में, सोवियत संघ ने ईरानी कट्टरपंथ के उभार को रोकने, पाकिस्तान को अमेरिकी खेमे से दूर करने और काबुल में कम्युनिस्ट समर्थक शासन स्थापित करने के लिए अपनी पश्चिम एशिया नीति में बड़े पैमाने पर फेरबदल किया. ‘ब्रेझनेव सिद्धांत‘ ने दुनिया में कहीं भी खतरे में पड़े समाजवादी सरकारों की रक्षा के मास्को के ‘अधिकार और कर्तव्य’ की वकालत की. अफगानिस्तान पर सोवियत संघ का आक्रमण मुख्यत: उसके वर्चस्ववादी उद्देश्यों और क्षेत्र में अपने भूराजनीतिक हितों को सुरक्षित करने से प्रेरित था. अंतत: सोवियत संघ के विघटन के बाद शीतयुद्ध खत्म हुआ.

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अफगानिस्तान में अमेरिकी नेतृत्व में रणनीतिकारों के प्रवेश और सोवियत संघ की लाल सेना को बाहर खदेड़ने के लिए ‘ऑपरेशन साइक्लोन’ के तहत पाकिस्तान की आईएसआई की मदद से एक लड़ाकू बल के रूप में तालिबान के गठन के साथ अफगान युद्ध एक विनाशकारी चरण में प्रवेश कर गया था. माना जाता है कि ‘ऑपरेशन साइक्लोन’ मुजाहिदीन लड़ाकों को मदद देने के उद्देश्य से सीआईए द्वारा गढ़ा और इस्तेमाल किया गया कूट नाम था.

उसके बाद बने राजनीतिक-सुरक्षा शून्य ने तालिबान को उभरने का मौक़ा दिया, जिसने आगे चलकर पूरे अफगानिस्तान पर नियंत्रण कर लिया. उसके अल-क़ायदा, हक्कानी नेटवर्क और आईएसआई के साथ सहयोग को देखते हुए वाशिंगटन में खतरे की घंटी बजने लगी.

संयुक्तराष्ट्र सुरक्षा परिषद ने 1999 में अल-क़ायदा और तालिबान पर प्रतिबंधों की समिति के गठन के लिए प्रस्ताव संख्या 1267 को पारित किया ताकि आतंक फैलाने की उनकी क्षमताओं को सीमित किया जा सके. लेकिन 2001 में उत्तरी गठबंधन के अहमद शाह मसूद की हत्या और अमेरिका में हुए 9/11 के हमलों ने वाशिंगटन को ‘ऑपरेशन एंड्योरिंग फ्रीडम’ शुरू करने के लिए बाध्य कर दिया. तालिबान को सत्ता से बेदखल कर दिया गया और फिर संयुक्तराष्ट्र सुरक्षा परिषद के प्रस्ताव 1378 के जरिए अफगानिस्तान में एक संक्रमणकालीन सरकार की स्थापना में संयुक्तराष्ट्र की ‘केंद्रीय भूमिका’ का आह्वान किया गया.

बीस साल बाद अगर अमेरिका अफगानिस्तान से निकलना चाहता है, उसे उतनी ही बुरी स्थिति में छोड़कर जितनी 9/11 के बाद उसकी सेना के देश में दाखिल होते समय थी, तो फिर तालिबान को सत्ता वापस सौंपने का क्या औचित्य है? संयुक्तराष्ट्र फिर से पहलकदमी करते हुए ‘केंद्रीय भूमिका’ क्यों नहीं निभा सकता जैसा कि उसने बॉन समझौते और अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा सहायता बल (आईएसएएफ) की स्थापना के जरिए लोकतांत्रिक रूप से चुनी गई सरकार को बरकरार रखने, लोकतंत्र को बढ़ावा देने तथा आर्थिक प्रगति और सामाजिक सामंजस्य सुनिश्चित करने के लिए किया था?


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प्रतीक्षारत किरदार

कहीं बड़ी आपदा और बढ़ी हुई हिंसा के साथ अस्थिरता के लंबे दौर का पूर्वाभास निकट भविष्य में अफगानिस्तान की नियति प्रतीत होती है. सोवियत संघ द्वारा बहुत पहले खाली की गई जगह को अब चीन भरेगा — जो अधिक वित्तीय ताकत और वर्चस्व की महत्वाकांक्षाओं वाली कहीं अधिक मजबूत शक्ति है. अमेरिका के पास अपने सैनिकों की काबुल से वापसी का केवल एक निकास द्वार है लेकिन चीन के पास अफगानिस्तान में प्रवेश के कई रास्ते हैं. काबुल में चीन-पाकिस्तान-तालिबान गठजोड़ के विनाशकारी परिणाम भारत के लिए एक बड़ी सुरक्षा और रणनीतिक चुनौती साबित होंगे.

इन परिस्थितियों में नई दिल्ली के पास सीमित विकल्प ही हैं लेकिन भारत इस क्षेत्र में अपने सुरक्षा और शक्ति संतुलन को होने वाली आनुषंगिक क्षति को कम करने के उद्देश्य से तुरंत कार्रवाई के लिए तत्पर हो सकता है. पहले ही नई दिल्ली द्वारा तालिबान के एक वर्ग के साथ संपर्क स्थापित करने की खबरें आ रही हैं. इससे भारत को अफगानिस्तान में अपनी परिसंपत्तियों की सुरक्षा सुनिश्चित करने और अमेरिका के निकलने के बाद के परिदृश्य में कार्रवाइयों के लिए पैर जमाने में मदद मिल सकेगी. हालांकि भारत वहां अपने सैनिकों को नहीं उतारेग, लेकिन उसे अफगान राष्ट्रीय सुरक्षा बलों (एएनएसएफ) को प्रशिक्षण और समर्थन देना जारी रखने के लिए एक रणनीति तैयार करनी होगी.

अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण और ईरान में बुनियादी ढांचा परियोजनाओं में भारत की भागीदारी इस क्षेत्र में नई दिल्ली के हितों को सुरक्षित करने की एक बड़ी रणनीति का हिस्सा है. और फिर क्वाड एक और मंच है जहां भारत सक्रिय है और जहां उसके बड़ी भूमिका निभाने की उम्मीद है. ऐसे वक्त जबकि क्वाड इस क्षेत्र में रणनीतिक संतुलन बरकरार रखने के लिए अनेक युद्धाभ्यास करने, लोकतंत्रों का गठबंधन बनाने तथा एक स्थायी और समतापूर्ण आर्थिक विकास के लिए मुक्त और खुले हिंद-प्रशांत के विचार को बढ़ावा देने का काम कर रहा है, अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी क्वाड के लिए एक बड़े झटके के समान होगी. इसलिए भारत लोकतंत्र के समक्ष मौजूद खतरों और वैश्विक आतंकवाद के पुनरुत्थान के खिलाफ दुनिया का जनमत तैयार करने पर विचार कर सकता है ताकि संयुक्तराष्ट्र पर हस्तक्षेप के लिए दबाव बनाया जा सके.

जब विंस्टन चर्चिल को भारत के विभाजन की योजना के बारे में पता चला था, तो उन्होंने कथित तौर पर 1945 में लॉर्ड वेवेल से ‘भारत का कुछ हिस्सा बचाकर रखने’ के लिए कहा था. नई दिल्ली के लिए ये सही समय है कि वह व्हाइट हाउस को ‘अफगानिस्तान का कुछ हिस्सा बचाकर रखने’ के लिए कहे.

शेषाद्री चारी ऑर्गनाइज़रके पूर्व संपादक हैं. ये उनके निजी विचार हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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