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चुनावी विवेक बनाम चुनावी दंभ पर केंद्रित होगा 2019 का मुक़ाबला

गैर-कांग्रेसवाद एक पुरानी और परिपक्व राजनीतिक विचारधारा है लेकिन गैर-भाजपावाद की राजनीति को लोकसभा चुनाव 2019 में अभी परिपक्व होना है.

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भाजपा अध्यक्ष अमित शाह और गृहमंत्री राजनाथ सिंह के साथ प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की फाइल फोटो | पीटीआई

लोकसभा चुनावों की घोषणा मार्च में किए जाने की संभावना स्पष्ट होने के साथ ही गठबंधनों के लिए प्रयास तेज़ हो गए हैं. राहुल गांधी की कांग्रेस पार्टी ने 2019 के चुनावों में भाजपा का सामना करने के लिए प्रत्येक राज्य में व्यावहारिक राजनीतिक मोर्चे बनाते हुए राष्ट्रीय स्तर एक बड़ा मोर्चा गठित करने का फैसला किया है. भाजपा अध्यक्ष अमित शाह की रणनीति ऐसे किसी मोर्चे को नहीं बनने देने और जहां कहीं भी यह उभरता दिखे वहां इसे ध्वस्त करने की लगती है.

सरकार की प्रवर्तन एजेंसियां अतिसक्रिय हो चुकी हैं. यह राजनीतिक ब्लैकमेलिंग और बल प्रदर्शन का संकेत है, क्योंकि कई नेताओं को डर है कि उन पर एजेंसियों की नज़र है. एलिस्टेयर मैकलीन के शब्दों में, संदर्भ से थोड़ा हटते हुए, मुख्य बात भय की है.

राजनीतिक समीकरणों को दो पक्षों के सिद्धांत पर सरलीकृत कर दिया गया है कि ‘आप या तो हमारे साथ, या हमारे खिलाफ़ हैं.’ अगले 60 दिनों में, अब तक तय नहीं कर पाई पार्टियों को किसी एक पक्ष को चुनना पड़ेगा. जो इस काम में देरी करेंगे, प्रवर्तन एजेंसियां उनको जल्दबाज़ी दिखाने के लिए बाध्य करेंगी. नए सहयोगी बनाने में भाजपा और कांग्रेस दोनों ही खुलापन दिखा रहे हैं.

इस बात को लेकर अटकलबाज़ी शुरू हो चुकी है कि क्या नरेंद्र मोदी एक बार फिर प्रधानमंत्री बन जाएंगे. राजनीतिक अटकलों के बाज़ार में भाजपा को 160 से 250 के बीच सीटें दी जा रही हैं. यदि पार्टी को 160 सीटें मिलीं तो एक नए राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (एनडीए) के उभरने की संभावना नहीं बचेगी और भाजपा सांसद मोदी को संसदीय दल का नेतृत्व नहीं करने देंगे. परंतु, यदि मोदी को 200 के करीब सीटें मिलती हैं तो वह एक नए एनडीए का गठन कर प्रधानमंत्री बन जाएंगे. और अटकलों की मानें तो 250 सीटें पाने के बाद उनका कोई विरोध नहीं रह जाएगा.

मोदी के प्रचार का काम संभालने वालों का कहना है कि जैसे इंदिरा गांधी ने 1971 में विपक्ष के महागठबंधन को इस नारे से ध्वस्त कर दिया कि ‘वे इंदिरा को हटाने की बात करते हैं, पर मैं गरीबी हटाने की बात करती हूं’, उसी तरह मोदी एक बड़ी जीत के साथ देश-दुनिया को चकित कर देंगे. यह सोच उम्मीद, प्रचार, तर्क और आस्था का मिश्रण है.

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विपक्षी बिखराव का सूचकांक

पर सच तो ये है कि भाजपा सांसद मोदी के खिलाफ़ अधिक मुखर (हालांकि सार्वजनिक रूप से नहीं) होने लगे हैं. इसलिए अक्सर पूछे जाने वाले तीन सवाल हैं: मतदाताओं को ‘मंत्रमुग्ध’ कर देने के लिए उनके पास क्या विकल्प रह गए हैं; और विपक्ष की एकजुटता की कितनी संभावना है? और ज़ाहिर तौर पर तीसरा बारंबार पूछा जाने वाला सवाल यह है कि विपक्ष की ओर से प्रधानमंत्री कौन होगा?

इसलिए विपक्षी एकता के सूचकांक, और साथ ही विपक्षी बिखराव के सूचकांक पर गौर करना आवश्यक हो जाता है.

पार्टियां परस्पर तालमेल कैसे करती हैं और मोर्चे कैसे बनते हैं? किन बातों पर उनमें विभेद है, और कौन सी बातें उन्हें परस्पर करीब लाती हैं? मौजूदा और संभावित मोर्चों की, लगभग सभी क्षेत्रीय और छोटी पार्टियां कभी-न-कभी या तो कांग्रेस-विरोधी या भाजपा-विरोधी रही हैं.

डीएमके और एआईएडीएमके, दोनों ही एक ना एक समय या तो कांग्रेस या भाजपा की मज़बूत सहयोगी रही हैं. विचारधारा के स्तर पर दोनों ही द्रविड़ पार्टियां एक जैसी हैं. यही बात शिवसेना और राज ठाकरे की महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (एमएनएस) के बारे में कही जा सकती है. फिर भी एक-दूसरे के प्रति उनकी शत्रुता गहरी है.

भाजपा और शिवसेना सहयोगी हैं, पर अधिकांश समय दोनों आपसी तीखे संघर्षों में उलझे रहते हैं. वर्तमान में शिवसेना और एमएनएस दोनों ही नरेंद्र मोदी के कड़े आलोचक हैं, पर तीन साल पहले उनके बड़े प्रशंसक थे. मोदी और शाह हमेशा से शिवसेना के प्रति, यदि शत्रुतापूर्ण नहीं तो, उदासीन रहे हैं. इसी कारण यह सवाल दिलचस्प हो जाता है कि पार्टियां गठबंधन और मोर्चे कैसे बनाती हैं.

जनता पार्टी और उसका विघटन

सिर्फ दो दल ही लगातार एक-दूसरे के खिलाफ़ लड़ते रहे हैं– कांग्रेस और भाजपा. दोनों के लोगों ने पाले बदले हैं. भाजपा 1980 तक प्रभावी पार्टी नहीं बन सकी थी. अपने पूर्व अवतार में यह जनसंघ थी, जिससे किसी भी तरह का संबंध रखना बेहद ख़राब माना जाता था.

विचारधारा ने उन्हें जोड़ रखा था, पर राजनीति उनके हिंदू भाईचारे में बाधक बन गई. भाजपा और जनसंघ कभी एक बैनर के तहत काम नहीं कर पाए. एनडीए जॉर्ज फर्नांडिस जैसे अपने कटु आलोचक तक को अपने साथ ले आया, पर जनसंघ या हिंदू महासभा जैसे अपने हिंदू भाइयों को नहीं. इसलिए यह स्पष्ट है कि ज़रूरी नहीं समान विचारधाराएं या मान्यताएं दो दलों को एक गठबंधन में ला सकें.

वास्तव में जयप्रकाश नारायण की छत्रछाया में चलने वाली जनता पार्टी के चार विविध सहयोगी थे- कांग्रेस (ओ), स्वतंत्र पार्टी, जनसंघ और समाजवादी पार्टियों में से एक. जनता पार्टी इंदिरा गांधी के आपातकालीन शासन को हटाकर 1977 में सत्ता में आई. पर जेपी की अगुआई वाली पार्टी जनसंघ की जनता पार्टी में भागीदारी के मुद्दे पर बंटी हुई थी. जेपी संघ परिवार को यह कहते हुए साथ लाए थे कि उन्हें राजनीति की मुख्यधारा का हिस्सा होना चाहिए. जेपी कहा करते थे कि उदारवादियों का संघ परिवार की देशभक्ति और राष्ट्रवादी साख पर सवाल उठाना सही नहीं है.

परंतु, राष्ट्रवादी नैतिकता का प्रमाण-पत्र संघ परिवार के काम नहीं आ सका. जनता पार्टी के समाजवादी धड़े ने जनसंघ से मांग की कि वह आरएसएस से संबंध तोड़े. जनसंघ ऐसा करने को तैयार नहीं था. जनता पार्टी टूट गई और सरकार गिर गई. जनता पार्टी का महागठबंधन वैचारिक/राजनीतिक विरोधाभासों को झेल नहीं सका. आगे चलकर जनता पार्टी अनेक धड़ों और दलों में बंट गई.

राष्ट्रीय जनता दल, जनता दल (सेक्यूलर), जनता दल (युनाइटेड), इंडियन नेशनल लोक दल, राष्ट्रीय लोक दल, लोक जनशक्ति पार्टी, समाजवादी पार्टी, और बेशक भारतीय जनता पार्टी, ये सब लोहियावादी और जयप्रकाशवादी कुनबे के सदस्य हैं. मूल जनता पार्टी का आज नामोनिशान नहीं बचा है, जिसे कि देश में दूसरा स्वतंत्रता आंदोलन शुरू करने और इंदिरा शासन को ख़त्म करने का श्रेय दिया जाता था. सुब्रमण्यम स्वामी पार्टी के आखिरी सिपाही रह गए थे, जो आगे चलकर भाजपा में शामिल हो गए.

गैर-कांग्रेसवादी राजनीति

जहां भारत की दो प्रमुख पार्टियों का दलबदल से पाला पड़ चुका है, कम्युनिस्ट पार्टियां आमतौर पर इससे बची रही हैं. वास्तव में, जनता पार्टी या लोक दल के विभिन्न रूपों की विरासत का दावा करने वाले समाजवादी भी दलबदलुओं, भगोड़ों, नया गठबंधन या नया दल बनाने और तोड़ने वालों में शामिल रहे हैं. दिलचस्प बात ये है कि इनमें से सभी के राममनोहर लोहिया या जयप्रकाश नारायण की विरासत के दावों के बावजूद, अक्सर ये एक-दूसरे को नापसंद करते हैं.

भाजपा के हर तरह के सहयोगी रहे हैं. यहां तक कि माकपा ने भी, ‘फ्लोर मैनेजमेंट’ के नाम पर भाजपा के साथ काम किया है– जब दोनों ही 1989-90 में वीपी सिंह सरकार को बाहर से समर्थन दे रहे थे, और फिर जब दोनों ही भारत-अमेरिका परमाणु समझौते के खिलाफ़ थे.

कांग्रेसवाद के विरोध की एक पुरानी और परिपक्व राजनीतिक विचारधारा है. लेकिन भाजपावाद का विरोध अभी तक एकजुट करने वाले मज़बूत बल के रूप में विकसित नहीं हो पाया है. 1977 में जनता पार्टी, 1989 में राष्ट्रीय मोर्चा, 1996 में संयुक्त मोर्चा या फिर एनडीए, ये सब के सब गैर-कांग्रेसवाद के प्रतीक हैं. स्थानीय या राष्ट्रीय महागठबंधन की लगभग सभी पार्टियां कभी-न-कभी गैर-कांग्रेसवाद की राजनीति की वाहक रही हैं. पर नरेंद्र मोदी ने कांग्रेसवाद-विरोधी राजनीति को एक मज़बूत और भयावह मोड़ दे दिया है. इससे पहले भारत में कभी भी इस कदर प्रतिबद्धता वाली प्रतिशोध की राजनीति नहीं देखी गई थी.

इस समकालीन राजनीतिक कथानक से स्पष्ट हो जाना चाहिए कि मोर्चों और गठबंधनों का व्यावहारिक समझौतों या वैचारिक प्रासंगिता से ज़्यादा वास्ता नहीं होता. इसके बावजूद नरेंद्र मोदी राजनीति के ध्रुवीकरण में इस कदर ‘सफल’ रहे हैं कि आगामी लोकसभा चुनावों का निर्धारण शायद गैर-भाजपावाद की राजनीति से हो.

ध्रुवीकरण के सत्तारूढ़ गठबंधन के खिलाफ़ जाने की भी अच्छी संभावना बन गई है. 2019 का मुक़ाबला चुनावी विवेक बनाम चुनावी दंभ पर केंद्रित होने वाला है.

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