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यूक्रेन की जंग विश्व युद्ध में न बदले, इसके लिए ताकत दिखाने के बदले चाहिए ईमानदार सोच

पश्चिम को समझना होगा कि रूस की ताकत घट रही है, मगर ज्यादा दबाया गया तो वह जवाब देगा, जैसे वर्सेल्स में अपमानजनक सुलह पर मजबूर होने के बाद जर्मनी ने किया था.

सोहम सेन का चित्रण | दिप्रिंट

यूक्रेन में बेहद खतरनाक जंग ज्यादा तीखी हुई तो मध्यस्थता, संघर्ष विराम या ऐसी ही कुछ बातें चल पड़ी हैं, ताकि यह टकराव खत्म हो सके और विश्व युद्ध न छिड़ सके. यह तो एक बात है, लेकिन यह युद्ध तो होना ही नहीं चाहिए था और कुछ शर्तें अगर पूरी हो जातीं तो तेजी से नतीजे मिल सकते हैं. इसके लिए ताकत के दिखावे को थोड़ा कम करके थोड़ी-सी ईमानदारी की दरकार है.

जंग का राजनैतिक भूगोल

एक तो यह लगता है कि रूसी फौज पूरब में यूक्रेन की सेना की घेराबंदी पूरी करने के अपने मकसद के करीब पहुंच रही है और यूक्रेन के इस हिस्से में पूरी तरह काबिज होने की दिशा में बढ़ रही है. इसके नक्शे को देखिए कि नदी दनीपर यहां यूक्रेन को लगभग दो हिस्सों में बांटती है. स्थानीय भाषाओं का नक्शा भी ऐसा ही बंटवारा दिखाता है. इससे पता चलता है कि यूक्रेनी भाषा बोलने वालों की बहुतायत है, वहां रूसियों को क्यों जूझना पड़ रहा है. फिर, 2010 के राष्ट्रपति चुनाव में मतदान के रुझान के ग्राफ में रूसी समर्थक विक्टर यानुकोविच के वोट शेयर से भी ऐसा ही बंटवारा दिखता है.

उसके बाद रूसी भाषा-भाषी क्रीमिया और अलगाववादी बागियों वाले डोनबॉस इलाके पर मास्को ने पूरी तरह कब्जा कर लिया. नतीजा क्या हुआ? वोलोदीमीर जिलेंस्की की राष्ट्रपति पद पर भारी जीत हुई और बाद में उनकी पार्टी सर्वेंट ऑफ द पीपुल की भी जीत हुई. हालांकि रूस समर्थक विपक्ष ने उम्मीद से बेहतर प्रदर्शन किया.

उसके बाद राष्ट्रपति, जो मीडिया मुगल भी हैं, ने विपक्ष, खासकर टीवी चैनलों को निशाना बनाया और अलगाववादियों पर कड़ी कार्रवाई की, जिससे उन पर मानवाधिकार उल्लंघन के आरोप लगे. इस साल जनवरी में जिलेंस्की सरकार ने एक पूर्व राष्ट्रपति को गिरफ्तार कर लिया. युद्ध छिड़ा तो खास खो चुके राष्ट्रपति को राजनैतिक मौके मिल गये. आज, जिलेंस्की बहादुरी और जांबाजी का चेहरा बन गए हैं.

कुल मिलाकर, यूक्रेन में साफ बंटवारा दिखता है. लेकिन देश के दोनों हिस्सों में यूक्रेनी पहचान पूरी तरह खत्म होने के लिए यह पर्याप्त नहीं है. पूरब में रूसी कब्जा संभव है, लेकिन वह भी आसान नहीं है. तो, पूरे यूक्रेन में रूसी कब्जा हो जाएगा? ऐसा नहीं हो सकता. मास्को को यूक्रेनी फौज से ज्यादा लोगों का विरोध झेलने पड़ेंगे.

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नाटो मामला

युद्ध से सिर्फ जिलेंस्की को ही फायदा नहीं हुआ. इससे एक वक्त अजेय ताकत रहे नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन (नाटो) को भी मजबूती मिली है, जो शांति काल में हाशिए पर जा रहा था. जर्मनी में रक्षा बजट में 100 अरब डॉलर का इजाफा के साथ ऐतिहासिक बदलाव दिखा, जबकि बाकी यूरोप भी इसी राह चल पड़ा है. यह अमेरिका के वर्षों इस बात पर दबाव डालने के बाद हुआ है कि यूरोप अपनी रक्षा के लिए ‘कुछ अधिक’ करे.

अब हालात बदले हैं. 2008 में जॉर्ज डब्ल्यू. बुश ने कीव ने नाटो की सदस्यता की पेशकश की थी, लेकिन उसके बाद यूक्रेन को कोई पेशकश नहीं हुई. यहां तक कि उस पेशकश की भी यूरोपीय देशों ने तगड़ा विरोध किया था. राष्ट्रपति जिलेंस्की ने उसके बाद शामिल होने के लिए कई तरकीबें अपनाईं, लेकिन कोई फर्क नहीं पड़ा. यह भी गौर करें कि 16 फरवरी को राष्ट्रपति बाइडन ने साफ-साफ कहा कि वे यूक्रेन की रक्षा करने के लिए फौज नहीं भेजेंगे. उसके हफ्ते भर बाद रूस ने हमला कर दिया. उसके बाद, मास्को की परमाणु ताकत की धमकी के बावजूद अमेरिकी राष्ट्रपति ने कहा कि अमेरिका की परमाणु सतर्कता में कोई बदलाव नहीं किया गया है. संदेश क्या है? यूक्रेन अमेरिका के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा का मुद्दा नहीं है. मुद्दा तो रूस है. जैसा हर कोई जानता है.

यह सब तकरीबन पैसे का मामला

युद्ध हमेशा ही पैसे का मामला रहा है और रहेगा. द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान अमेरिका ने अपनी जीडीपी का 40 फीसदी रक्षा पर खर्च किया. 2017 में एक रिसर्च में पाया गया कि युद्धों से 20 कंपनियों को भारी मुनाफा हुआ, जिनमें ज्यादातर अमेरिका की हैं, लेकिन फ्रांस, इटली और रूस की भी हैं.

अब शेयर बाजार को देखें. युद्ध के झटके से शेयरों में उथल-पुथल मची ता लॉकहीड मार्टिन जैसे बड़े रक्षा उत्पादकों के शेयर चढ़ गए, उसी तरह रेथियोन टेक्नोलॉजीज जैसे कुछ थे. नाटो का बजट बढ़ने के साथ ही उनके शेयर मूल्य भी उछले. इस दलील को रूसी हितों की पड़ताल के साथ आगे बढ़ाना सार्थक है. यूक्रेन में करीब 34 अरब टन कोयले का भंडार दुनिया में सातवां और यूरोप में दूसरा सबसे बड़ा है. दूसरे सूत्रों का आकलन है कि करीब 115 अरब टन का भंडार तो खासकर डॉनबास के कछार में ही है. और गैस का भारी भंडार खासकर क्रीमिया में है. यूक्रेन में करीब 27 अरब टन का लौह भंडार दुनिया में छठे स्थान पर है. भारत की कंपनी अर्सेलरमित्तल क्रीवी-रीह में स्टील बना रही है.

फिर, रक्षा उद्योग है. सोवियत रूस का विघटन हुआ तो यूक्रेन में उसकी रक्षा इकाइयां करीब 30 फीसदी थीं. उसके बाद रूस यूक्रेन के अस्त्र-शस्त्रों का एक बड़ा खरीददार रूस है. वह विमान इंजनों के लिए पूरब में मोटर सिच; विमान के लिए कीव में अंतोनोव; और रॉकेट, मिसाइलों के मैन्युफैक्चर तथा डिजाइन के लिए युझमश पर अभी भी बड़े तौर पर निर्भर है. यह भी न भूलें चीन इन उद्योगों का अधिग्रहण करता जा रहा है. रूस अपने पुरानी रक्षा इकाइयों पर काबिज होकर हर मामले में फायदे में रहेगा और एक बार फिर रक्षा उत्पादन में होड़ देने लगेगा.

ताकत में इजाफे की मंशा

आखिरकार युद्ध राजनीति का विस्तार है. राष्ट्रपति बाइडन ने राष्ट्र के नाम अपने संबोधन में रूस के खिलाफ कड़ा रुख अपनाकर वाहवाही लूटी थी. चुनावों में थोड़ी लोकप्रियता में पिछड़ रहे राष्ट्रपति की रेटिंग आठ अंक उछल गई, जो किसी एक घटना से होना अप्रत्याशित था. यह साफ नहीं है कि पुतिन का यूक्रेन पर आक्रमण खुद को मजबूत करने वाला था या नहीं. लेकिन 2015 में प्रोफेसर जॉन मीर्शीमेर की दलील थी कि पुतिन यूक्रेन पर आक्रमण करके स्मार्ट खेल खेल सकते हैं. उन्होंने वही किया भी. शायद इधर के कार्यकाल में नौ साल की सत्ता के बाद उन्हें भी कुछ मजबूती की दरकार है. लेकिन यह तो साफ है कि पुतिन या कोई भी राष्ट्रपति यूक्रेन पर अंकुश नहीं लगा पाएंगे, जो नाटो का सदस्य हो.


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पुतिन की मांग और अचानक रजामंदी

पुतिन की खुली मांग सुलह के लिए अपने हक की बात पर जोर देने की है. इसमें यूक्रेन के नाटो में शामिल होने पर सिरे से ‘ना’ है. फिर लात्विया, लिथुयाना, पोलैंड और 1997 के बाद नाटो में शामिल हाने वाले दूसरे देशों में पश्चिमी फौज में कटौती या उनकी वापसी है. इसके अलावा,सबसे दिलचस्प छोटी और मध्यम दर्जे की मिसाइलों का हटना है, जिसका मतलब इंटरमीडिएट न्यूक्लीयर ताकतों (आइएनएफ) को जीवित करना है, जिसे अमेरिका ने रूसी नहीं, चीनी मिसाइलों के डर से 2018 में छोड़ दिया था. यहां एक चौंकाऊ पहलू भी है. स्पेन की एल पैस द्वारा हासिल दस्तावेजों से पता चलता है कि अमेरिका सुलह करने को तैयार है. हालांकि वह नाटो की ‘खुले दरवाजे की नीति’ को रोकने के मामले मीन-मेख निकालता रहा है. इसे गौर कीजिए. पिछले कुछ हफ्तों की घटनाओं से साफ-साफ जाहिर हुआ है कि नाटो यूक्रेन की रक्षा के लिए आगे नहीं आ रहा है. नाटो की सीमा से ही लाल रेखा शुरू हो जाती है. फिलहाल ऐसे कोई संकेत नहीं हैं कि मास्को उन देशों की ओर बढ़ेगा. वह इतना चाहता है कि नाटो के खिलाफ थोड़ा कम और पश्चिम के खिलाफ ज्यादा बोला जाए.

युद्ध के एकतरफा कवरेज-पूरी तरह पश्चिमी राजधानियों से-के बावजूद यह साफ है कि रूस यूक्रेन में तूफान की तरह नहीं घुसा. सावधानी से बढ़ रहा है और कोई हवाई ताकत का इस्तेमाल नहीं किया गया. लेकिन उसने देश में हर सैनिक वायु अड्डे को बर्बाद करके यह भी आश्वस्त किया कोई और न आए. उसने नागरिक बस्तियों पर हमले नहीं किए और लोगों को वहां से निकल जाने को प्रोत्साहित करता रहा, जिधर वह बढ़ना चाहता है. उसने ताबतोड़ हमले के तेवर भी कुछ दिन पहले तक नहीं दिखाए, जब उसे दबाव बढ़ाने के लिए बेहद जरूरी लगा. दोनों देशों के बीच बातचीत भी शुरू हो गई. रूस का ताजा रुख यह है कि वह यूक्रेन को बांटना नहीं चाहता, बल्कि कीव में ‘गैर-नाजी’ सरकार (मतलब मित्रवत सरकार) चाहता है. उसका पूरी तरह गैर-सैन्यीकरण चाहता है और यह भी चाहता है कि उसके संविधान में निष्पक्षता लिखा जाए. बेशक, ‘अलगाववादी’ रिपब्लिक ऑफ डोनटस्क और लुहांस्क को पहले ही ‘मान्यता’ दी जा चुकी है और मास्को चाहता है कि क्रीमिया के उसके कब्जे को भी दुनिया मान्यता दे. बस इतना ही.

आगे की राह

ये तथ्य हैं. इन्हें कारगर बनाने के लिए पहले यह कबूल करें कि रूस की ताकत घट रही है, लेकिन उसके मूल हितों पर उसे दबाया गया तो उसी तरह जवाब देगा, जैसे जर्मनी ने वर्सेल्स में अपमानजनक सुलह के बाद दिया. रूस के मूल हित यूक्रेन के निष्पक्ष रहने और काला सागर में उसकी राह खोलने की है. इससे अमेरिका या उसके सहयोगियों का मूल हित भी आड़े नहीं आता. इसलिए पहला कदम यह है कि रूस से एक यथास्थिति की सुलह की जाए और इसे स्वीकार किया जाए कि रूसी सेना तब तक यूक्रेन में टिकी रहेगी जब तक दोनों तरफ से उसके निष्पक्ष रहने की गारंटी नहीं मिल जाती. मास्को को भी यह समझना चाहिए कि लंबे समय तक टिके रहना खर्चीला साबित होगा.

दूसरे, संघर्ष विराम पर बात हो जाने के बाद वहां संयुक्त राष्ट्र बलों की निगरानी की दरकार होगी. आदर्श यह होगा कि सीजफायर लाइन तय की जाए और निगरानी रखी जाए कि वागनेर ग्रुप या पश्चिम से आए गुट हालात बिगाड़ न दें.

तीसरे, यह भी स्वीकार करना होगा कि नए यूक्रेन में नए ‘रिपब्लिक’ या क्रीमिया शामिल नहीं होंगे. यह कम से कम बाकी यूक्रेन को एकजुट रखने के लिए कीमत चुकानी होगी.

चौथे, अमेरिका और रूस हर तरह की मिसाइल को नष्ट करने की संधि करे, जिससे यूरोप की सुरक्षा में काफी मदद मिलेगी. इससे यह समझ भी बनेगी कि प्रतिबंधों की बनिस्बत आपसी रिश्तों पर निर्भर रहा जाए. इसका यूरोप स्वागत करेगा और दोनों राष्ट्रपतियों की व्यक्तिगत लोकप्रियता भी कायम रहेगी. इसके लिए राष्टपति बाइडन को अपने सैन्य उत्पादन कंपनियों के सामने खड़ा होना होगा, क्योंकि वे यूरोप के रक्षा बजट बढ़ने से खुश होंगी. वह तो एक शक्ति के उभरने से जारी ही रहेगा.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(लेखिका नई दिल्ली में पीस ऐंड कनफ्लिक्ट स्टडीज की प्रतिष्ठित फेलो हैं. उनका ट्विटर हैंडल है @kartha_tara. विचार निजी हैं.)


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