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चीन की दादागिरी सैन्य वार्ता से नहीं रुकने वाली, मोदी को राजनीतिक फैसला लेना होगा

नरेंद्र मोदी सरकार को एक राजनीतिक रुख अपनाना होगा और मुद्दे को हल्के में लेना बंद करना होगा. इस रुख की बुनियाद इस भरोसे पर टिकी होनी चाहिए कि भारतीय सेना कमज़ोर नहीं है और मामले को तूल देने में वो चीनियों का मुकाबला कर सकती है.

नरेंद्र मोदी की फाइल फोटो | एएनआई

चीन ने किस तरह लक्ष्मण रेखा पार की है, इसपर अपने पिछले लेख में मैंने लिखा था कि ये मसला हल करने के लिए कूटनीतिक कौशल तब तक नाकाफी है, जब तक उसके पीछे राजनीतिक बुद्धिमानी और साहस नहीं होगा. दो हफ्ते बाद, हमने भारत और चीन के बीच, सैन्य और कूटनीतिक चैनल्स के माध्यम से बातचीत होते हुए देखी लेकिन इसमें राजनीतिक बुद्धिमानी का कहीं कोई संकेत नज़र नहीं आ रहा है.

ये बात संभव है और समझ में भी आती है कि सरफेस के नीचे सियासी चालें चली जा रही होंगी और एक समझौते के ज़रिए मामला सुलझा लिया जाएगा. गलवान की घटना जिसमें 15 जून को, एक कमांडिंग ऑफिसर और 19 जवानों की मौत हो गई, चीन की ओर से समझौतों और प्रोटोकॉल्स के निरंतर उल्लंघन को दर्शाती है.

भ्रम ये है कि चीन के तमाम समझौतों से मुकरने के बावजूद, हमें अभी भी लगता है कि बदले में कुछ दिए बिना, भारत उन्हें फिर से यथास्थिति में लाने का प्रयास कर सकता है. या हम उन्हें कुछ दे सकते हैं और उसे सार्वजनिक करने की ज़रूरत नहीं है. रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह ने इसी रुख की तरफ इशारा किया, जब उन्होंने कहा, ‘सभी विषय सही समय पर सामने लाए जाएंगे.’

डोकलाम संकट को शांत करने में यकीनन राजनीतिक चतुराई का मुज़ाहिरा किया गया था, क्योंकि दोनों पक्ष जीत का दावा कर पाए थे. अब पीछे देखने पर हम जानते हैं कि चीन तकनीकी रूप से समझौते पर बना हुआ है, क्योंकि उसने फेस-ऑफ की जगह पर, यथास्थिति में कोई बदलाव नहीं किया है. लेकिन उसने विवादास्पद डोकलाम पठार के अधिकतर हिस्से पर, सैन्य रूप से कब्जा कर लिया है और उससे भी ख़राब ये कि विवाद में पक्षकार होने के नाते, भारत ख़ामोश बना रहा है, उसने चुपचाप चीन की आक्रामकता को मान लिया, और अब उसे पता चला है कि इस नीति से उसे केवल अस्थाई शांति हासिल हुई है. लेकिन अब ऐसा लगता है कि उसने भारत की कायरता को समझ लिया है और अब उसे और चाहिए.

चीन की योजना

इस बार स्थिति अलग है और रणनीतिक पैमाने पर ऊंचे दांव लगे हुए हैं. ऐसे चतुराई भरे समझौतों की बिल्कुल गुंजाइश नहीं है, जिन्हें देशी और अंतर्राष्ट्रीय दर्शकों को जीत के तौर पर बेचा जा सके. इसके विपरीत लद्दाख को लेकर नज़रिया बिल्कुल ही अलग होना चाहिए और इसे खतरा नहीं, बल्कि एक अवसर के तौर पर देखा जाना चाहिए.

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खतरा ये है कि चीन यथास्थिति में इस तरह बदलाव करेगा कि उसका मौजूदा संकट से पहले के मुकाबले, ज़्यादा बड़े क्षेत्र पर कंट्रोल हो जाए. उसका खास अंदाज़ ये है कि वो दो कदम आगे बढ़ाता है और फिर एक कदम पीछे हटाने पर मान जाता है और इस तरह आख़िर में एक कदम हासिल कर लेता है. गलवान घाटी, हॉट स्प्रिंग्स और पैंगॉन्ग त्सो, तीन मुख्य क्षेत्र हैं, जो अभी भी विवादास्पद हैं.


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सेना प्रमुख एमएम नरवाणे ने इशारा किया है कि सेनाएं एक चरणबद्ध तरीके से अलग हो रही हैं और गलवान में ‘काफी हद तक अलग’ हो भी चुकी हैं. लेकिन अलग होने का मतलब यथास्थिति बहाल हो जाना नहीं है और चीनी अभी उन नई जगहों पर बने हुए हैं, जहां भारतीय गश्ती दलों की गतिविधियों को रोका जाता है. भारत को सुनिश्चित करना है कि गलवान और हॉट स्प्रिंग्स में यथास्थिति बहाल हो, और पैंगॉन्ग त्सो से चीन का नया कब्ज़ा हट जाए. दोनों ओर के सैन्य कमांडर्स के बीच, विवाद को आपसी समझ से सुलझाने के इस तरीके में, कुछ महीने बाद चीन को अपने इसी कदम को, किसी दूसरी जगह दोहराने से रोकने के लिए कुछ नहीं है. ये एक ऐसा मुद्दा है जिससे भारत को कूटनीतिक और राजनीतिक रूप से निपटना होगा और ये मुद्दा भारत को इसका एक अवसर दे रहा है.

चुप रहने का समय नहीं

नरेंद्र मोदी सरकार को एक राजनीतिक रुख अपनाना होगा और मुद्दे को हल्के में लेना बंद करना होगा. इस रुख की बुनियाद इस भरोसे पर टिकी होनी चाहिए कि भारतीय सेना कमज़ोर नहीं है और मामले को तूल देने में वो चीनियों का मुकाबला कर सकती है. लेकिन इसके पीछे राजनीतिक इच्छाशक्ति होनी आवश्यक है. चीन एक बुली है और अगर बड़े वैश्विक संदर्भ में देखें, तो भारत को अपने जोखिम का हिसाब, तुलनात्मक शक्ति पर आधारित करना चाहिए और उनकी ताकत के झांसे में नहीं आना चाहिए. चीन के पास अपनी ही बहुत परेशानियां हैं और भारत के अंदर इतनी क्षमता है कि वो चीन की प्रमुख समस्याओं- ताइवान और साउथ चाइना सी को लेकर, उसकी क्षमता को कमज़ोर कर सकता है. यहां पर मुख्य बात ये है कि प्लेबुक एक दिमाग़ी खेल है.

दिमाग़ी खेल ये है कि चीन चाहता है कि भारत चीन को बॉस मान ले. ख़ाली और दावे/विवाद वाले इलाकों पर कब्ज़ा, जिन पर आमतौर से गश्त तो होती है लेकिन कब्ज़ा नहीं होता, एक ऐसी तरकीब है जिसका इस्तेमाल उसने भारत, भूटान, और साउथ चाइना सी इलाके में, कई दशकों तक किया है. भारत की सियासी चाल ऐसी होनी चाहिए कि उसके इस अमल पर रोक लग जाए.

सैन्य और राजनीतिक दोनों रास्ते हैं जिनका इस्तेमाल किया जाना चाहिए. लेकिन उससे पहले, भारत को ‘इसे हल्का करने के’ अपने रुख में बदलाव करना होगा और ये संदेश देना होगा कि उसे ऐसा रणनीतिक व्यवहार मंज़ूर नहीं है और आपसी रिश्तों पर इसका गंभीर असर पड़ सकता है. कूटनीतिक तंत्रों के माध्यम से चीन तक संदेश पहुंचाए जाने चाहिए कि अपने घरेलू राजनीतिक डाइनामिक्स को देखते हुए, भारतीय नेतृत्व ऐसी शर्तों पर समझौते के लिए तैयार हो सकता है, जो जीत या हार न दिखाएं, लेकिन क्षेत्रीय और वैश्विक भू-राजनीति के बड़े खेल में, वो चीन को नाराज़ करने के प्रति अधिक संवेदनशील हो सकता है. ये चीन है जो अभी तक हमारी पीठ में छुरा घोंपने और हमारी रणनीतिक स्वायत्तता को कमज़ोर करने में, माहिर साबित हुआ है.

एक नए खेल का समय

राजनीतिक वर्ग के लिए एक स्वाभाविक और समझ में आने वाली बात है कि वो ‘चलिए इससे निपट ही लेते हैं’ वाला रुख अपनाएं और फिर भारत के आर्थिक संकट से निपटने में लग जाएं. इस बात की भी बहुत संभावना है कि शायद इसी वजह से चीन ने, भारत की रणनीतिक स्वायत्तता को ऐसे समय कमजोर करने की कोशिश की है, जो उन्हें सही लगता है, क्योंकि वो काफी हद तक कोविड-19 से उबर गए हैं, जबकि ज़्यादातर दुनिया अभी उससे जूझ रही है.


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भारत का रुख स्पष्ट हो रहा है कि वो समझौतों के कम्फर्ट ज़ोन में वापस जा रहा है, जो सिर्फ बैंड-एड का काम करते हैं, और आगे भी इसी तरह के रणनीतिक दुराचार की गुंजाइश छोड़ देते हैं. बहुत समय हो गया कि अब एक स्टैंड लिया जाए. जोखिम चाहे कुछ भी हों, सैन्य, राजनीतिक या आर्थिक, चीनियों के दिमाग में कोई शक नहीं रहना चाहिए कि उत्तरी सीमाओं पर अपनी रणनीतिक सैन्य बढ़त का इस्तेमाल करने से, वैश्विक और क्षेत्रीय मुद्दों पर भारत का राजनीतिक रुख प्रभावित नहीं होगा. चीन को मानसिक रूप से स्वीकार करना होगा कि भारत कभी किसी खेमे में नहीं रहेगा लेकिन संदर्भ और दांव पर लगे मुद्दों को देखते हुए, वो उन्हीं देशों के खेमे में बैठेगा, जिनके साथ उसके साझा हित होंगे. भारत का खेल यही होना चाहिए.

(लेखक तक्षशिला संस्थान बेंगुलुरू के स्ट्रैटेजिक स्टडीज़ प्रोग्राम के निदेशक और राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैनिक सलाहकार हैं. वो ‘द स्ट्रैटेजी ट्रैप: इंडिया एंड पाकिस्तान अंडर द न्यूक्लियर शैडो’ के लेखक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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