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मोदी का मैला ढोने को ‘आध्यात्मिक अनुभव’ बताना और सफाई से प्रज्ञा की हिकारत दोनों एक ही बात है

सच पूछिये तो यह सारा मामला उन श्रेष्ठता ग्रंथियों का है, जिनकी बाबत कभी उम्मीद की जाती थी कि लोकतांत्रिक चेतनाओं के क्रमशः विस्तार के साथ खत्म हो जायेंगी.

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साध्वी प्रज्ञा सिंह की फाइल फोटो | पीटीआई

भारतीय जनता पार्टी की भोपाल की बड़बोली सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने मध्य प्रदेश के सिहोर जिले में पार्टी कार्यकर्ताओं द्वारा उठाई गई सफाई से जुड़ी समस्याएं निपटाने के बजाय ढीठ होकर कह दिया कि वे नाली व शौचालय साफ कराने के लिए सांसद बिल्कुल नहीं बनी हैं, तो उनके नेतृत्व का असहज होना स्वाभाविक ही था. क्योंकि अपनी हेकड़ी के अतिरेक में नालियों और शौचालयों की सफाई के काम को प्रज्ञा जिस हिकारत की निगाह से देख रही थीं, वह प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के महत्वाकांक्षी स्वच्छता कार्यक्रमों तक जाती थी.

यह और बात है कि प्रज्ञा के आपराधिक अतीत के कारण उनके कथन का वह हिस्सा भी विपक्षी दलों की आलोचना से नहीं बच सका, जिसमें उन्होंने कहा था कि जिस काम के लिए वे सांसद बनाई गईं हैं, उसे ईमानदारी से करेंगी. उनके बयान का वीडियो वायरल हुआ तो आम आदमी पार्टी (आप) के राज्यसभा सदस्य संजय सिंह ने ट्विटर पर यह कहकर तंज कसा कि यकीनन, जो करने के लिए वे बनी हैं, उसे उन्होंने किया और उन्हें उसकी सजा नहीं उपहार मिला. स्पष्टतः उनका इशारा बहुचर्चित मालेगांव धमाकों की ओर था, जिनके मामले में प्रज्ञा अभियुक्त हैं.


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अब यह तो कोई बताने की बात भी नहीं कि प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी का ही बूता है कि वे भाजपा और देश दोनों में भांति-भांति के जीवों को एक साथ साध लेते हैं और उनका लाभ भी उठा लेते हैं. तभी तो जहां वे प्रधानमंत्री बनने से भी सात साल पहले बाकायदा पुस्तक लिखकर मैला ढोने को ‘आध्यात्मिक अनुभव’ व संस्कार बताया करते थे और 2014 में प्रधानमंत्री बनने के बाद लाल किले से पहले संबोधन से ही घर-घर शौचालय बनाने पर जोर देते रहे हैं, 2019 में उनकी प्रज्ञा ने दो टूक ऐलान कर दिया है कि वह शौचालयों की सफाई के लिए बनी ही नहीं हैं. अकारण नहीं कि विपक्ष पूछने लगा है कि तब क्या वह बापू के हत्यारे की तारीफ करने के लिए ही बनी हैं?

भाजपा से इसलिए भी इस सवाल का जवाब देते नहीं बन रहा कि उसके कार्यकारी अध्यक्ष जेपी नड्डा और महासचिव (संगठन) बीएल संतोष द्वारा प्रज्ञा को पार्टी मुख्यालय तलब कर यह जताने का भी कोई सुफल सामने नहीं आया है कि नेतृत्व उनके उक्त कथन से खुश नहीं है. पार्टी कार्यक्रमों और विचारों के खिलाफ बयान देने से बचने की उन्हें दी गई नसीहत का असर अगर उसी रूप में दिखना है, जैसा पार्टी कार्यालय से निकलते वक्त मौजूद पत्रकारों से बात नहीं करने के प्रज्ञा के रवैये में दिखा तो साफ है कि उन्होंने अपनी चुप्पी को सफाई देने या क्षमा याचना करने का विकल्प बनाना ही बेहतर लगा है.

कौन जाने कि वह सोच रही हों कि पार्टी नेतृत्व की नाराजगी से उन्हें क्या फर्क पड़ना है, जब प्रधानमंत्री के यह कहने से नहीं पड़ा कि वे बापू के हत्यारे नाथूराम गोडसे की तारीफ के लिए उन्हें कभी दिल से माफ नहीं करेंगे? वे जानती हैं कि उनके राज्य मध्य प्रदेश में पार्टी के वरिष्ठ नेता कैलाश विजयवर्गीय के इंदौर नगर निगम के अफसरों को बैट से पीटने वाले विधायक बेटे आकाश के बारे में भी प्रधानमंत्री ने कहा था कि वह किसी का भी बेटा हो, उस पर कार्रवाई होनी ही चाहिए. मगर कार्रवाई होने को कौन कहे, उसका बाल भी बांका न हुआ.

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‘आप’ सांसद संजय सिंह के ट्वीट के आईने में देखें तो कह सकते हैं कि बहुत संभव है कि हाथी के खाने व दिखाने के अलग-अलग दांतों के अनुसार प्रधानमंत्री की नाराजगी और खुशी भी अपनों के लिए और, गैरों के लिए और होती हो. साथ ही उनकी कुछ चेतावनियां दिखावे के लिए होती हों, जैसी गोरक्षकों के सिलसिले में थीं, और उन पर कार्रवाई की जरूरत न समझी जाती हो.

यों, दूसरे पहलू से देखें तो सफाई के काम के प्रति प्रज्ञा की हिकारत और प्रधानमंत्री का मैला ढोने को आध्यात्मिक अनुभव बताना दरअसल, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. जैसे प्रज्ञा सफाई के लिए नहीं बनी हैं, वैसे प्रधानमंत्री भी उक्त  ‘आध्यात्मिक अनुभव’ से गुजरने के लिए नहीं. यह अनुभव तो उन्होंने मिलकर उन दलित-वंचित जातियों के नाम कर रखा है, उनके स्वच्छता कार्यक्रम ने जिनकी तस्वीरें भी परिदृश्य से बाहर कर दी हैं. इस कार्यक्रम के बाद से सफाई के नाम पर अखबारों में और न्यूज चैनलों पर झाड़ू उठाये नेताओं व अफसरों की ही तस्वीरें दिखाई देती हैं. जैसे सफाई का सारा जिम्मा सचमुच वही निभाते हों.


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किसी को तो पूछना चाहिए उनसे कि तब चांद पर जा रहे इस देश में सारी वैज्ञानिक व तकनीकी प्रगति के बावजूद सीवरों में निहत्थे (यानी किसी भी तरह की सुरक्षा और जरूरी उपकरणों के बगैर) उतरने और जानें गंवाने वालों में कोई उनकी ‘बिरादरी’ का क्यों नहीं होता? (कृपया इसे जातिवादी टिप्पणी की तरह न लें, क्योंकि भाजपा ने अब तक यह स्वीकार नहीं किया है कि प्रज्ञा ने जो कुछ कहा, उसमें जातिवाद का किंचित भी अंश है.)

हां, सांसद के तौर पर प्रज्ञा का कथन उस दौर में थोड़ा सही हो सकता था, जब सांसदों के पास सांसद निधि और उसके उपयोग से जुड़े अनेक व्यवस्थागत अधिकार नहीं थे. लेकिन अब जब सांसदों ने बाकायदा कानून बनाकर ये अधिकार अपने नाम कर लिये हैं, वे कैसे कह सकते हैं कि उनका दायित्व महज संसद में विधायी बहस-मुबाहिसों में भाग लेना, अपने क्षेत्र के लोगों की समस्याएं उठाना और सरकार को सवालों के कठघरे में लाना है? उन्हें जानना और समझना चाहिए कि इस बीच देश की नदियों में बहुत पानी बह गया है और बहुत कुछ बदल गया है.

अलबत्ता, सफाई करने को गंदा या निचले दर्जे का काम मानने की सोच अभी भी नहीं बदली है. देश में राजतंत्र था तो कई बार युद्ध में विजयी राजा पराजित राजा को अपमानित करने के लिए उसके लोगों से यह ‘गंदा’ काम कराया करते थे. इससे पैदा हुई सोच अभी भी मरी नहीं है. कई प्रदेशों के गांवों में बेहतर वेतन के लालच में तथाकथित ऊंची जातियों के लोगों ने सफाईकर्मियों के तौर पर नियुक्तियां भले ही ‘स्वीकार’ कर ली हैं (कई महानुभाव उनके इस ‘स्वीकार’ को किसी बड़ी क्रांति से कम नहीं आंकते) लेकिन अपनी ड्यूटी खुद नहीं बजाते. अपनी एवज में बेहद कम पैसों के बदले इस काम के लिए किसी ‘नीची जाति वाले’ को रख लेते हैं, बस: फिर तो वह ‘आध्यात्मिक’ अनुभवों से गुजरता अपना शोषण कराता रहता है और वे मजे मारते रहते हैं. प्रज्ञा की तरह शायद वे भी सफाई करने के लिए नहीं बने. कराने और वेतन लेने की बात अलग है.

ऐसे में प्रज्ञा के कहे को लेकर भाजपा की असुविधा का हेतु सिर्फ इतना है कि उससे प्रधानमंत्री के स्वच्छता कार्यकम का मखौल उड़ता है, तो उसे पड़ताल करानी चाहिए कि प्रज्ञा को इस मखौल की प्रेरणा कहां से मिली? प्रयागराज में लगे पिछले अर्धकुम्भ के दौरान प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने पांच सफाईकर्मियों के पांव पखारकर उनका सम्मान किया तो क्या प्रकारांतर से वे भी प्रज्ञा वाली बात ही नहीं कह रहे थे- सफाई तुम्हारा काम है और हम जिस काम के लिए बने हैं, उसके तहत तुम्हारे धुले-पुंछे पांव पखार दिये. आगे भी जब जरूरत होगी, पखार दिया करेंगे. कभी मीडिया के कैमरों के लिए और कभी वोट के लिए!


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सच पूछिये तो यह सारा मामला उन श्रेष्ठता ग्रंथियों का है, जिनकी बाबत कभी उम्मीद की जाती थी कि लोकतांत्रिक चेतनाओं के क्रमशः विस्तार के साथ खत्म हो जायेंगी. लेकिन आज के दूषित लोकतांत्रिक चेतनाओं के दौर में उन्होंने रूप व वेश बदलकर अपने लिये नये और पहले से ज्यादा सुरक्षित ठौर-ठिकाने तलाश लिये हैं. उनके लिए अभी भी नये-नये गुल खिलाना इसलिए आसान बना हुआ है कि देश के सत्ताधारी और वर्चस्ववादी समूहों व जातियों के भीतर खुद को श्रेष्ठ मानने का चलन अभी भी इस हद तक मौजूद है कि वे इसके लिए हास्यास्पद और निर्लज्ज होने से भी नहीं डरते.

इस सिलसिले में वरिष्ठ वामपंथी चिंतक सुभाष गाताड़े द्वारा अपनी नई पुस्तक ‘मोदीनामा’ में की गई यह टिप्पणी काबिलेगौर है कि ‘मोदी और भाजपा ने देश का चुनावी नक्शा ही नहीं बदला है, सामाजिक मानदंडों में तोड़-फोड़ की शुरुआत भी कर दी है.’ तभी तो, वे लिखते हैं, ‘सामान्य और सभ्य लोगों के लिए भी हिन्दुत्व के ठेकेदारों की गुंडागर्दी बेमानी हो गई है.’ देखते रहिये, उनके मंसूबे फले तो उनके ‘न्यू इंडिया’ में जो लोग ‘सफाई के लिए बने ही नहीं’, वे बाकियों के लिए इस काम को आध्यात्मिक अनुभव से गुजरने जैसा बताया करेंगे.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, यह लेख उनका निजी विचार है)

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