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अफगानिस्तान में नहीं खत्म हो रहे जंग के हालात, अब IS कबीलाई जंग में जुटा

इस्लामिक स्टेट तालिबान का तख्तापलट की कोशिश में. आर्थिक संकट, सत्ता के बेजा इस्तेमाल पर उठे विवाद और तालिबान के असंतुष्ट गुट उसका मददगार बने.

एक ISIS काफिला (प्रतिनिधि छवि) | ट्विटर/ @Intlatm

कहानियां रक्स-ए-मुर्दा यानी अभी-अभी सिर काटे शवों के ताडंव के किस्सें बताती हैं, जब उन पर खौलता तेल डाला जाता था. 1993 में जब अफगानिस्तानी गुटों में सत्ता की जंग बर्बर कबिलाई लड़ाई में बदल गई तो प्रमुख मुजाहिदीन गुट काबूल में गरीब हजारा लोगों के खिलाफ एकजुट हो गए. कहा जाता है कि कई मर्दों के सिर में कील ठोंककर मार डाला गया, कुछ और को शिपिंग कंटेनरों में जिंदा जला दिया गया. वहां हजारा बहुल अफशार इलाके में हजारों लोगों का कत्ल हुआ.

इधर कुछ महीनों से खासकर शिया हजारा समुदाय के खिलाफ जारी हिंसा से यह आशंका गहर गई कि फिर कत्लेआम के दिन तो नहीं आने वाले हैं. पिछले कुछ दिनों में ही हजारा स्कूली बच्चों पर बम फेंके गए, और मजार-ए-शरीफ में मस्जिद पर हमले हुए और उसके पहले हजारा समुदाय वाले काबुल के इलाके दश्त-ए-बार्ची में कई हत्याएं हुईं.

ऐसे दूसरे समूहों पर भी हमले हुए, जिन्हे इस्लामिक स्टेट और दूसरे इस्लामी गुट विधर्मी मानते हैं. सुन्नी लोक-इस्लाम से जुड़े कुंदुज की एक मस्जिद में जुमे की नमाज के दौरान बम धमाके धार्मिक तथा स्थानीय अल्पसंख्यकों के खिलाफ हमलों के व्यापक रुझान का ही हिस्सा है.

कही-सुनी बातें निशाने की नहीं, तो माहौल बनाने का बहाना बनाई जा रही हैं. इस्लामिक स्टेट अफगानिस्तान में अपनी जमीन तैयार करने के लिए कबिलाई-मजहबी नफरत की भावनाओं को गहरी कर रहा है. उसका मकसद मौजूदा इस्लामी अमीरात का तक्ष्तापलट है और इसमें उसे अफगानिस्तान में भारी आर्थिक तंगहाली, इस्लामी लड़ाकों में घर कर रहे असंतोष और तालिबान में गहरे मतभेदों से मदद मिल रही है.


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इस्लामी स्टेट का जन्म और पुनर्जन्म

काबुल में हजारा मोहल्ले की दीवालों पर 2015 के शुरू से ही पोस्टर चिपकाए जाने लगे कि शिया काफिर हैं. उसी साल मार्च में जेहादी गुट ने एक शिया मस्जिद पर बम से पहला हमला किया, जिसमें एक आदमी की जान चली गई. ऐसे हमले लगभग आम हो गए. जाबुल, बल्ख और गजनी में बम धमाके हुए, ऐसी कुछ वारदातों में औरतें और बच्चे भी मारे गए. 2016 में एक मजहबी जुलूस, एक मस्जिद और एक राजनैतिक प्रदर्शन पर हमले हुए, जो प्रमुख तौर पर हजारा बिरादरी का था.

सीरिया में लड़ाई के लिए पहला अफगान जत्था तकरीबन 2012 में रवाना हुआ. उसमें तालिबान और उसके पाकिस्तानी संस्करण तहरीक-ए-तालिबान पाकिस्तान या टीटीपी के लोग थे. मसलन, टीटीपी नेता हफीज सईद खान ने अल-नुस्रा देश में अल कायदा से जुड़े संगठन के साथ लडऩे के लिए 100 वोलेंटियर को रवाना किया. अफगानिस्तान इस्लामी अमीरात के वस्तुत: दूसरे नंबर के नेता सेराजुद्दीन हक्कानी ने भी कुछ सौ वोलंटियर रवाना किए थे.

अफगान खुफिया एजेंसियों ने 2014 के आखिर में यह रिपोर्ट देनी शुरू की कि इस्लामिक स्टेट ने कुनार में अपने खुद के ट्रेनिंग कैंप बना लिए हैं और फराह तथा नांगरहार जैसे इलाकों में लडक़ों के छोटे-छोटे दल भेजे हैं. हजारा बिरादरी पर हमले 2018 में तेज हो गए. काबुल  में हजारा बिरादरी से जुड़े संस्थानों पर घातक हमले हुए, जिनमें एक कुश्ती का अखाड़ा और एक ट्यूशन सेंटर भी था.

हालांकि उसके बाद इस्लामिक स्टेट का अभियान खत्म हो गया. विद्वान अफसंदयार मीर ने लिखा, वजह थी ‘तीन तरफ अमेरिकी फौज, पूर्व अफगान सरकार और अफगान तालिबान की ओर से हमले.’

फिर, अफगान गणतंत्र जब बिखरने लगा तो इस्लामी स्टेट की हिंसा में तेजी आई. मई 2021 में सईद-उल-शुहादा हाइस्कूल पर हमले में 85 लोग मारे गए. अगस्त में एयरपोर्ट में फिदायीन हमले में 70 से ज्यादा लोग मारे गए. उसमें वह शख्स शामिल था जो कभी नोएडा में इंजीनियरिंग का छात्र था और उसे भारत के खिलाफ हमलों की साजिश रचने के लिए पकड़ा गया था लेकिन बादमें तालिबान ने उसे छोड़ दिया था. अक्टूबर में कुंदुज में गोजार-ए सईदाबाद की मस्जिद में एक फिदायीन हमले में 80 नमाजी मारे गए थे. उसके एक हफ्ते बाद दो फिदायीन ने कंधार की बीबी फातिमा मस्जिद में खुद को उड़ा लिया, जिसमें 40 से ज्यादा लोग मारे गए.

पिछले साल संयुक्त राष्ट्र के विशेष प्रतिनिधि डेबोराह लियोन ने दर्ज किया कि लगता है, इस्लामिक स्टेट ‘अब लगभग सभी प्रांतों में मौजूद है और लगातार सक्रिय है.’ उन्होने दर्ज किया कि पिछले साल इस्लामिक स्टेट के हमले तीगुने से ज्यादा हो गए, जिससे अचानक उसकी काबिलयित में इजाफे का पता चलता है.

इस्लामिक स्टेट की ताकत बढऩे की सियासत

बाकी बातों के अलावा इस्लामिक स्टेट के फिर जी उठने की वजहों में कुछ हद तक सियासत का लेनादेना है. तालिबान की फौजी जीत की अगुआई तथाकथित सेराजुद्दीन हक्कानी के पूर्वी तालिबान ने की, जिसके टीटीपी और अल कायदा तथा इस्लामिक स्टेट के तत्वों से दश्कों पुराने संबंध रहे हैं. सेराजुद्दीन हक्कानी के भाई अनस हक्कानी और उनके चाचा खलील-उर-रहमान हक्कानी ने पिछले साल अफगान गणतंत्र के खात्मे में प्रमुख भूमिका निभाई थी.

हालांकि नई इस्लामी अमीरात  सरकार में उन शसियतों का दबदबा है, जो 9/11 के पहले ओहदों पर थे. ये खासकर दक्षिण अफगानिस्तान के हैं. हेलमंड के रहने वाले तालिबान  रक्षा मंत्री अब्दुल कयूम जाकिर पहली अमीरात सरकार में थे. इसी तरह गृह मंत्री इब्राहिम सद्र, वित्त मंत्री गुल अखा इशकजई और दूसरे कई भी थे.

विद्वान डॉन रैसलर और वाहिद ब्राउन ने लिख कि पाकिस्तान  के आइएसआइ की मदद से 1970  के दशक में स्थापित लड़ाके सिराजुद्दीन हक्कानी के नेटवर्क ने अफगानिस्तान और उत्तर-पश्चिम पाकिस्तान में जेहादी मुहिम की नींव रखी. उनकी हैसियत अकोरा खट्टक के मदरसे पर उनके नियंत्रण से पता चलती है,  जो अरब और दूसरे देशों के जेहादियों का केंद्र था.

विद्वान थॉमस रुट्टिग ने दर्ज किया है कि हक्कानी की जेहादी साख के बावजूद पहली अमीरात सरकार में ज्यादा अहमियत नहीं दी गई. उनका असर पक्टिका, पक्तिया और खोस्त प्रांतों में ही केंद्रीत था. तालिबान के दिग्गज मुल्ला मुहम्मद उमर के करबी कंधारियों ने हक्कानियों को दूर ही रखा. इसके अलावा पूर्वी कबीले अमूमन दो सबसे बड़े पख्तून कबीलों दुर्रानी और गिलजई से भी नहीं जुड़े हैं.

येलेना बीबरमैन और जारेड स्चवार्ट्ज ने लिखा है कि दोनों गुटों के बीच तनाव कम से कम 2016 से है, जब तालिबान अमीर हिबतुल्लाह अखुंदजादा ने तालिबान ताकतों की कमान हक् कानी और मुहम्मद याकूब में बांट दी. याकूब मारे गए पहली अमीरात के दिग्गज मुल्ला मुहम्मद उमर के बेटे हैं. इससे हक्कानियों का फौज पर नियंत्रण नहीं रहा, जिसके वे प्रमुख हिस्से थे. लिछले साल विक्षन अंतोनियो गुइसतोजी ने चेताया था कि अगर सत्ता में वाजिब हक की पूर्वी तालिबान की मांग नहीं मानी गई तो वह चुपचाप इस्लामिक स्टेट की मदद करेगा.

इस्लामिक स्टेट को बड़ी संख्या में उन निराश नौजवान जेहादियों का भी समर्थन है, जिन्होंने महसूस किया है कि काबुल की सत्ता के पतन से सफेद बाल वाले ताबिान को तो ओहदे और हैसियत मिल गई लेकिन बाकी लोगों को कुछ हासिल नहीं हुआ. ऐसे नौजवानों के लिए इस्लामिक स्टेट लगातार जंग और इस तरह रोजगार की पेशकश कर रहा है.

अफगानिस्तान में नफरत का इतिहास

इतना तो आईने की तरह साफ है कि हजारा लोगों की हत्या इस्लामिक स्टेट की खोज नहीं है. 1998 में मजार-ए-शरीफ में जब हजारा लोगों का कत्लेआम चल रहा था, बल्ख प्रांत के गवर्नर, तालिबान कमांडर मुल्ला अब्दुल नियाजी तालिबान ने कहा था, ‘हजारा, तुम कहां छुपोगे. तुम हवा में उछलोगे तो हम तुम्हारी टांग पकड़ लेंगे, अगर जमीन में छुपोगे तो हम तुम्हारा कान पकड़ लेंगे. हजारा मुसलमान नहीं हैं. तुम उन्हें मार सकते हो. यह पाप नहीं है.’ तालिबान कमांडरों ने उन्हें चारागाहों से भगा दिया, उनके घर कब्जा लिए और सैकड़ों को बंधक बना लिया.

आधुनिक अफगान राज्य के संस्थापक अमीर अब्द-अल-रहमान खान ने उन्नीसवीं सदी में हजारा बागियों का बेरहमी से सफाया किया, उनकी जीमन पर पख्तुन कबीलों को बसाया, और हजारों को गुलाम बना लिया.

शुरू से ही इस्लामिक स्टेट के नेता अपना दबदबा कायम करने के लिए स्थानीय धार्मिक खाइयों को भुनाना शुरू किया. इराक में इस्लामिक स्टेट की नींव रखने वाले अफगानिस्तान में ट्रेनिंग पाए अहमद फदील अल-खालयलेह ने फरवरी 2014 की चिठ्ठी में शियाओं को ‘फन उठाया सांप, विषैला विच्छू, दुश्मन का जासूस और जहरबुझा’ बाताया था.

ऐसी सियासत का अपना दायरा है. 9/11 के बाद हजारा बिरादरी ने शिक्षा और रोजगार के फायदे हासिल किएङ इससे ग्रामीण पख्तून एलीट में नाराजगी उपजी. जमीन और सिंचित भूमि को लेकर पहले से विवाद थे. फिर, काबूल के उदार शहरी माहौल में हाजारा औरतों की कुछ ऊंची हैसियत से तालिबान के समर्थकों में डर और जलन पैदा हुई.

हजारा विरोधी मुहिम के पीछे सत्ता-संघर्ष असल में क्या शक्ल लेता है, यह अभी साफ नहीं है. इस्लामिक स्टेट की जड़ में मार डालने के तालिबान की जोरदार कार्रवाइयों से पूर्वी नंगारहार क्षेत्र में कई हत्याएं हुईं. ओवेद लोबेल ने लिख है, इस्लामिक स्टेट को जैसा बरताव मिला, वह यानी इस्लामी अमीरात के अफसरशाहों और अधिकारियों को निशाना बनाकर उसी तरह जवाब दे रहा है.

अफगानिस्तान में लगातार जारी जंग खत्म होने का नाम नहीं ले रही है.

(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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