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पंजाब कांग्रेस में कलह की वजह सिद्धू या अमरिंदर सिंह नहीं, बल्कि इसका संबंध गांधी परिवार से है

गांधी परिवार के वंशजों ने अपना निर्विवाद वर्चस्व कायम करने का निश्चय कर लिया है, इसलिए उनके निंदक अब सावधान होकर रास्ते पर आ जाएं या चलते बनें

कांग्रेस नेता प्रियंका गांधी और राहुल गांधी की फाइल फोटो । फोटोः सूरज सिंह

क्या कांग्रेस पार्टी के प्रथम परिवार ने नवजोत सिंह सिद्धू की खातिर पंजाब के मुख्यमंत्री और राजीव गांधी के दून स्कूल वाले मित्र रहे कैप्टन अमरिंदर सिंह का रुतबा कम करने की खुली कोशिश की? क्या गांधी परिवार को यह लगता है कि अगली फरवरी में राज्य विधानसभा के चुनाव में कैप्टन सिंह की जगह, क्रिकेटर से राजनेता बने सिद्धू पर दांव लगाना बेहतर होगा?

वास्तव में यही वजह नहीं है. मामला सिद्धू या सिंह से जुड़ा नहीं है. मामला गांधी परिवार और पार्टी में नयी जान फूंकने के लिए रचनात्मक तोड़फोड़ के उसके फॉर्मूले से जुड़ा है, भले ही परिवार के बाहर वालों को यह फॉर्मूला कितना ही विवेकहीन और दुराग्रही क्यों न लगे.

आइए, पहले हम पंजाब में गांधी भाई-बहन की चाल को समझने की कोशिश करें. राज्य में विपक्षी दल जबकि बिखरे हुए और लस्तपस्त नज़र आ रहे हैं, गांधी परिवार ने सोचा-समझा जोखिम मोल लिया है, बल्कि कहें कि एक जुआ खेल दिया है. लगता है, यह परिवार जरूर यह मान कर दांव लगा रहा है कि सिंह अपनी अवमानना को विनम्रता से स्वीकार कर लेंगे. आखिर, 79 साल की उम्र में उनमें लड़ने का कितना माद्दा रह गया होगा? इस उम्र में एक नयी पारी शुरू करना आसान नहीं होता. क्या वे आगामी सप्ताहों या महीनों में अपने या सिद्धू के साथ जुड़ने वालों पर भरोसा कर सकते हैं? सिंह जैसे अनुभवी नेता इस स वाल का जवाब बेहतर जानते होंगे.

राजनीति करने वाले लोग उगते सूरज— इस मामले में सिद्धू—को हो सलाम किया करते हैं. हालांकि सिंह ने साफ कर दिया है कि वे कांग्रेस आलाकमान के फैसले को कबूल करेंगे, लेकिन आलाकमान ने सबसे बुरे परिदृश्य पर, यानी सिंह और कुछ असंतुष्ट विधायकों और सांसदों द्वारा बगावत, भी जरूर विचार किया होगा. अगर ऐसा होता है तो सबसे बुरा यह हो सकता है कि 2022 में पंजाब में कांग्रेस की जीत जो अभी पक्की दिख रही है वह हार में बदल जाएगी. ऐसा लगता है कि कांग्रेस आलाकमान एक और राज्य को गंवाने के लिए तैयार है.

इस तरह, हम मूल मुद्दे पर पहुंचते हैं कि पंजाब में जो यह पूरी राजनीतिक कलह चल रही है उसका ताल्लुक सिद्धू या सिंह से नहीं बल्कि गांधी परिवार से क्यों है.

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लगता है, गांधी भाई-बहन ने फैसला कर लिया है कि 1998 से उनकी मां सोनिया गांधी जिस तरह की राजनीति— असंतुष्टों से बातचीत करके, समझा-बुझाकर सुलह करने की राजनीति— करती आ रही हैं उससे उन्हें अलग रास्ता अपनाना है. वह दौर पिछले नवंबर में सोनिया के मुख्य सलाहकार अहमद पटेल के निधन के साथ शायद समाप्त हो गया है. वे जब तक पटेल की सलाहों पर निर्भर रहीं तब तक उन्होंने राहुल गांधी को पार्टी में ‘सिस्टम’ यानी पुराने नेताओं के खिलाफ अपनी चिढ़ को जाहिर करने से रोके रखा. पटेल पुराने नेताओं को अपनी हताशा और अधीरता पर लगाम लगाए रखने के लिए समझा-बुझा लिया करते थे. इसलिए, जब तथाकथित ‘जी-23’ गुट ने पार्टी की हालत पर हताशा व्यक्त करते हुए सोनिया को पत्र लिख डाला तो राहुल ने उन्हें शक्ति परीक्षण न करने के लिए मना लिया.

लेकिन भाई-बहन अब शक्ति परीक्षण के लिए तैयार हैं क्योंकि उन्हें पता है कि पार्टी संगठन के— जिसने उन्हें अपनी पसंद के लोगों को प्रमुख पदों पर बैठाने में मदद की— अलावा ‘टीआईएनए (टीना)’ (यानी दियर इज़ नो ऑल्टरनेटिव, दूसरा कोई विकल्प नहीं) में कांग्रेसियों की आस्था उनके निष्कासन को असंभव बनाती है. कांग्रेस नेताओं का एक खेमा इस प्रथम परिवार को भले चुनावों के दौर में बोझ मानता हो, लेकिन इस परिवार की जड़ें गहरी धंसी हुई हैं.

इस भरोसे के साथ गांधी सहोदरों ने निर्णायक दांव खेलने, अपना निर्विवाद वर्चस्व कायम करने का फैसला कर लिया है. अब आलोचकों या असंतुष्टों को रास्ते पर आना ही होगा या चलते बनना होगा. पंजाब में कोई अमरिंदर सिंह, या राजस्थान में कोई अशोक गहलोत या हरियाणा में कोई भूपिंदर सिंह हुड्डा, केरल में कोई उम्मन चंडी, कर्नाटक में कोई सिद्धरमैया, जम्मू-कश्मीर में कोई गुलाम नबी आज़ाद, मध्य प्रदेश में कोई दिग्विजय सिंह, या दिल्ली में कोई कपिल सिब्बल यह फैसला नहीं कर सकते कि पार्टी के लिए अच्छा क्या है और बुरा क्या. गांधी परिवार ही कांग्रेस है जिसकी तक़दीर उसके साथ ही जुड़ी रहनी चाहिए. गांधी सहोदर चाहते हैं कि यह संदेश पंजाब से होकर दूसरे राज्यों में भी जाए. सोनिया अब रास्ते में नहीं आएंगी. उन्हें अब पारिवारिक कंपनी, कांग्रेस को अपने बच्चों के हवाले करके उन्हें इसका एकमात्र स्वामी बना देना है.


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वफ़ादारी की नयी परिभाषा

पुराने, अनुभवी कांग्रेस नेता अगर यह सोचते हैं कि कांग्रेस की विचारधारा या राजनीति के प्रति दशकों की अपनी वफादारी, और अपने जनाधार के कारण पार्टी में उनकी हैसियत मुकम्मल है, तो वे मुगालते में हैं. इस तरह की वफादारी का गांधी सहोदरों के लिए बहुत मोल नहीं है.

जरा उन नामों पर नज़र डालिए जिन्हें प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनाया गया है. राहुल आरएसएस की विचारधारा के खिलाफ भले जहर उगलते रहे हों, लेकिन उन्हें अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद (एबीवीपी) के कभी कार्यकर्ता रहे रेवंत रेड्डी को तेलंगाना में पार्टी की कमान सौंपने में कोई हिचक नहीं हुई. रेड्डी 2017 में कांग्रेस में शामिल हुए थे. पंजाब कांग्रेस के नये अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू 13 साल भाजपा में रहने के बाद 2017 में उससे अलग हुए ताकि आम आदमी पार्टी (आप) या कांग्रेस के जरिए मुख्यमंत्री बनने का अपना सपना सच कर सकें. आप के संयोजक अरविंद केजरीवाल किसी और को एक पूर्ण राज्य का मुख्यमंत्री नहीं बनने दे सकते थे इसलिए सिद्धू कांग्रेस में शामिल हो गए. नाना पटोले 2018 में भाजपा से निकलकर कांग्रेस में आए; और तीन साल बाद ही उन्हें महाराष्ट्र कांग्रेस का अध्यक्ष बना दिया गया. इसलिए, कांग्रेस के अनुभवी नेताओं को यह मुगालता नहीं पालना चाहिए कि विचारधारा और पार्टी के प्रति उनकी वफादारी उनके लिए कवच का काम करेगी, जिसे पहनकर वे पार्टी को चलाने की राहुल की शैली पर सवाल उठा सकते हैं.

उन्हें जान लेना चाहिए कि पार्टी में ‘लोकतंत्र’ बहाल करने में राहुल की रुचि नहीं रह गई है, हालांकि 2007 में पार्टी महासचिव बनने के समय यही उनका पहला लक्ष्य था. अब वे एक बड़े लक्ष्य के लिए काम कर रहे हैं, पार्टी में ‘सिस्टम’ को ध्वस्त करने के लक्ष्य के लिए. 2013 में पार्टी उपाध्यक्ष बनने के बाद अपने पहले भाषण में उन्होंने ‘नेतृत्व विकास’ पर ज़ोर देने की बात की थी ताकि ‘अगले पांच-छह वर्षों में’ ’40-50′ ऐसे नेता तैयार किए जा सकें जो देश को चला सकें, और हर राज्य में ‘5-6-7-10’ ऐसे नेता तैयार किए जा सकें जो मुख्यमंत्री बन सकें.

लेकिन छह साल बाद 2019 में कांग्रेस लोकसभा में केवल 52 सांसद ही ला सकी और वे देश को चलाने का मौका नहीं पा सके. अब जबकि पार्टी को भविष्य में नरेंद्र मोदी का जलवा फीका पड़ने का इंतजार करना होगा, लगता है कि राहुल ने हर राज्य में मुख्यमंत्री बनने लायक ‘5-6-7-10’ नेता तैयार करने के अपने अगले लक्ष्य पर ध्यान देना शुरू कर दिया है. और पंजाब में सिद्धू शायद इस जमात के पहले उम्मीदवार हैं.

(व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस खबर को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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