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हिंदू परिवारों की अविवाहित बेटियों को माता पिता से अपनी शादी के खर्च की मांग का अधिकार कितना व्यावहारिक है

हिन्दू दत्तक और भरण पोषण कानून, 1956 की धारा 20 (3) के तहत व्यक्ति की अपने बच्चों,  बुर्जुगों और बेटी, जो अविवाहित है और अपनी देखभाल करने में सक्षम नहीं है, की देखभाल की जिम्मेदारी निर्धारित की गई है.

प्रतीकात्मक तस्वीर | फोटो: pxhere.com

अनेक न्यायिक व्यवस्थाओं में कहा गया है कि दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 और हिन्दू दत्तक और भरण पोषण कानून के तहत अविवाहित बेटियां अपने माता पिता से गुजारा भत्ता पाने की हकदार हैं. इन कानूनों के तहत अविवाहित बेटियों को माता पिता से गुजारा भत्ता मिलता भी है.

हिन्दू दत्तक और भरण पोषण कानून धारा 3 (बी)(ii) के तहत अविवाहित बेटियों को माता पिता से अपनी शादी के खर्च की मांग के अधिकार पर न्यायिक मुहर लगने के बाद से एक नई बहस शुरू होने की संभावना बलवती हो गयी है.

बहस का मुद्दा हो सकता है कि आधुनिक परिवेश में अपरिहार्य कारणों से अविवाहित रह गई बेटी अचानक ही अपने वृद्ध माता पिता से अपनी शादी पर होने वाले खर्च के भुगतान की मांग करके उन्हें अदालत में घसीट ले भले ही उसके माता पिता पुत्री की देखभाल करते रहे हों. जरा कल्पना कीजिए की ऐसी स्थिति में सीमित संसाधनों से जीवन व्यतीत करने वाली माता पिता की वृद्धावस्था में क्या स्थिति होगी?

क्या वे अविवाहित बेटी द्वारा विवाह के खर्च के रूप में मांगी गई राशि देने में सक्षम होंगे और आज के दौर में विवाह के न्यूनतम खर्च की राशि क्या हो सकती है? कानून की धारा 3 (बी)(ii) के अनुसार अविवाहित पुत्री के मामले में विवाह की राशि युक्तिसंगत और प्रासंगिक होगी लेकिन यह कितना व्यावहारिक होगा, विचारणीय मुद्दा हो सकता है.

यह सही है कि न्यायपालिका ने महिलाओं के हितों की रक्षा के लिए हिन्दू समाज से संबंधित कानूनों की व्याख्या करके हिंदू परिवारों में पैतृक और पिता की संपत्ति में बेटियों के अधिकारों का विस्तार किया है. यही नहीं, अवैध संतानों के लिए भी अनुकंपा के आधार पर नौकरी का रास्ता साफ किया है.

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लेकिन अचानक ही, अब अविवाहित बेटियों को माता पिता से अपनी शादी के खर्च का दावा करने अधिकार सुर्खियों में है. पहले भी कुछ न्यायिक व्यवस्थाओं में कहा गया था कि हिन्दू परिवारों में अविवाहित बेटियां माता पिता से अपनी शादी का खर्च मांगने की हकदार हैं और हाई कोर्ट ने इस संबंध में ऐसी बेटियों के पक्ष में फैसले भी दिये थे परंतु उनकी ज्यादा चर्चा नहीं हुई थी.


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हाल ही में छत्तीसगढ़ हाई कोर्ट का ऐसा ही एक फैसला चर्चा में है. हाई कोर्ट में न्यायमूर्ति गौतम भादुड़ी और न्यायमूर्ति संजय एस अग्रवाल की पीठ ने राजेश्वरी और भुनु राम प्रकरण में अपनी व्यवस्था में कहा कि हिन्दू दत्तक और भरण पोषण कानून की धारा 3 (बी)(ii) में विवाह का खर्च भी शामिल है.

इस मामले में दुर्ग जिले की रहने वाली 35 वर्षीय राजेश्वरी ने कुटुंब अदालत में हिन्दू दत्तक और भरण पोषण कानून के तहत एक मामला दायर करके अपने पिता से विवाह खर्च के रूप में 20 लाख रुपए दिलाने का अनुरोध किया था. हालांकि कुटुंब अदालत ने सात जनवरी, 2016 को उसका आवेदन खारिज करते हुए कहा था कि इस कानून के तहत पुत्री अपने विवाद के खर्च की राशि का दावा नहीं कर सकती.

अंतत: मामला हाई कोर्ट पहुंचा जहां उसने 21 मार्च को अपने आदेश में कहा कि इस कानून के तहत अविवाहित पुत्री अपने माता पिता से शादी के खर्च की राशि का दावा कर सकती है. इस व्यवस्था के साथ ही मामला वापस कुटुंब अदालत के पास भेज दिया.

हाई कोर्ट ने यह  व्यवस्था देते हुए आर दुरैराज और सीतालक्ष्मी अम्मल मद्रास हाई कोर्ट के फैसले का भी उल्लेख किया जिसमें कहा गया था कि भरण पोषण राशि में विवाह खर्च भी शामिल है और कुटुंब अदालत का आवेदन खारिज नहीं करना चाहिए था.

पुत्री का तर्क था कि भिलाई स्टील संयंत्र में कार्यरत उसके पिता भुनु राम को सेवानिवृत्त होने पर करीब 55 लाख रुपए मिलेंगे, अत: उसमे इसमें से 20 लाख रुपए विवाह खर्च के रूप में दिलाये जायें.

अविवाहित बेटियों के माता पिता से अपनी शादी पर होने वाली खर्च की मांग के अधिकार पर केरल हाई कोर्ट भी 2018 में सही ठहरा चुका है. उच्च न्यायालय की खंडपीठ ने जनवरी, 2018 में कोयंबटूर की अंबिका अरविंदक्षण के मामले में यह व्यवस्था दी थी.

इस मामले में 25 वर्षीय अविवाहित युवती ने अपने विवाह के खर्च की मांग के लिए दायर आवेदन पालक्कड़ की कुटुंब अदालत से अस्वीकार होने के बाद हाई कोर्ट में याचिका दायर की थी.

हाई कोर्ट ने कुटुंब अदालत का आदेश निरस्त करते हुए कहा था कि भले ही मां की आमदनी हो और वह अपनी बेटी की देखभाल कर रही हो, फिर भी कानूनी रूप से वह अपने पिता से गुजारा भत्ते की मांग कर सकती है और पिता अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकता था.

हाई कोर्ट ने हालांकि इस अविवाहित युवती को विवाह खर्च के रूप में पांच लाख रुपए का दावा स्वीकार नहीं किया और पिता को मौजूदा परिस्थितियों में उसे एक लाख रुपए देने का आदेश दिया था.

हिन्दू दत्तक और भरण पोषण कानून, 1956 की धारा 20 (3) के तहत व्यक्ति की अपने बच्चों,  बुर्जुगों और बेटी, जो अविवाहित है और अपनी देखभाल करने में सक्षम नहीं है, की देखभाल की जिम्मेदारी निर्धारित की गई है.

लेकिन, इस कानून की धारा 3 (बी) (ii) में स्पष्ट किया गया है कि अविवाहित पुत्री की स्थिति में उसके विवाह के युक्तियुक्त और प्रासंगिक व्यय भी शामिल हैं.

इसी तरह, सुप्रीम कोर्ट ने अपनी व्यवस्थाओं में स्पष्ट किया है कि पिता का निधन होने पर उसकी स्वअर्जित और अन्य संपत्ति में हिन्दू उत्तराधिकार कानून में 2005 से लागू संशोधन के अनुसार पिता की संपत्ति की बेटी का हिस्सा भाई के अधिकार के समान ही होगा भले ही उसका जन्म नौ सितंबर, 2005 से पहले ही क्यों नहीं हुआ हो.

सुप्रीम कोर्ट की न्यायमूर्ति अशोक भूषण,  न्यायमूर्ति आर सुभाष  रेड्डी और न्यायमूर्ति एम आर शाह  की तीन सदस्यीय पीठ ने सितंबर 2020 में अभिलाषा और प्रकाश और अदर्ज़ प्रकरण में कहा कि अविवाहित हिन्दू पुत्री शादी होने तक अपने पिता से भरण पोषण की मांग कर सकती है बशर्ते वह यह सिद्ध करे कि वह स्वयं अपनी देखभाल करने में असमर्थ है. हालांकि, इस अधिकार का इस्तेमाल करने के लिए उसे दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 की बजाये हिन्दू दत्तक और भरण पोषण कानून, 1956 की धारा 20(3) के तहत वाद दाखिल करना होगा.

पीठ ने यह भी स्पष्ट किया कि हिन्दू दत्तक और भरण पोषण कानून की धारा 3 (बी) पूरी तरह से भरण पोषण को परिभाषित करता है जिसमे विवाह का खर्च भी शामिल है.

इस मामले में रेवाड़ी की रहने वाली अविवाहित पुत्री ने न्यायिक मजिस्ट्रेट के 2011 के आदेश को चुनौती दी थी जिसमे उसे दंड प्रक्रिया संहिता की धारा 125 के तहत गुजारा भत्ता प्रदान किया गया था.

उम्मीद की जानी चाहिए कि हिन्दू दत्तक तथा भरण पोषण कानून की धारा 3 (बी)(ii) के तहत अदालतों में विवाह खर्च की मांग को लेकर अविवाहित हिन्दू पुत्रियों के दावों की बाढ़ नहीं आयेगी. अगर ऐसा होता है तो न्यायालय को माता पिता की वर्तमान आर्थिक स्थिति को भी ध्यान में रखने की आवश्यकता होगी क्योंकि संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत उन्हें भी गरिमा के साथ जीवन व्यतीत करने का अधिकार है.

(लेखक वरिष्ठ पत्रकार हैं जो तीन दशकों से शीर्ष अदालत की कार्यवाही का संकलन कर रहे हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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