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सर सैय्यद की महानता का मिथक: साम्प्रदायिक आधार पर अलग प्रतिनिधित्व की आवाज उठाकर द्विराष्ट्र सिद्धांत की नींव रखी

यह सर्व विदित है कि सर सैयद ने सर्व प्रथम साम्प्रदायिक आधार पर अलग प्रतिनिधित्व की आवाज उठाकर द्विराष्ट्र सिद्धांत की नीव रखी जिस पर मोहम्मद अली जिन्ना और अल्लामा इकबाल ने पाकिस्तान की इमारत का निर्माण किया.

सर सैयद अहमद खान की फाइल फोटो | कॉमन्स

यह एक बड़ी विडंबना ही कहा जायेगा कि हर वर्ष सर सैय्यद के जन्मदिन पर, जहां एक ओर पाकिस्तान में सर सैय्यद को कौम का मसीहा, पाकिस्तान का जनक और राष्ट्र पिता का दर्जा देकर महिमा मण्डन किया जाता है, तो वहीं दूसरी ओर भारत में राष्ट्रवादी, देशभक्त, हिन्दू मुस्लिम एकता का प्रतीक, लोकतंत्र की आवाज, शिक्षाविद आदि कह कर महिमा मण्डन किया जाता है, यह दोनो बातें परस्पर विरोधी हैं वैसे ही जैसे रात और दिन का भेद हैं.

द्विराष्ट्र सिद्धांत के जनक

यह सर्व विदित है कि सर सैयद ने सर्व प्रथम साम्प्रदायिक आधार पर अलग प्रतिनिधित्व की आवाज उठाकर द्विराष्ट्र सिद्धांत की नीव रखी जिस पर मोहम्मद अली जिन्ना और अल्लामा इकबाल ने पाकिस्तान की इमारत का निर्माण किया.

सर सैय्यद के लोकतंत्र विरोधी विचार

सर सैय्यद किताब असबाबे बगवाते हिन्द में लिखते हैं..

‘सच है कि हक़ीक़ी बादशाहत( सच्चा राजपाठ) खुदा ताला का है जिसने सारी सृष्टि को पैदा किया, लेकिन अल्लाह ताला ने अपनी हक़ीक़ी बादशाहत के प्रतिरूप के तौर पर इस दुनिया में राजाओं को पैदा किया, ताकि उसके बंदे इस प्रतिरूप से अपने सच्चे बादशाह को पहचान कर उसका धन्यवाद ज्ञापित करें. इसलिए बड़े बड़े दार्शनिकों और बुद्धिजीवियों ने यह बात ठहराई है कि जैसा उस सच्चे बादशाह के गुण, दानशीलता, उदारता, कृपा है, उसी का नमूना इन सांसारिक राजाओं में भी होना चाहिए, यही कारण है कि बड़े-बड़े बुद्धिजीवियों ने बादशाह को ज़िल-ले-इलाही (अल्लाह की छाया) बताया है.’

मसूद आलम फलाही द्वारा लिखित ‘हिन्दुस्तान में जात पात और मुसलमान’ से कुछ उद्धरण देखें, जैसे 28 दिसम्बर, 1887 में लखनऊ में ‘मोहम्मडन एजुकेशनल कॉन्फ्रेंस’ की दूसरी सभा में सर सैय्यद ने कहा कि ‘जो नीच जाति के लोग हैं वो देश या सरकार के लिए लाभदायक नहीं हैं जबकि ऊंचे परिवार के लोग रईसों का सम्मान करते हैं साथ ही साथ अंग्रेजो का सम्मान तथा अंग्रेज़ी सरकार के न्याय की छाप लोगों के दिलों पर जमाते हैं, वह देश और सरकार के लिए लाभदायक हैं.’

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एक जगह और कहते हैं ‘क्या हमारे देश के संभ्रांत वर्ग यह पसंद करेगें कि नीचे स्तर का व्यक्ति भले ही वो बीए की डिग्री लिया हो या एमए की और वह योग्य भी हो, उन पर बैठ कर शासन करे उनके धन दौलत संपत्ति और सम्मान पर शासक हो? कभी नहीं, कोई एक भी पसंद नहीं करेगा.

उपर्युक्त विवरण से उनके अलोकतांत्रिक विचार को आसानी से समझा जा सकता है.

हिन्दू-मुस्लिम एकता पर विचार

निम्नलिखित उद्धरण से उनके हिन्दू मुस्लिम एकता के प्रतीक होने का मिथक तो टूटता ही है साथ में यह भी पता लगता है कि वो हिन्दू और मुसलमान को दो अलग अलग राष्ट्र समझते थे. लिखते हैं, ‘अगर उन्हीं दोनो क़ौमों की पलटन इस तरह बनती कि एक पलटन केवल हिन्दुओं की होती जिसमें कोई मुसलमान ना होता, और एक पलटन सिर्फ मुसलमानों की होती जिसमें कोई हिन्दू ना होता, तो ये आपस की एकता और भाईचारा होने ही नहीं पाती और वही तफरका (भेदभाव,भेद) बना रहता और मेरा विचार है कि शायद मुसलमान पलटनों को नए कारतूस काटने में कोई आपत्ति ना होता.’ (पेज न० 52,असबाबे बगवाते हिन्द)


यह भी पढ़ें : ‘अशराफ बनाम पसमांदा’- जातिगत भेदभाव से जूझ रहे मुस्लिमों में कैसे जारी है सामाजिक न्याय का संघर्ष


प्रथम स्वतंत्रता संग्राम पर विचार

सर सैय्यद ने प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को हरामजदगी (फसाद, विप्लव) कहा है और इसका ज़िम्मेदार तथाकथित लोअर जाति के मुसलमानों को माना है लिखते है कि ‘जुलाहों का तार तो बिल्कुल टूट गया था, जो बदज़ात (बुरी जाति वाले) सब से ज़्यादा इस हंगामे में गर्मजोश (उत्साहित) थे.’

क्या सर सैय्यद सारे मुसलमानों के शिक्षा के लिए चिंतित थे?

तथ्यों से ऐसा प्रतीत होता है कि वह केवल अशराफ वर्ग के पुरुषों को ही शिक्षित करना चाहते थे. मसूद आलम फलाही अपनी किताब ‘हिंदुस्तान में जात पात और मुसलमान‘ में लिखते हैं, 20 अप्रैल 1894 को जालंधर में महिला शिक्षा पर बोलते हुए उन्होंने(सर सैय्यद) कहा कि ‘मैं लड़कियों को स्कूल भेजने के विरुद्ध हूं, पता नहीं किस प्रकार के लोगों से उन की संगत होगी!’

एक जगह और कहते हैं कि महिलाओं की शिक्षा उनका अच्छा व्यवहार, अच्छी आदतें, घर के काम काज, बुज़ुर्गों का अदब, पति से प्रेम, बच्चों की परवरिश, धर्म की जानकारी आदि होनी चाहिए, इस का तो मैं समर्थक हूं, इसके सिवा और किसी तालीम से विमुख हूं.’

वो किसी भी हाल में देशज पसमांदा के आधुनिक शिक्षा के पक्षधर नहीं थे, बरेली के एक मदरसे में जहां तथाकथित निम्न वर्ग के मुस्लिम बच्चे पढ़ने आते थे उनको अंग्रेजी शिक्षा ना देकर धार्मिक शिक्षा देने पर बाल देते हुए कहते हैं कि ‘सही यही है कि आप ऐसा प्रयास करें कि उन लड़कों को कुछ पढ़ना-लिखना और आवश्यकता अनुसार गुणा-गणित आ जाये और ऐसी छोटी-छोटी पत्रिकाएं पढ़ा दी जाएं जिन से नमाज़ और रोज़े की आवश्यक/प्राथमिक समस्याएं जिनसे प्रतिदिन सामना होता है और इस्लाम धर्म से जुड़ी आस्था का पता चल जाये.’

इस घटना से यह स्पष्ट होता है कि सर सैय्यद तथाकथित निम्न जाति के मुसलमानों को सिर्फ इतनी धार्मिक शिक्षा देने के पक्षधर थे जिनसे वो अशराफ वर्ग की सेवा कर सकें.

उपर्युक्त तथ्यों से यह बात साफ हो जाती है कि वर्तमान समय में भारत के अशराफ वर्ग द्वारा हर वर्ष उनके जन्मदिन की याद के आड़ में सर सैय्यद की मिथ्या महिमा मण्डन कर उनके विचारधारा को जीवित रखने का ही प्रयास है जिससे उनके सत्ता एवं वर्चस्व मेंटेन रहें.

(फैयाज अहमद फैजी अनुवादक, स्तंभकार, मीडिया पैनलिस्ट, सामाजिक कार्यकर्ता एवं पेशे से चिकित्सक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

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