होम मत-विमत शिवसेना में फूट दिखाती है- नफरत फैलाओ और मजे करो, नरमपंथी बनो...

शिवसेना में फूट दिखाती है- नफरत फैलाओ और मजे करो, नरमपंथी बनो और गद्दी गंवाओ

बाल ठाकरे ने शिकायतों के बूते अपनी पार्टी खड़ी की; समाज को बांटने वाली उनकी राजनीति काम कर गई और अब मोदी-शाह की भाजपा उस राजनीति को आगे बढ़ा रही है.

शिवसेना प्रमुख उद्धव ठाकरे की फाइल फोटो | नंद कुमार/पीटीआई

यह कोई हैरत में डालने वाली खबर नहीं है कि शिवसेना के संसदीय दल में फूट पड़ गई है और उसके अधिकतर सांसद उद्धव ठाकरे का साथ छोड़ने ही वाले हैं. आखिर, महाराष्ट्र के इसके विधायक दल के बहुमत ने उद्धव का साथ छोड़ ही दिया है और भाजपा समर्थित गुट के साथ हो गया है.

एक स्तर पर, इसे व्यवहारवादी राजनीति कहा जा सकता है, जिसमें विधायकों की सत्ता की भूख तो मिटी ही है, दूसरी तरह के फायदे भी होते हैं, लेकिन शिवसेना में फूट कहीं अधिक बुनियादी सवाल उठाती है कि क्या हमारे देश में ऐसी पार्टी के लिए जगह सिकुड़ती जा रही है, जो शिकायतों पर आधारित नहीं है? इन दिनों कामयाब सियासत उसे ही माना जाता है जिसमें शिकायतों का लाभ उठाया जाता हो. जरा सुनिए कि भाजपा समर्थक और उनके प्रतिनिधि मध्ययुग में मुसलमानों द्वारा हिंदुओं को प्रताड़ित करने को लेकर क्या कुछ कहते रहे हैं और यह भी बयान देते रहे हैं कि अब समय आ गया है जब हिंदुओं को ‘मुगलों के वारिसों’ से इसका बदला लेना चाहिए.

शिकायतों की जमीन से उपजी शिवसेना

शिवसेना हमेशा से मूलतः शिकायतों पर आधारित पार्टी रही है. 1967 में, जब शिवसेना पहली बार उभरकर सामने आई थी तब इसके संस्थापक बाल ठाकरे ने महाराष्ट्र वालों को अपने अधिकारों के लिए खड़े हो जाने का आह्वान किया था, जिनका बंबई (ठाकरे द्वारा नाम बदले जाने से पहले) महानगर में उल्लंघन किया जा रहा था.

तब, महाराष्ट्र को बने हुए सात साल ही हुए थे. 1960 तक वह पुराने बंबई प्रांत का हिस्सा था जिसमें आज के गुजरात का बड़ा हिस्सा भी शामिल था. उसके एक ताकतवर मुख्यमंत्री थे मोरारजी देसाई, जिन्हें गुजरात पर बहुत गर्व था. एक जन-आंदोलन के बाद महाराष्ट्र की स्थापना हुई थी. इस आंदोलन के नेताओं को ठाकरे बहुत सम्मान देते थे.

शिवसेना की एक मूल शिकायत यह थी कि महाराष्ट्र वालों को अपना राज्य मिल गया है मगर आर्थिक वर्चस्व गुजरातियों का ही है. इसके अलावा, देशभर से लोग (उनका इशारा दक्षिण भारतीयों की ओर था) बंबई आकर उन नौकरियों पर कब्जा कर लेते हैं, जो मराठियों को दी जानी चाहिए थी.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

ठाकरे का आंदोलन खुल्लम-खुल्ला हिंसक था. ठाकरे के समर्थक हिंसा कर रहे थे और ठाकरे को उसके लिए कोई खेद नहीं था बल्कि वे तर्क दे रहे थे कि उनके सामने कोई चारा नहीं है. 1990 के दशक में जब ‘बॉम्बे’ फिल्म में ठाकरे का किरदार निभा रहे पात्र ने शहर में तबाही मचा रही हिंसा पर खेद जताया था, तब ठाकरे ने मुझसे गर्व के साथ कहा था कि ‘खेद? मैं क्यों खेद जताऊं? मैं कोई खेद नहीं जताता.’

वास्तव में, उस हिंसा के कारण ही लोगों का ध्यान शिवसेना की ओर गया था. शिवसेना के बंद के आह्वान का जो भी उल्लंघन करता था उस पर हमला किया जाता था, कारों और दुकानों को तोड़ डाला जाता था, उनके मालिकों पर हमला किया जाता था.

यह सब मराठियों के अधिकारों के नाम पर किया जाता था, बाद के वर्षों में शिवसेना ने अपनी चाहे जो भी छवि पेश की हो, अपनी स्थापना के समय वह अनिवार्यतः कांग्रेस विरोधी थी. वैसे, एक अजीब-सा तर्क यह भी दिया जाता है कि महाराष्ट्र में कांग्रेस के दिग्गज नेताओं एसके पाटील और वीपी नायक की शह पर ठाकरे ने शिवसेना का गठन किया था. कहा जाता है कि ये नेता बॉम्बे में कम्युनिस्टों के नेतृत्व वाले मजदूर संघों पर लगाम लगाना चाहते थे और वास्तव में, ठाकरे के शुरुआती बयान खुल्लम-खुल्ला कम्युनिस्ट विरोधी होते थे और दोनों संगठनों के बीच हिंसक मुठभेड़ें भी हुईं.

1967 के लोकसभा चुनाव में, जब वीके कृष्ण मेनन कांग्रेस के अधिकृत उम्मीदवार के खिलाफ निर्दलीय उम्मीदवार बनकर खड़े हुए थे तब शिवसेना ने कांग्रेस की उग्र शाखा की भूमिका निभाई थी. उसका तर्क था कि मलयाली मेनन की महाराष्ट्र में कोई जगह नहीं हो सकती. शिव सैनिकों ने उनके चुनाव क्षेत्र में मलयालियों की पिटाई भी की थी. ठाकरे के नारे दक्षिण भारतीयों पर सीधा हमला करते थे— ‘मद्रास जाओ!’ जिन मलयालियों का मद्रास से कोई संबंध नहीं था, वे परेशान हुए थे.


यह भी पढ़ें : विधायक अब राजनीतिक उद्यमी बन गए हैं, महाराष्ट्र इसकी ताजा मिसाल है


ठाकरे के रुख में बदलाव

ठाकरे समय के साथ अपना विचार बदलते रहे. एसबी चव्हाण जब मुख्यमंत्री बने तो ठाकरे कांग्रेस के खिलाफ हो गए (चव्हाण ठाकरे के पुराने संरक्षकों के विरोधी थे) लेकिन इंदिरा गांधी के लिए प्रशंसा भाव उनका कम नहीं हुआ. जनता पार्टी के राज में जब इंदिरा गांधी सत्ता से बाहर थीं तब भी ठाकरे उनका समर्थन करते रहे.

लेकिन ‘महाराष्ट्र मराठियों का’ उनका नारा 1980 के दशक तक आते-आते अपनी हुंकार खो चुका था. इसलिए ठाकरे मुसलमानों को निशाना बनाने वाले मंच पर खड़े हो गए. आरएसएस के लिए उनके मन में कोई लगाव नहीं था और वे उसे ब्राह्मणों का निस्तेज संगठन मानते थे और उन्होंने मुस्लिम विरोधी भावना का ज्यादा उग्र रूप पेश किया. यह कभी बहुत विश्वसनीय नहीं लगा (उनके महा-राष्ट्रवाद के विपरीत, जिसमें वे वास्तव में विश्वास करते थे) और वे इस तरह के बयान देते दिखे कि ‘जरा अपराधियों के नाम पढ़िए. उनमें मुसलमानों की संख्या इतनी ज्यादा क्यों है? हमें सैयद किरमानी जैसे मुसलमान नहीं चाहिए. (किरमानी उस समय भारतीय क्रिकेट टीम में थे).

1990 के दशक में मुंबई दंगों में शिवसेना ने प्रमुख भूमिका निभाई और ठाकरे ने हिंदुओं के संरक्षक के रूप में अपनी पहचान पुख्ता की. (उन्होंने मुझसे कहा था, ‘हमारे ऊपर हमला किया गया था. हमें इसका जवाब देना ही था.’ इसके बाद ‘महाराष्ट्र मराठियों का’ नारा पीछे छोड़ दिया गया, हालांकि यह कभी खत्म नहीं किया गया. बंबई का नाम बदलकर मुंबई करवाने के बाद उन्होंने ऐसा रुख अपनाया मानो उन्होंने अपना काम पूरा कर दिया.

ठाकरे के निधन के बाद शिवसेना के सामने दो विकल्प थे. वह ठाकरे की तरह, शिकायतों की राजनीति करती रह सकती थी और अपने हमलों के लिए निशाने ढूंढती रह सकती थी या खुद को एक जिम्मेदार राजनीतिक दल के रूप में ढाल सकती थी. एक तरह से ये विकल्प व्यक्तित्वों की टकराहट में भी प्रतिबिंबित हुए. बाल ठाकरे के भतीजे राज ठाकरे ने खुद को अपने चाचा का उत्तराधिकारी बताने की कोशिश की, जबकि बाल ठाकरे के पुत्र उद्धव ठाकरे ने अधिक ज़िम्मेदारी भरा और कम नफरत भरा रुख अपनाया. अंततः शिवसेना उद्धव के साथ हो ली और उसने अपना अधिक शांतिपूर्ण, समझदारी भरा दौर शुरू किया.

आरएसएस-भाजपा-सेना की नयी राजनीति

भाजपा अब जो आभास कराना चाहती है उसके विपरीत, शिवसेना और भाजपा कभी स्वाभाविक सहयोगी नहीं रहीं. उन्होंने चुनावी मकसद के लिए गठबंधन इसलिए किया था क्योंकि प्रमोद महाजन ने अनिच्छुक ठाकरे को यह समझा दिया था कि शिवसेना अगर सड़कों से सत्ता तक पहुंचना चाहती है तो यह गठबंधन ही सबसे अच्छा रास्ता है. वैसी स्थिति में भी, ठाकरे बड़ा भाई बनकर रहना चाहते थे. भाजपा भले देश चलाए, महाराष्ट्र को तो वे ही चलाएंगे.

ये सब तब की बातें थीं जब मोदी-शाह जोड़ी शिखर पर नहीं पहुंची थी. इस जोड़ी ने बिलकुल वह उग्र हिंदुत्व पेश किया जिसमें विश्वास न करने के लिए ठाकरे आरएसएस की आलोचना करते थे और यह नयी भाजपा किसी गठबंधन में दूसरे नंबर पर रहने को राजी नहीं है.

अब नयी लड़ाई में शिवसेना के इतने सारे सांसद और विधायक भाजपा के साथ हो गए हैं तो इसकी कई तरह से व्याख्या की जा रही है. प्रायः जो कारण बताया जाता है वह पैसे के लालच का है. लेकिन दूसरा, कहीं ज्यादा अहम कारण भी है. आज के भारत में, शिकायतों के आधार पर काम करना आसान है. बस एक दुश्मन तलाशिए, किसी समुदाय को निशाना बनाये और लोगों का समर्थन हासिल कीजिए.

भाजपा इसी की पेशकश कर रही थी- हिंदुत्ववादी राजनीति की. दूसरी ओर, उद्धव सुशासन का वादा कर रहे थे. अंततः, उनके कई समर्थकों ने फैसला किया कि यह काफी नहीं होगा. वे पहचान की वह राजनीति (इस या उस पहचान की) करना चाहते थे जिससे बाल ठाकरे ने शिवसेना की नींव तैयार की थी. कई शिवसैनिकों को यही दिशा अनुकूल लगती है. उद्धव ने अंत में आकार दिशा बदलने की कोशिश की लेकिन हिंदुत्व की दिशा पकड़ने के लिए काफी देर हो चुकी थी. लेकिन तब तक, भाजपा ने उनकी पार्टी को तोड़ लिया था.

इसलिए, महाराष्ट्र का यह ड्रामा हर राज्य को अपनी मुट्ठी में करने की भाजपा की चाहत का एक रूप है. लेकिन या भारतीय राजनीति में आए बदलाव को भी दर्शाता है. अगर आप नफरत की नहीं, तो भी बांटने की राजनीति करते हैं तो आपके लिए रास्ता आसान हो जाता है. लेकिन नरमपंथी राजनीति आपको कहीं नहीं पहुंचाएगी.

(वीर सांघवी भारतीय प्रिंट और टीवी पत्रकार, लेखक और टॉक शो होस्ट हैं. उनका ट्विटर हैंडल @virsanghvi है. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें : अगर अभिव्यक्ति की आज़ादी की रक्षा के लिए खड़े नहीं हो सकते तो इसे हमेशा के लिए अलविदा कहिए


 

Exit mobile version