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सेक्युलरवादियों को भाजपा-आरएसएस के अयोध्या, एनआरसी के फंदे में न फंस अपना खूंटा ठोकना चाहिए

सेक्युलर राजनीति ने धोखे की आड़ लेते हुए संविधान में दर्ज सेक्युलरिज्म के पवित्र सिद्धांत को वोटों के जोड़-जमा के भीतर अपने सुभीते का गणित बना छोड़ा है.

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सोहम सेन का चित्रण | दिप्रिंट

यों समझिए कि नवंबर का महीना सेक्युलर राजनीति के लिए परीक्षा का महीना साबित होने जा रहा है. सुप्रीम कोर्ट अयोध्या मामले पर अपना बहु-प्रतीक्षित फैसला सुनाने जा रहा है. और, यह खबर कि राष्ट्रीय नागरिक पंजी यानि एनआरसी का विस्तार पूरे देशभर के लिए कर दिया गया, आपको अब किसी भी लम्हे पढ़ने को मिल सकती है. संसद का शीतकालीन सत्र भी इसी माह शुरू होगा. बड़ी संभावना यही दिखाई देती है कि सरकार दूरगामी महत्व के तीन विधेयक सदन में प्रस्तावित, पेश या फिर पारित करे. इनमें एक है समान नागरिक संहिता का विधेयक (यूसीसी), दूसरा है केंद्रीय धर्म-परिवर्तन प्रतिषेध विधेयक (एसीए) और तीसरा है नागरिकता संशोधन विधेयक (सीएबी).

हम ये तो नहीं जानते कि ये पांचों कदम एकबारगी और एकमुश्त सामने आयेंगे या फिर इन कदमों को उठाये जाने के बीच कुछ अन्तराल होगा लेकिन इतना तय है कि इन पांच कदमों के मिले-जुले असर से हिन्दुत्व का अजेंडा आगे और छलांग लगाएगा और सरकार के इन पांच कदमों को लेकर मीडिया वाले धूम-धड़ाका भी खूब फैलाएंगे. अयोध्या मामले में सुप्रीम कोर्ट का फैसला चाहे जो भी रहे (यहां अपवादस्वरूप सिर्फ उस एक स्थिति की गिनती नहीं की जा रही जिसमें कोर्ट अयोध्या मामले को सीधे-सीधे जमीन की मिल्कियत का मामला मानकर भू-स्वामित्व वक्फ बोर्ड को सौंप दे) फैसले को हिन्दुओं की बड़ी जीत बताया-जताया जायेगा.


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देशव्यापी एनआरसी तथा नागरिकता अधिनियम (1955) में हुये संशोधन को मुस्लिम आप्रवासियों की समस्या का अंतिम समाधान बताते हुए पेश किया जायेगा और इस बात के ढोल-नगाड़े पीटे जायेंगे. कहा जायेगा कि अभी मौजूद कानूनों में हिन्दुओं के प्रति हितैषिता का भाव नहीं है और कानूनों में कायम हिन्दू-विरोधी रुझान को दुरुस्त करने के लिए यूसीसी (यूनिफॉर्म सिविल कोड) तथा एसीए (एंटी-कन्वर्जन एक्ट) लाना एक जरूरी कदम है. मतलब ये कि सरकार पूरे दम-खम के साथ अपने नागरिकों को बतायेगी कि वही हिन्दू हितों की नैया का एकमात्र और परमप्रतापी खेवैया-बचवैया है.

सेक्युलर खेमे के लोगों की प्रतिक्रिया भी अपनी जानी-पहचानी पुरानी टेक पर ही रहने वाली है. सेक्युलर खेमा कहेगा कि सुप्रीम कोर्ट का फैसला बहुसंख्यकों के प्रति उसके राग-लगाव की देन है. सेक्युलर खेमा यूसीसी को अल्पसंख्यकों के हितों के प्रति असंवेदनशील बताता हुए खारिज करेगा. सेक्युलर खेमे से आवाज उठेगी कि संविधान में अल्पसंख्यकों को अपने धर्म के प्रचार-प्रसार की गारंटी दी गई है और एसीए यानि धर्म-परिवर्तन प्रतिषेध कानून इस गारंटी की अवहेलना करता है. एनआरसी और सीएबी को मुस्लिम जनता को डराने की जुगत कहकर खारिज किया जायेगा. कुल मिलाकर कहें तो सेक्युलर खेमे के राजनेता और बुद्धिजीवी इन सारे कदमों को अल्पसंख्यक-विरोधी तथा हिन्दू-राष्ट्र बनाने की दिशा में उठाया गया कदम बताकर आलोचना करेंगे.

बीजेपी और आरएसएस चाहते भी यही हैं कि सेक्युलर खेमा ऐसा ही कुछ करता दिखे.

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बीजेपी और आरएसएस बारंबार सेक्युलर राजनीति को फांसने के लिए फंदा बिछाते हैं और सेक्युलर राजनीति पूरी परायणता से अपने पैर उस फंदे में डाल देती है. सेक्युलर राजनीति की संघ के बिछाये फंदे में फंसने की नजीर देखनी हो तो तीन-तलाक वाले मसले को देखिए- इस मामले में सेक्युलर राजनीति की ‘आ बैल मुझे मार’ वाली प्रवृत्ति खूब झलकी थी. बारंबार सेक्युलर राजनीति अपने को अल्पसंख्यक हितों की हिमायती बताने से बाज नहीं आती और ऐसा वोट-बैंक की राजनीति के तहत होता है. और, कुछ दिनों से तो चलन ये भी नजर आ रहा है कि चुनावी राजनीति की अपनी मजबूरी के तहत कांग्रेस सरीखी कुछ सेक्युलर पार्टियां सेक्युलरिज्म के नाम पर तनिक छूट लेते कुछ हिन्दू-भावनाओं की पैरोकारी में लग गई हैं. इस प्रवृत्ति को ठीक ही नरम हिन्दुत्व का नाम दिया गया है.

इस तरह, सेक्युलर राजनीति ने धोखे की आड़ लेते हुए संविधान में दर्ज सेक्युलरिज्म के पवित्र सिद्धांत को वोटों के जोड़-जमा के भीतर अपने सुभीते का गणित बना छोड़ा है.

क्या सेक्युलर राजनीति पिटी-पिटायी लीक पर चलने की जगह तनिक अलग रुख नहीं अपना सकती? ढुलमुल अल्पसंख्यकवाद या फिर नरम हिन्दुत्व की राह लगने की जगह क्या हम सरकार के इन पांच कदमों को लेकर कोई ऐसी प्रतिक्रिया सोच सकते हैं जो सिद्धांतनिष्ठ सेक्युलरवाद की नजीर हो?


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मुझे लगता है, हम ऐसा कर सकते हैं. मुझे ये भी लगता है कि सेक्युलरवाद का जीवित रहना बहुत कुछ इसी बात पर निर्भर करता है कि हम ऐसे मामलों पर सिद्धांतनिष्ठ रुख अपनायें. सो, यहां मैं चर्चा करूंगा कि ऊपर जिन पांच मामलों का जिक्र आया है उनको लेकर हमारी सिद्धांतनिष्ठ प्रतिक्रिया क्या हो. एक सुर से सरकार के पांचों कदमों को खारिज करने की जगह हमें प्रत्येक कदम को लेकर परस्पर अलग और मामले के वजन को देखते हुए अपनी प्रतिक्रिया निर्धारित करने की जरूरत है.

समान नागरिक संहिता को लेकर सेक्युलर राजनीति का भाव बिना किसी किन्तु-परन्तु के सर्वतोभावेन स्वीकार का होना चाहिए. विवाह, तलाक, उत्तराधिकार जैसे मसलों का नियमन करने वाले कानून सभी परिवारों के लिए एक-से होने चाहिए, यह बात सेक्युलरवाद के सिद्धांतों के अनुकूल है और संविधान में इसकी सिफारिश भी की गई है. समान नागरिक संहिता दो रूप ले सकती है. हो सकता है कि अलग-अलग धर्म-समुदायों के विवाह, उत्तराधिकार, तलाक आदि से जुड़े विभिन्न कानूनों को खत्म कर दिया जाय और इन सबकी जगह लेने वाला कोई एक कानून बन जाय. लेकिन, यह तरीका बहुत कठिन है और इससे बचा जाना चाहिए.

बेहतर रास्ता होगा कि विभिन्न धर्म-समुदाय के विवाह, तलाक, उत्तराधिकार आदि से संबंधित फैमिली लॉज को कायम रहने दिया जाय लेकिन ऐसे कानूनों के भीतर महिला-विरोधी अथवा अन्य भेदभाव भरे प्रावधानों को समाप्त कर दिया जाय. सेक्युलरिज्म इन दोनों ही रास्तों के संगत है बशर्ते किसी एक धर्म-समुदाय के विवाह, तलाक, उत्तराधिकार से संबंधित नियम-कानून दूसरे धर्म-समुदाय पर ना थोपे जायें.

अखिल भारतीय स्तर पर लागू होने वाले धर्म-परिवर्तन प्रतिषेध कानून को लेकर हमारी प्रतिक्रिया स्वीकार की तो हो लेकिन शर्तों के साथ. मैं जानता हूं कि ये सुझाव कुछ विवादास्पद जान पड़ेगा. ये बात सच है कि संविधान सभा में ऐसे विचार को लेकर एका कायम न हो सका था. अपने धर्म के प्रचार-प्रसार के अधिकार की जो संविधान-प्रदत्त गारंटी है, यह विचार उसके उल्लंघन में जान पड़ सकता है. लेकिन मुझे लगता है कि धोखे, जोर-जबर्दस्ती अथवा लोभ-लालच देकर धर्म-परिवर्तन अथवा किसी धर्म में पुनर्वापसी कराने के प्रयासों का प्रतिषेध करने वाले कानून को लेकर ऐसी आपत्तियां प्रासंगिक नहीं.

हिन्दू धर्म तथा कई आदिवासी समुदाय के धर्म में कोई बंधी-बंधायी सीमा-रेखा खींची हुई नहीं मिलती और ऐन इसी कारण इन धर्मों में संस्थागत रीति से सेंधमारी मुमकिन है. बहलावे-फुसलावे अथवा जोर-जबर्दस्ती के सहारे किये जाने वाले धर्म-परिवर्तन पर प्रतिषेध का कानून 10 राज्यों में पहले से मौजूद है. अब शर्त बस यह होनी चाहिए कि ऐसे कानून को अगर पूरे देश में लागू किया जाता है तो फिर उसके दायरे में धर्म-परिवर्तन ही नहीं बल्कि पुनर्धर्म-परिवर्तन यानि ‘घर वापसी’ का प्रतिषेध भी शामिल हो और ऐसे कानून में सिर्फ हिन्दू धर्म-समुदाय के लोगों को ही नहीं बल्कि भारत की जनगणना में दर्ज तमाम धर्म-समुदाय के लोगों को सुरक्षा प्रदान की जाय.

जहां तक राष्ट्रीय नागरिक पंजी (एनआरसी) का सवाल है, हमारी प्रतिक्रिया सशर्त आपत्ति जताने की होनी चाहिए. सरकार नागरिकों की कोई अद्यतन तथा सत्यापित सूची बनाती है तो इसमें सिद्धांत रूप में कुछ भी गलत नहीं. यह कहना सही नहीं कि एनआरसी मुस्लिम-विरोधी षड़यंत्र है. एनआरसी का विस्तार पूरे देश में करने के कदम के साथ असल मुश्किल पैदा होती है जब इससे संबंधित नियम और प्रक्रियाएं भेदभाव भरी हों या फिर नागरिकता साबित करने की जिम्मेवारी स्वयं नागरिक पर डाल दी जाये जैसा कि असम में देखने में आया. ऐसी रीति-नीति न सिर्फ अल्पसंख्यकों बल्कि अपना दस्तावेज न जुटा सकने वाले करोड़ों गरीब तथा कमजोर लोगों के लिए बड़ी मारक साबित होगी. सेक्युलरवादियों को इस बात का विरोध करना चाहिए.

अयोध्या का मामला इन तमाम मामलों में सबसे ज्यादा पेचदार है और इस मामले में रवैया सम्मानजनक समझौता का होना चाहिए. यों देखने पर मामला बड़ा सीधा जान पड़ता है कि जिस जगह पर कभी बाबरी मस्जिद हुआ करती थी उस जगह पर मालिकाना हक किसका है. और, इसमें कोई शक नहीं कि वक्फ बोर्ड का दावा मजबूत है. लेकिन सेक्युलरवादियों को चाहिए कि वे इस मसले पर कोई संकीर्ण कानूनी नजरिया न अपनायें. इसी तरह कोर्ट को भी चाहिए कि वो ये बताने में न लग जाये कि मस्जिद से पहले उस जमीन पर कौन-सा ढांचा खड़ा था. विवाद बड़ा पेचदार है और चूंकि उसका ओर-छोर एक सिरे से ढूंढ़ पाना मुमकिन नहीं सो मेल-भाव के साथ सम्मानपूर्ण समझौते की राह अपनाना ठीक रहेगा. अदालत के फैसले की महीन नुक्ताचीनी करने की जगह सेक्युलरवादियों को सुप्रीम कोर्ट के किसी भी सम्मानजनक समझौते की पेशकश को स्वीकार करना चाहिए, बशर्ते इस पेशकश के स्वीकार के बाद मामले से जुड़े तमाम विवाद हमेशा के लिए खत्म मान लिये जायें.


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सीएबी यानि देश की नागरिकता से संबंधित कानून में संशोधन का हरचंद और पूरे दमखम के साथ विरोध होना चाहिए. ये विधेयक तो यह कहता प्रतीत होता है कि आप्रवासियों में अगर कोई मुस्लिम है तो फिर उसके लिए भारत की धरती पर कोई जगह नहीं. नागरिकता से संबंधित कानून में संशोधन संविधान वर्णित समानता के मूल्य और सेक्युलरवाद के सिद्धांतों का उल्लंघन कहलायेगा. अगर भारत नामक गणराज्य का नागरिक होने की कसौटी धर्म को मान लिया गया तो फिर हम घूमकर इतिहास के उसी मोड़ पर पहुंच जायेंगे जिसे द्वि-राष्ट्र सिद्धांत के नाम से जाना जाता है. ये बात भारत नामक विचार के ही विरुद्ध है. अगर गांधीजी जीवित होते तो कोई शक नहीं कि इस मसले पर वे आमरण अनशन पर बैठ चुके होते. यही वो मुद्दा है जिस पर सेक्युलरवादियों को खूंटा ठोककर अड़े रहना चाहिए और भारत की आत्मा को बचाने की लड़ाई लड़नी चाहिए.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

योगेंद्र यादव राजनीतिक दल, स्वराज इंडिया के अध्यक्ष हैं.यह लेख उनका निजी विचार है.)

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