होम मत-विमत ऋषि सुनक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पद की दौड़ में कई वजहों से...

ऋषि सुनक ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पद की दौड़ में कई वजहों से पिछड़े, नस्ल मुख्य वजह नहीं

ऋषि सुनक अपने 'चतुर खुशामदीद तौर-तरीकों से लेकर बोरिस जॉनसन से बेवफाई तक कई मामले में गलत कर बैठे.

फाइल फोटो ऋषि सुनक/ Twitter/@RishiSunak

आखिर ऋषि सुनक हार गए. जिस हफ्ते भारत ब्रिटेन को पीछे छोड़कर दुनिया की पांचवी सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था बना, कंजरवेटिव पार्टी के सदस्यों ने ब्रिटेन को पहले भारतीय मूल के प्रधानमंत्री से वंचित कर दिया. लेकिन वे कुर्सी के इतने करीब तक पहुंच गए, यही विविधता के लिए जगह के मामले में भारत और ब्रिटेन के बीच फर्क है. इसकी बेहतरीन तुलना यह होगी, जैसे भारत में अगर कोई मुसलमान प्रधानमंत्री बन जाए, क्योंकि भारत में धार्मिक अल्पसंख्यकों का वही स्थान है, जो ब्रिटेन में गैर-ईसाई और नस्लीय अल्पसंख़्यको का है. बड़े पैमाने पर नतीजों की उम्मीद ऐसी ही थी.

आखिरी नतीजे उन भारतीयों के लिए निराशाजनक होंगे, जो सुनक के लिए ताली-थाली बजाने वाले दस्ता जैसे बन गए थे, लेकिन मैं कहूंगी कि उनकी हार की मुख्य वजह उनकी नस्ल और उनका मूल ही नहीं था. हां, पहचान मायने रखती है, लेकिन इस बार लैंगिक पहचान की विजय हुई.

ऋषि सुनक क्यों हारे

बतौर चांसलर (वित्त मंत्री) बेहद लोकप्रिय ऋषि सुनक को 2021 के उथल-पुथल भरे वर्ष में बोरिस जॉनसन का उत्तराधिकारी माना जा रहा था, जब जॉनसन लगातार घोटाले-दर-घोटाले में घिरते और बचते जा रहे थे. सुनक की लोकप्रियता खासकर अर्थव्यवस्था में तेजी लाने और कोविड के बदतरीन हालात में लोगों को राहत देने के लिए सरकारी खर्चों में भारी इजाफे की वजह से बढ़ी थी. लेकिन 2022 में लंबी और तपिश वाली गर्मियां सुनक के उल्कापिंड जैसे राजनैतिक करियर में अच्छी रोशनी लेकर नहीं आईं. सुनक की कुर्सी से दूरी की तीन मुख्य वजहें थीं.

एक, तो कोई भी विभिषण या जयचंद को पसंद नहीं करता. राजनैतिक अनुयायियों के लिए वफादरी प्रमुख शर्त है, लेकिन बेवफाई नेता और उसके प्रतिद्वंद्वी दोनों को ले डूबती है. सुनक ने जॉनसन के खिलाफ बड़े पैमाने पर कैबिनेट मंत्रियों के इस्तीफे की अगुआई की. कंजरवेटिव पार्टी के सदस्यों ने जॉनसन के प्रति बेवफाई’ को फौरन चरित्र-दोष माना. और बड़े वाजिब ढंग से इतिहास दोहराया गया. बहुचर्चित कंजरवेटिव नेता मार्गरेट थैचर से भी 1990 के मध्यावधि में उनके चांसलर, करिश्माई और महत्वाकांक्षी नेता माइकल हेसेल्टीन ने बेवफाई की थी. वह भी सिर्फ इसलिए कि छुपेरुस्तम जॉन मेजर प्रधानमंत्री बन सकें.

दूसरी, और मेरी राय में ज्यादा महत्वपूर्ण, वजह यह है कि सुनक ने वैसे मर्द की तरह ज्यादा बर्ताव किया, जिसे हम-खासकर औरतें-बदकिस्मती से अच्छी तरह पहचानते हैं. ब्रिटेन की अब प्रधानमंत्री लिज ट्रस से पहली टेलिविजन डिबेट में सुनक ने बार-बार और लगातार टोकाटाकी की. जब खुद बोलने की बारी आई तो सुनक ने ऐसा संरक्षणकारी रवैया अपनाया कि उनका लक्ष्य तो अर्थव्यवस्था की तिमारदारी करना है और जो उनका (लिज का) नहीं है. इसकी कीमत सुनक को ज्यादा चुकानी पड़ी, जितना उनके भारतीय समर्थक कबूल करना चाहते हैं. आखिरकार, यह भारतीय टेलिविजन और कॉन्फ्रेंसों के मर्दाना पैनलों में आम बात है, जिनमें महिला सहभागियों को थोड़ा ही वक्त दिया जाता है. अलबत्ता आप तलाक या यौन हिंसा पर बहस कर रहे हों तो अलग बात होती है. इसलिए आश्चर्य नहीं कि यह महत्वपूर्ण बात भारतीय टिप्पणियों में नदारद-सी है, जिनमें बाकी मामलों में सुनक के प्रचार अभियान पर बारीक नजर रखा जा रहा था. हालांकि टीम ऋषि ने स्वीकार किया कि पहले डिबेट में उनके तौर-तरीकों ने काफी संख्या में निष्पक्ष लोगों को उनसे दूर कर दिया, और वाकई उससे डिशी-ऋषि अभियान को नुकसान पहुंचाया.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें


यह भी पढ़ें: सावरकर और नेहरू ने भारत का भविष्य गढ़ने में इतिहास का सहारा लिया लेकिन गांधी कभी इसके पक्षधर नहीं रहे


नस्ल का मामला

कहने का मतलब यह नहीं है कि नस्ल के मामले ने कोई भूमिका अदा नहीं की. पिछले दशक में कंजरवेटिव पार्टी ने चुपचाप मगर जाहिरा तरीके से नस्ल के मामले में अलग लाइन ली. शरणार्थी और आप्रवासन की सबसे खास नीतियां बनाने में उसे एशिया और अफ्रीकी मूल के आला प्रतिभाओं की मदद मिली, जबकि सम्राज्यवादी नकार पर आक्रामक दलीलें भी दी गईं. चाहे वे प्रीति पटेल हों या उभरते सितारे केमी बेडेनॉक, ब्रेक्सिट से कठोर हुए नस्ल, आप्रवासन और साम्राज्य पर कंजरवेटिव राजनैतिक विचारों को अब सबसे मुखर आवाज एशियाई और अफ्रीकी मूल के नेताओं से ही मिली है.

बहरहाल, ब्रिटेन की टॉप बेटिंग एजेंसी लैडब्रोक्स ने ट्रुस के दो सबसे संभावित उत्तराधिकारियों में दो अफ्रीकी मूल के कंजरवेटिव नेताओं केमी बेडेनॉक और क्वासी क्वारटेंग का नाम चुना है. इसलिए यह दलील सुरक्षित है कि पहचान संबंघी लड़ाइयां अब विपक्ष की ओर ठेल दी गई हैं. पहली बात तो यही है कि लेबर पार्टी में अभी भी कोई महिला नेता नहीं है और तीसरी कंजरवेटिव प्रधानमंत्री ट्रुस इस मामले में उन्हें मुंह चिढ़ाती हैं. लेबर पार्टी परंपरा से अफ्रीकी और एशियाई अल्पसं यकों के वोटों पर आश्रित रही है, फिर भी लंदन के मौजूदा मेयर सादिक खान के अलावा उसके नेतृत्व की पहली पांत में कोई अल्पसं यक नेता नहीं है. यकीनन, कंजरवेटिव नेताओं की डिबेट और अभियान में सांस्कृतिक संघर्ष को उसकी जरूरत से ज्यादा जगह मिली. यह आने वाली खौफनाक सर्दियों में जब ब्रितानी अर्थव्यवस्था में कुछ नरमी दिखेगी, तो यह बहस और गरमाएगी.

आखिर में, अर्थव्यवस्था सुनक का सबसे मजबूत पक्ष था, लेकिन उलटे वही ऊंची कुर्सी की उनकी जंग में उनकी नाकामी का एक बड़ी वजह बन गया. देश के खजाने से महामारी के दौरान सुनक के बड़े खर्चे कंजरवेटिव सदस्यों को अपनी मूल पहचान की ओर ढकेल दिया. टैक्स कटौती! जैसा ट्रस का इकलौता मंत्र कंजरवेटिव विचारधारा की ओर वापसी का संकेत था. सुनक के साथ वाले कंजरवेटिव न्यू लेबर और लंबी पारी वाले ब्रिटेन के आखिरी प्रधानमंत्री टॉनी ब्लेयर से इस कदर एकरूप दिखे कि अलग करना मुश्किल है, जिनकी कई आर्थिक नीतियों और कॉस्मोपोलिटन शैली को ज्यों का त्यों अपना लिया गया. पहली पांत से सुनक के राजनैतिक पतन ने अब ज्यादा उथल-पुथल वाले राजनैतिक दौर का आगाज कर दिया है. कंजरवेटिव और लेबर दोनों पार्टियों में विचारधारात्मक सफाई और राजनैतिक समझौतों के दो विरोधाभासी दिशाओं में बदलाव दिखेगा.

आगे क्या?

एक बात तो साफ है कि बोरिस जॉनसन के प्रधानमंत्री कार्यकाल के शख्सियत केंद्रीत लोकप्रियता का दौर अब बीत चुका है. भारी बहुमत और लोकप्रियता की तगड़ी लहर पर सवार होकर जॉनसन ने ट्रंप और दूसरे कई लोकप्रियतावादियों की तरह पार्लियामेंट और पार्टी दोनों को बेमानी बनाना चाहा. नियंत्रण ढीला होते ही अब यह मुद्दा बहस के बीच में आ गया है. कंजरवेटिव पार्टी का लक्ष्य क्या है? ब्रेक्सिट हो गया है और वह जॉनसन की विरासत बना रहेगा.

किसी तरह के करिश्मे के अभाव में ट्रस ने वादा किया कि वे टैक्स में कटौती करेंगी, जो चर्चित कंजरवेटिव सिद्धांत है और कल्याणकारी योजनाओं पर ज्यादा खर्च करेंगी. उन्हें इसे समेटने के लिए दैवीय शक्तियां चाहिए. व्यावहारिक राजनीति के दायरे में, ज्यादा संभव यही है कि संकटग्रस्त अर्थव्यवस्था और स्वास्थ्य संबंधी सार्वजनिक सेवाएं राजनैतिक बेचैनी पैदा करेंगी. ज्यादा संभव है कि अगली गर्मियों में आम चुनाव हों. ट्रस ने एक नहीं, दो बार यह कहकर अपनी दुश्चिंताओं को दूर करने की कोशिश की है कि बाकी दो साल सरकार में रहेंगी. तो, अगर आप राजनीति पर नजर रखते हैं तो नजर गड़ाए रखिए क्योंकि ट्रस की गद्दीनशीन भारी राजनैतिक ड्रामा के उपसंहार के बदले शुरुआत ज्यादा है.

सुनक शायद वैश्विक अरबपतियों के क्लब में शामिल हो जाएं, जिससे उनका वाकई नाता है और वे जो करते हैं, करें-यानी खूब पैसा बनाएं और मजे से खर्च करें. ब्रिटेन के प्रधानमंत्री पद पर पहले एशियाई मूल के व्यक्ति बनते-बनते रह गए सुनक को सबसे बढ़कर उनकी दौलत के लिए याद किया जाएगा, खासकर ऐसे दौर मेंं जब ब्रिटेन में गरीबी और गैर-बराबरी बढ़ रही थी.

सुनक की विदाई एक और पल की गवाह बनी है, अपनी अनेकता के लिए मशहूर उनके मूल देश भारत में संसद में सत्तापक्ष में शून्य मुस्लिम प्रतिनिधित्व है. विरोधाभास देखिए कि सुनक का करिअर ऐसे दौर का साक्षी है, जिसमें कभी साम्राज्यवादी ब्रिटेन और भारतीय राष्ट्र की दो ध्रुवों वाली राजनीति अब उलटी हो गई है.

(श्रुति कपिला कैम्ब्रिज यूनिवर्सिटी में इंडियन हिस्ट्री और ग्लोबल पॉलिटिकल थॉट की प्रोफेसर हैं. वह @shrutikapila पर ट्वीट करती हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: BJP नहीं, उससे पहले तो लोहिया जैसे समाजवादियों ने ही नेहरू को खारिज कर दिया था


 

Exit mobile version