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नागालैंड हत्याकांड में सैनिकों को राहत अच्छा फैसला है मगर कई सवाल अभी भी चिंताजनक हैं

आरोपी सैनिकों को राहत देने की असली वजह कभी मालूम नहीं हो पाएगी क्योंकि पुराने फैसलों के बारे में आरटीआई कानून के तहत जानकारी हासिल करने की कोशिशों को राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर विफल किया जा चुका है.

नागालैंड में हुई हिंसा की तस्वीर | फोटो: ANI

कथित बागियों/आतंकवादियों और भारतीय सेना के बीच जब भी मुठभेड़ होती है, मानवाधिकारों के उल्लंघन का शोर मचने लगता है और इंसाफ की मांग होने लगती है. 4 दिसंबर 2021 को नागालैंड के मोन जिले के ओटिंग में ऐसी ही एक मुठभेड़ में छह बेकसूर खान मजदूरों के मारे जाने की घटना इसका एक उदाहरण है. एक मेजर के नेतृत्व में भारत की विशिष्ट पारा स्पेशल फोर्स की एक टुकड़ी ने मुख्यालय से मिली एक खुफिया सूचना के आधार पर घेराबंदी की और काम से लौट रहे आठ खान मजदूरों के पिकअप ट्रक गोलीबारी कर दी थी.

सेना ने बाद में कबूल किया की यह “पहचान में भूल” का मामला था. हमले में घायल दो मजदूरों को तुरंत वहां से निकालकर उपचार के लिए ले जाया गया. इस घटना का स्थानीय लोगों ने हिंसक विरोध किया, जिसमें भीड़ ने सुरक्षा बल के हथियार भी छीन लिये थे, जिसके जवाब में सेना अपने बचाव में गोलियां चलाई थी. इसमें एक पारासैनिक समेत सात और नागरिक मारे गए थे.

नागालैंड पुलिस और सेना ने इस पूरे मामले की अलग-अलग जांच की. एम मेजर जनरल की अध्यक्षता में आर्मी कोर्ट की जांच में क्या पाया गया और उसने क्या सिफ़ारिशें की, उन्हें सार्वजनिक नहीं किया गया. नागालैंड सरकार द्वारा गठित विशेष जांच दल (एसआईटी) ने उस घेराबंदी और गोलीबारी में शामिल पारा स्पेशल फोर्स के सभी 30 सैनिकों को आइपीसी की कई धाराओं के उल्लंघन समेत हत्या, हत्या की कोशिश के लिए दोषी ठहराया.

‘आर्म्ड फोर्सेज़ स्पेशल पावर्स एक्ट (आफ़स्पा)’-1958 के तहत किसी सैनिक के खिलाफ कानूनी कार्रवाई रक्षा मंत्रालय से मंजूरी मिलने के बाद ही शुरू की जा सकती है. रक्षा मंत्रालय के सैन्य मामलों के विभाग (डीएमए) ने पिछले सप्ताह फैसला सुना दिया कि वह उन 30 पारा सैनिकों के खिलाफ मुकदमा चलाने की मंजूरी नहीं दे रहा है. उन हत्याओं में शामिल उन पारा सैनिकों ने जरूर राहत की सांस ली होगी क्योंकि उन्होंने शायद “अच्छी मंशा” से वह कार्रवाई की थी.


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सेना कानूनी कार्रवाई कर सकती है

पूरी संभावना है कि डीएमए ने मंजूरी उस समय की परिस्थितियों के मद्देनजर नहीं दी होगी कि जिनके कारण सैनिकों को एक मिशन पर भेजा गया था, जो अनिश्चितता, खतरा और भय के कारण बनी गलत धारणा का शिकार हो गई. उस मिशन के नेताओं और सैनिकों के दिमाग पर जो बातें उस समय हावी होंगी उन्हें वही समझ सकता है जो बगावत विरोधी ऑपरेशनों के तहत इस तरह घात लगाकर किए जाने वाले हमलों में शामिल होते हैं. एसआईटी जिस निष्कर्ष पर पहुंची उस पर तभी पहुंचा जा सकता है जब हम गोली चलाते समय सैनिकों की मानसिक स्थिति का गलत आकलन करेंगे या उसकी उपेक्षा करेंगे. जब तक हम यह नहीं मान लेंगे कि सेना के सर्वश्रेष्ठ से भी सर्वश्रेष्ठ का प्रतिनिधित्व करने वाली स्पेशल फोर्सेज़ के वे सैनिक गैर-पेशेवर थे या निर्मम हत्यारे थे.

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एसआईटी अगर ऐसी धारणाओं से ग्रस्त नही थी तो पूरी संभावना यह है कि वह नागालैंड सरकार की दासी की तरह काम कर रही थी. नागालैंड सरकार के पास बेकसूर लोगों की मौत का विरोध कर रही जनता को संतुष्ट करने वाला कदम उठाने के सिवा और कोई राजनीतिक विकल्प नहीं बचा था. इन्हीं कारणों से सेनाओं को ‘आफ़स्पा’ का कवच उपलब्ध कराया गया है, बशर्ते उसने अच्छी मंशा से कार्रवाई की हो.

कानूनी प्रक्रिया अब आर्मी कोर्ट में चल रही है. डीएमए ने मुकदमा चलाने की मंजूरी न देकर आर्मी कोर्ट की जांच के निष्कर्षों को लागू करने के रास्ते को खोल दिया है, जो नागालैंड सरकार की समानांतर प्रक्रिया के कारण बंद हो गया था. एसआईटी के विपरीत आर्मी कोर्ट सच्चाई का पता लगाने के लिए उस गोलीकांड में शामिल सभी पारा सैनिकों और कमांडरों तक पहुंच सकती है. उस ऑपरेशन का नेतृत्व करने, और बाद में हिंसक विरोध कर रहे लोगों पर गोली चलाने का हुक्म देने वाले मेजर को काफी कुछ जवाब देना पड़ेगा. कर्तव्य निर्वाह में चूक जैसी व्यक्तिगत गलतियों के लिए सज़ा देने का अधिकार तो सेना के बड़े अधिकारियों को है ही. ऐसे मामलों से सीखे गए सबक को प्रशिक्षण प्रक्रिया में शामिल किया जाना चाहिए.

‘आफ़स्पा’ गैरकानूनी मुकदमे से सुरक्षा प्रदान करता है. लेकिन एफआईआर रेकॉर्ड में दर्ज हैं और जहां तक घटना में शामिल सैनिकों की बात है, उनके खिलाफ भविष्य में कार्रवाई की जा सकती है, जो उस समय के राजनीतिक माहौल पर और भुक्तभोगियों के परिजनों तथा मानवाधिकार संगठनों के दबाव पर निर्भर होगी. कानूनन वे बेकसूर हो सकते हैं लेकिन उन्हें कानूनी प्रक्रिया में से गुजरना होगा, जो भारत में अपने आपमें ही एक आम ‘सज़ा’ है जो उन अधिकांश लोगों को भुगतानी पड़ती है जिनके खिलाफ कानून तोड़ने का आरोप लगता है. वैसे, बेकसूर लोगों की जान लेने वाले उस दुखद मिशन की यादें उन सैनिकों को उनके जीवन की आखिरी घड़ी तक पीछा करती रहेंगी.


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राष्ट्रीय चिंता का असली विषय

डीएमए ने मुकदमा चलाने की मंजूरी देने से जब मना किया, उसके साथ ही उत्तर प्रदेश में एक बहुचर्चित ‘एनकाउंटर’ में दो भगोड़ों के मारे जाने और मुख्यमंत्री द्वारा उसकी तारीफ किए जाने की घटना भी हुई. इसने इस बात की पुष्टि की कि उत्तर प्रदेश कानून को अपने हाथ में लेना और आत्मरक्षा के नाम पर ‘एनकाउंटर’ के जरिए न्याय करना पसंद करता है. व्यापक स्तर पर देखें तो कई राज्यों में कानून के शासन की जगह शासक के फैसलों को लागू करने का चलन चल पड़ा है. कई नागरिक बेखौफ हत्या करने, जेल में बंद करने, और कानूनी अड़चनें पैदा करके राज करने वाले शासन के शिकार हो रहे हैं.

पांसा उन व्यक्तियों के लिए पक्ष में नहीं है, जिन्हें संस्थागत सुरक्षा नहीं हासिल है. इसलिए, डीएमए जब पारा स्पेशल फोर्स के 30 सैनिकों को नागालैंड पुलिस के एफआईआर और एसआईटी की जांच के निष्कर्षों से बचाव करता है तब यह राहत की बात लगती है. इस बचाव के पीछे असली तर्क क्या हैं यह आम लोगों को कभी मालूम नहीं हो पाएगा क्योंकि पुराने मामलों पर किए गए फैसलों के बारे में 2005 के आरटीआई कानून के तहत जानकारी हासिल करने की कोशिशों को राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर विफल किया जा चुका है. लेकिन पारदर्शिता की ऐसी कमी लीपापोती के संदेहों को मजबूत करती है.

देश के लिए व्यापक मसला यह है कि शासनतंत्र की ज़्यादतियों से नागरिकों की रक्षा कौन करेगा? राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों के खिलाफ ऐसी ज्यादतियों की प्रशंसा भी की जाती है, चाहे वह सत्ता का मनमाना दुरुपयोग क्यों न दिखता हो. नेता-पुलिस मिलीभगत के अत्याचार तेज होते जा रहे हैं और वे कभी-कभी तो खुद ही जांचकर्ता, वकील, जज, जेलर, और जल्लाद तक की भूमिका में दिखते हैं. इसे जब दूसरी संस्थाओं और सरकारी तंत्र के दुरुपयोग के साथ जोड़कर देखा जाए, तब यह कहना मसले को कमतर आंकना ही होगा कि भारत की लोकतान्त्रिक साख कमजोर हो रही है.

लेकिन, बेकसूर लोगों की मौत के मामले में 30 सैनिकों को राहत देने के सरकारी फैसले को सत्ता का दुरुपयोग नहीं मानना चाहिए. बल्कि उसने अपने अधिकारों का उपयोग करके उन सैनिकों को सुरक्षा प्रदान की है, जिन्होंने युद्ध जैसी परिस्थितियों में अच्छी मंशा से कार्रवाई की. दुख की बात यही है कि इस मामले में कीमत बेकसूर लोगों को अपनी जान गंवा कर देनी पड़ी है, जिसकी कोई भरपाई नहीं हो सकती.

देश के लिए चिंता की असली वजह यह होनी चाहिए कि राजनीतिक नेतृत्व अपनी सत्ता का व्यापक दुरुपयोग कर रहा है और उसे उन संस्थाओं से सुरक्षा प्रदान की जा रही जिन्हें ऐसे दुरुपयोग को रोकने के लिए बनाया गया है. अधिनायकशाही मजबूत हो रही है और चिंता की बात यह है कि इसे जनता का व्यापक दलीय समर्थन हासिल हो रहा है. कई सामाजिक-राजनीतिक ताक़तें अपने ही पूजनीय देवताओं पर हावी हो रही हैं और तेजी से अपने आपमें कानून बन रही हैं. भगवान ऐसी ताकतों से जनता की रक्षा करें!

लेफ्टिनेंट जनरल (डॉ) प्रकाश मेनन (रिटायर) रणनीतिक अध्ययन कार्यक्रम, तक्षशिला संस्थान के निदेशक हैं; राष्ट्रीय सुरक्षा परिषद सचिवालय के पूर्व सैन्य सलाहकार भी रहे हैं . वह @prakashmenon51 ट्वीट करते हैं. यहां व्यक्त विचार निजी हैं.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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