होम मत-विमत भारत में पूर्वी एशियाई मॉडल से इतर ‘आर एंड डी’ में सुधार...

भारत में पूर्वी एशियाई मॉडल से इतर ‘आर एंड डी’ में सुधार बेहद जरूरी हो गया है

भारत ने पूर्वी एशिया के देशों से अलग रास्ता अपनाया है और कुछ सेक्टर्स में ही ज्यादा उत्पादन करके लागत घटाई गई है, लेकिन भारत की व्यापारिक सफलता की संभावना वैल्यू एडेड निर्यातों में ही है.

प्रज्ञा घोष | दिप्रिंट

अपनी बेहद पठनीय किताब ‘द स्ट्रगल एंड द प्रोमिस: रिस्टोरिंग इंडियाज़ पोटेंशियल’ में नौशाद फोर्ब्स ने उस संदेश को रेखांकित किया है जो ‘बिजनेस स्टैंडर्ड’ अखबार के उनके मासिक कॉलम का केंद्रबिंदु रहा है. वह संदेश है आविष्कार, अनुसंधान और विकास (आर एंड डी) के महत्व पर ज़ोर.

उस व्यापक विमर्श के दायरे में वे इस बात पर भी नज़र डालते हैं कि भारत की कंपनियां बिक्री और मुनाफे के बारे में ‘आर एंड डी’ पर खर्च करने के मामले में कितनी बुरी स्थिति में हैं और वे दूसरे देशों की कंपनियों से कितनी पीछे हैं. यह स्थिति तब है जब भारत में औद्योगिक विकास अब ठेठ विकासशील अर्थव्यवस्था के मुक़ाबले टेक्नोलॉजी और हुनर पर काफी निर्भर हो गया है.

उक्त किताब ने इसके कई कारण गिनाए हैं— सरकार की प्रतिबंधमूलक नीति, कंपनियों का छोटा आकार, आदि— लेकिन अंततः वह इसी अखबार के एक पूर्व स्तंभकार अशोक देसाई के नजरिए पर निर्भर दिखते हैं, कि भारतीय फ़र्मों में टेक्नोलॉजी से संबंधित गतिशीलता की कमी उनकी प्रबंधन व्यवस्था के कारण है. शुक्रवार को इस किताब के विमोचन के मौके पर इस सवाल पर थोड़ी चर्चा हुई कि क्या इसका ताल्लुक जाति से भी है? पिछले साल जनवरी में ‘इकोनॉमिस्ट’ पत्रिका ने इस बात का विश्लेषण किया था कि अमेरिका की बड़ी, टेक आधारित फ़र्मों में शीर्ष पदों पर पहुंचने वाले भारतीयों में ब्राह्मण जाति वाले आगे हैं. पत्रिका ने कहा था कि यह भारत के ‘प्रोमोटर’ आधारित कॉर्पोरेट सेक्टर की जातीय संरचना के उलट है, जिसमें वैश्य जाति वालों का वर्चस्व है.

‘आर एंड डी’ के प्रति अलग-अलग दृष्टिकोण (आप चाहें तो फोर्ब्स वाले विरोधाभास को देख सकते हैं), और कौन जाति कहां सफल है, इन सबकी वजह क्या भारत में वैश्यों/बनियों के जातीय नेटवर्क और उनके कारोबार में नकदी के प्रवाह पर ज़ोर देने की तुलना में ब्राह्मणों के ज्ञान आधारित पेशों के स्वरूप में छिपी है?

लेकिन लेखक का तर्क था कि भारत में ज़्यादातर सॉफ्टवेयर फ़र्में भी ब्राह्मण चला रहे हैं और वे ‘आर ऐंड डी’ पर बहुत कम खर्च कर रही हैं. अपनी किताब में वे इसकी वजह बताते हैं— वे सर्विस देने वाली कंपनियां हैं, उत्पाद देने वाली नहीं.

अच्छी पत्रकारिता मायने रखती है, संकटकाल में तो और भी अधिक

दिप्रिंट आपके लिए ले कर आता है कहानियां जो आपको पढ़नी चाहिए, वो भी वहां से जहां वे हो रही हैं

हम इसे तभी जारी रख सकते हैं अगर आप हमारी रिपोर्टिंग, लेखन और तस्वीरों के लिए हमारा सहयोग करें.

अभी सब्सक्राइब करें

वे सही कह रहे हैं लेकिन यह भी सच है कि इन कंपनियों ने प्रति कर्मचारी कमाई पहले के मुक़ाबले दोगुनी, तिगुनी कर ली है. यह बताता है कि वे अपने प्रारंभिक दिनों के मुक़ाबले अब कहीं ज्यादा वैल्यू एडिड काम कर रही हैं.

यह बात भारत के पूरे कॉर्पोरेट सेक्टर के बारे में नहीं कही जा सकती, हालांकि यह सच है कि उत्पाद की गुणवत्ता में भारी सुधार हुआ है (इसकी कुछ वजह विदेशी कंपनियों से प्रतिस्पर्द्धा है). भारत की दवा फ़र्म, दवाओं को पेटेंट सुरक्षा से बाहर लाने में सफलता हासिल कर ली है; और टेलिकॉम फ़र्में बेहद कम कीमत पर अपनी सेवाएं देने के उपाय ईजाद कर लिए हैं. लेकिन ये सब अपवाद ही हैं.

यह महत्वपूर्ण क्यों है? इसका जवाब यह है कि भारत ने विकास के लिए पूर्वी एशिया के देशों से अलग रास्ता अपनाया है और आगे भी अपनाता रहेगा. पूर्वी एशिया के देशों ने श्रम-केंद्रित कारखानों द्वारा तैयार कम लागत वाले उत्पादों की बाढ़ ला दी. भारत में इन उद्योगों की सफलता संदिग्ध है क्योंकि केवल कुछ सेक्टरों में ही ज्यादा उत्पादन करके लागत घटाई गई है, और वे श्रम केंद्रित नहीं हैं (जैसे ऑटोमोबाइल).

एक खास तरह का दोहरापन भी है. कम शिक्षित कारख़ाना मजदूरों के साथ सस्ते, शिक्षित, व्हाइट कॉलर वाले कामगार भी काम करते हैं. व्हाइट कॉलर वाले कामगारों ने सेवाओं के निर्यात की कहानी लिखी है, जिनमें भारी वृद्धि हुई है जबकि व्यापारिक माल के निर्यात में ठहराव आया है. पिछले दो साल में व्यापारिक माल के निर्यात में इकाई अंक वाली वृद्धि हुई है लेकिन सेवाओं के निर्यात में 60 फीसदी की वृद्धि हुई है.

व्यापारिक माल के निर्यात में बड़ी कमी के कारण आम तौर पर रुपये के बाह्य मूल्य में कमी आती और कम लागत वाले श्रम-केंद्रित मैनुफैक्चरिंग प्रतिस्पर्द्धी हो जाता. लेकिन सेवाओं के निर्यात से आई डॉलर की बाढ़ से रुपये का मूल्य बढ़ता है और श्रम-केंद्रित मैनुफैक्चरिंग के लिए पांसा उलटा पड़त है, जो पहले ही ऊंची लागत वाले इंफ़्रास्ट्रक्चर और लागत में कमी न आने की वजह से मुश्किल में है. ‘चीन के साथ एक और’ वाली तैयारी कुछ नए श्रम-केंद्रित अवसर तो बनाती है लेकिन भारत की व्यापारिक सफलता की संभावना वैल्यू एडिड निर्यातों में ही है, जिसके लिए डॉ. फोर्ब्स के मुताबिक आविष्कार और ‘आर एंड डी’ निर्णायक है.

इससे भारत में कई लाख रोजगार के अवसर बेशक नहीं उभरेंगे मगर रोजगार के मोर्चे पर विफलता खोए हुए अवसरों की देन है. आज भारत में रोजगार के अवसरों का भविष्य मान्यता के विपरीत कृषि क्षेत्र में है, बशर्ते हम उच्च मूल्य वाले रोजगार-केंद्रित कृषि को अपनाएं जिससे उत्पादकता, रोजगार, और वेतन भुगतान में वृद्धि होगी. दुनिया को परास्त करने वाली मैनुफैक्चरिंग में सफलता हासिल करने के लिए भारत को फर्मों के स्तर के ‘आर ऐंड डी’ और आविष्कार में निवेश करना होगा.

(विचार निजी हैं. बिजनेस स्टैंडर्ड से विशेष प्रबंध द्वारा)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


यह भी पढ़ें: लोगों की कमी के बावजूद NIC में 2014 से लगभग 1,400 नए पदों को नहीं मिली मंजूरी


 

Exit mobile version