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किस विचारधारा के लिए और कैसे लड़ेंगे राहुल?

उनके और देश दोनों के लिए बेहतर होगा कि नये मुकाबले से पहले स्थितियों और परिस्थितियों का सम्यक आकलन कर अपने सरंजामों की बेहतरी सुनिश्चित कर लें.

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राहुल गांधी की फाइल फ़ोटो | पीटीआई

क्या पता राहुल गांधी ने कभी प्रेमचंद को पढ़ा है या नहीं. इस देश के नेताओं की नई जमातें अब वैसे भी लिखने-पढ़ने में ज्यादा दिलचस्पी नहीं रखतीं और उसे दकियानूसी भरा काम मानती हैं. लेकिन इस बात का क्या किया जाए कि लोकसभा चुनाव में बुरी तरह परास्त होने के फौरन बाद राहुल ने कहा कि उनकी पार्टी भाजपा के साथ अपना विचारधारागत संघर्ष स्थगित नहीं करने वाली और अब ऐलान कर रहे हैं कि भले ही उसके सिर्फ 52 सांसद चुनकर आए हैं, वह लोकसभा में भाजपा की घृणा, कायरता व गुस्से की राजनीति को कतई वॉकओवर नहीं देगी और संविधान की रक्षा के लिए इंच-इंच लड़ेगी, तो बरबस मुंशी दयानारायण निगम को लिखे प्रेमचंद के पत्र की यह बात ही याद आती है कि ‘हारने के पश्चात, पटखनी खाने के बाद, धूल झाड़कर खड़े हो जाना चाहिए और फिर ताल ठोंक कर विरोधी से कहना चाहिए-एक मुकाबला और.’

राहुल के इन कथनों को इस खास संदर्भ में देखा जाना चाहिए कि भाजपा और खासकर नरेन्द्र मोदी के उत्पाती व उन्मादी समर्थकों को लोकसभा चुनाव में अप्रत्याशित जीत हासिल करके भी विनम्र होना गवारा नहीं है. मोदी की चिकनी-चुपड़ी बातों व नसीहतों को दरकिनार कर वे दलितों, अल्पसंख्यकों व कमजोर वर्गों पर नये सिरे से आक्रामक हो उठे हैं और इस आक्रामकता को नई ऊंचाई पर ले जाकर यह जताने की कोशिश कर रहे हैं कि जैसे चुनाव लड़कर देश की सत्ता पर कब्जा कर लेने और उस पर हमला करके अपने अधीन कर लेने में कोई फर्क ही न होता हो! यकीनन, इस हालात का जवाब फौरन से पेशतर मुकाबले की तैयारियां करके ही दिया जा सकता है.


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अच्छी बात है कि राहुल समझते हैं कि कांग्रेस अपने दुर्दिन में भी विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी है और इस कारण नये मुकाबलों में उसकी सबसे बड़ी भूमिका रहने वाली है. यह भी अच्छी बात है कि उन्होंने बिना विलम्ब किये नये मुकाबले की तैयारियों के संकेत दे दिये हैं. लेकिन उनकी इन दोनों ही अच्छी बातों को बेहद खराब बातों में बदल जाते देर नहीं लगेगी, अगर वे दो-दो करारी शिकस्तों के बावजूद अपनी और विरोधी की शक्तियों का ठीक-ठीक अंदाजा लगाये बिना अपनी क्लांत कतारों को फिर से ‘आगे बढ़ो’ का आदेश सुना देंगे. इसलिए उनके और देश दोनों के लिए बेहतर होगा कि नये मुकाबले से पहले स्थितियों व परिस्थितियों का सम्यक आकलन कर अपने सरंजामों की बेहतरी सुनिश्चित कर लें.

हिन्दी में युयुत्सावाद के प्रवर्तक कवि शलभ श्रीराम सिंह ने 1992 में अपनी ‘तुमने कहां लड़ा है कोई युद्ध’ शीर्षक कविता में संभवतः ऐसी ही परिस्थितियों के लिए लिखा था-कमजोर घोड़ों पर चढ़कर युद्ध नहीं जीते गए कभी/कमजोर तलवार की धार से मरते नहीं हैं दुश्मन/कमजोर कलाई के बूते उठता नहीं है कोई बोझ./भयानक हैं जीवन के युद्ध/भयानक है जीवन के शत्रु/भयानक हैं जीवन के बोझ/यथार्थ के पत्थर/कल्पना की क्यारियों को/तहस-नहस कर देते हैं./…कद्दावर घोड़ों/मजबूत तलवारों/दमदार कलाइयों के बिना/मैदान मारने की बात बेमानी है.

साफ है कि अगर राहुल और उनकी पार्टी को नरेन्द्र मोदी की सरकार, भाजपा या राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ परिवार से सचमुच विचारधारा की लड़ाई लड़नी है, तो सबसे पहले अपनी उस वैचारिक दुविधा से निजात पानी होगी, जो कई बार ऐसे मुकाबलों में उन्हें ठिठककर सड़क के बीचोबीच आ खड़ी हुई बिल्लियों में बदल डालती है.

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उनकी दुविधा की यह बीमारी अब इतनी पुरानी कहें या कि जटिल हो गई है कि निर्णायक क्षणों में उनसे इतना भी संभव नहीं होता कि थोड़ा-सा जोखिम लेकर दाहिने या बायें किसी भी तरफ भागकर बचने की सोचें. अकारण नहीं कि भाजपा ने उनके अनेक कार्ड, यहां तक कि योजनाएं भी सफलतापूर्वक उनसे छीन ली हैं और उनके बूते अपने राज की उम्र लम्बी करती जा रही है, जबकि उसको उसी के हथियारों से हराने के फेर में पड़ना कांग्रेस के अस्तित्व पर इस तरह आ बना है कि कई प्रेक्षकों को उसे भाजपा या नरेन्द्र मोदी सरकार का नीतिगत या वैचारिक प्रतिपक्ष मानना तक गवारा नहीं.

हां, इस बीमारी का जिम्मा राहुल गांधी का नहीं है. जैसे कांग्रेस का अध्यक्ष पद वैसे ही उसकी यह बीमारी भी उन्हें विरासत में प्राप्त हुई है. इस बात को यों समझना चाहिए कि जहां एक ओर कांग्रेस स्वतंत्रता संघर्ष के मूल्यों से मंडित बहुलवादी भारत के विचार की वारिस होने का दावा करती हैं, वहीं दूसरी ओर उसके ही कई नेताओं ने अपने सत्ताकाल में तात्कालिक राजनीतिक लाभों के लिए सुविधाजनक रास्तों के अदूरदर्शी चुनाव की मार्फत बड़े-बड़े शून्य पैदाकर इसके विरोधी विचार के प्रस्तावकों के लिए लाल गलीचे बिछाये हैं. अकारण नहीं कि जब भी राहुल इन प्रस्तावकों के खिलाफ कोई सवाल उठाते हैं, वे उलटे उनकी लाल गलीचे बिछाने वाली बिरासत पर हमले बोलकर उन्हें चुप करा देते हैं. गत लोकसभा चुनाव में अनेक ऐसे अवसरों पर हमने कांग्रेस और राहुल को न सिर्फ प्रतिरक्षात्मक होते बल्कि मैदान छोड़ते हुए भी देखा.

यह भी कांग्रेस की काहिली अथवा निकम्मेपन के चलते कम, राजनीतिक हानि लाभ की दुविधा में फंसने के कारण ही ज्यादा हुआ कि बहुलतावादी भारत के विचार के विरोधी लगातार उसके बरक्स एक खास तरह की मानसिकता के निर्माण की परियोजना चलाते रहे और कांग्रेस को तब तक होश नहीं आया, जब तक यह परियोजना नरेन्द्र मोदी का महानायकत्व पाकर निहाल नहीं हो उठी. इस परियोजना ने हिन्दुत्व को एक शक्तिशाली राजनीतिक मिथक में बदलना आरंभ किया तो उसका कारगर जवाब कांग्रेस को ही ढूंढ़ना था लेकिन उसने समय रहते यह जवाब ढूंढ़ने के बजाय भाजपा से उसका हिन्दुत्व कार्ड छीनने में लगना बेहतर समझा. इस लोकसभा चुनाव में भी उसने ऐसी कुछ कम कोशिशें नहीं कीं. इससे हुआ यह कि बहुलवादी भारत का वह विचार ही, जिसमें धर्मनिरपेक्षता बेहद पवित्र संवैधानिक मूल्य हुआ करती थी, चुनाव मैदान में नहीं रहा.

हाल के दशकों में हिन्दुत्ववादी शक्तियों से कांग्रेस की लड़ाई हिन्दुत्व के ही दो नरम व गरम रूपों के बीच केन्द्रित होकर रह जाती रही है, जिसमें प्रायः गरम हिन्दुत्व ज्यादा शक्तिशाली होकर उभरता और जीत जाता रहा है. अब राहुल इस हिन्दुत्व से विचारधारा के स्तर पर लड़ना चाहते हैं तो उन्हें सबसे पहले अपनी पार्टी की इस गलत लाइन को सही करना होगा. वरना ऐसे ही ‘मर्ज बढ़ता गया ज्यों ज्यों दवा की’ वाली स्थिति बनी रहेगी. उन्हें इस सवाल का जवाब भी देना ही होगा कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भाजपा व नरेन्द्र मोदी वही कर रहे हैं जो उन्हें करना चाहिए, लेकिन क्या राहुल और कांग्रेस भी वही कर रहे हैं जो उन्हें करना चाहिए? नहीं कर रहे, इसीलिए जिस हिन्दुत्ववाद से वे लड़ने का दावा कर रहे हैं, नहीं लड़ पा रहे. अभी तक उनकी कांग्रेस वहीं खड़ी है, जहां 1992 में प्रधानमंत्री पीवी नरसिंहराव यह कहकर उसे छोड़ गये थे कि हम भाजपा से तो लड़ सकते हैं, भगवान राम से नहीं!

साफ कहें तो कांग्रेस और उसके नेताओं ने जनता के विवेक को संबोधित करने व जगाने का स्वतंत्रतापूर्व का या उसके बाद के शुरुआती वर्षों का रास्ता छोड़ नहीं दिया होता तो आज राहुल को यह याद दिलाने की जरूरत ही नहीं पड़ती कि प्यार कभी नहीं हारता-हारकर भी नहीं. आदर्श के तौर पर उनकी यह बात अच्छी लग सकती है मगर राजनीति का काम सिर्फ ऐसे आदर्शों से नहीं चलता. ठोस जमीनी हकीकतें उसे कहीं ज्यादा प्रभावित करती हैं. उस जनता को भी करती ही हैं, आज जिसकी ओर देखकर आश्चर्य जताया जा रहा है कि उसने ऐसा जनादेश क्यों दे डाला कि हमारे लिए जनतंत्र की अपनी धारणा का बचाव ही मुश्किल हो गया?


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दिल्ली विश्वविद्यालय के प्राध्यापक सतीश देशपांडे के शब्द उधार लें तो जो लोग आज जनादेश पर सवाल उठा रहे या कि स्यापा कर रहे हैं, उन्होंने भी जनता के बारे में यह मानकर उसे उसके हाल पर छोड़ दिया था कि ‘वह अपने आप में ही निर्मल चीज है और उससे कोई बुरा काम हो ही नहीं सकता, जबकि जनता कोई निर्जीव या स्थिर चीज नहीं है. वह हमेशा मतिशील चपल ओर चंचल है. उसका निर्माण गठन निरंतर चलता रहता है. वह कोई वस्तु नहीं है कि एक बार बन गई तो स्थिर हो गई.’ इस जनता से यह अपेक्षा करना यकीनन बहुत ज्यादा या कि खुद को भ्रम में रखना था कि वह धर्मनिरपेक्षता अथवा बहुलवाद की पैरोकार राजनीतिक शक्तियों की तमाम बदगुमानियों के बावजूद अपने तईं हिन्दुत्ववादियों की बुराइयों से परहेज बरकरार रखेगी.

अब हिन्दुत्ववादियों ने जैसे भी, चोला बदलकर कहें या दिन-रात एक करके इस जनता की मानसिकता को अपने सांचे में ढाल लिया है, तो उसको लगातार संबोधित किये बगैर उसका मानस बदलकर उसे फिर से पुरानी जमीन पर लाना मुमकिन नहीं होगा. क्या राहुल और उनकी कांग्रेस इस लम्बी व श्रम साध्य परियोजना के लिए तैयार हैं या निकट भविष्य में हो पायेंगे? अचानक एप्रोच से तो वे इस लड़ाई को नहीं ही जीत सकेंगे.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, यह लेख उनका निजी विचार है)

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