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अनामिका के बहाने, अनामिका से ही सवाल-जवाब!

अनामिका को दिए गए अवार्ड को लेकर शोर-शराबा मचा उसने एक बार फिर इस बात को साबित किया कि, महिलाओं की जो लड़ाई वृहत्तर समाज से है, वो घूमफिर कर उनकी आपसी विवाद में क्यों तब्दील हो जाती है?

अनामिका/ फोटो: फेसबुक

बीते 12 मार्च को भारतीय भाषाओं की राष्ट्रीय साहित्यिक संस्था साहित्य अकादमी ने वर्ष 2020 के लिए, देश में बोले जाने वाली 20 भाषाओं में किए गए साहित्यिक लेखन के लिए वार्षिक पुरस्कारों की घोषणा की. इसमें हिंदी में किये गए रचनात्मक कार्यों के लिए प्रसिद्ध कवयित्री अनामिका को ये पुरस्कार उनकी 2014 में छपी कविताओं पर आधारित कृति — टोकरी में दिगंत: थेरीगाथा के लिए दी गई. वहीं अंग्रेज़ी भाषा में ये पुरस्कार अरुंधति सुब्रमण्यम को उनकी कविताओं की किताब — व्हेन गॉड इज़ ए ट्रैवलर के लिए दी गई.

लेकिन, मौजूदा समय में जब हम नैसर्गिक, सामाजिक और पैंडेमिक (महामारी) की बाध्यताओं की वजह से ज़मीन पर कम और डिजिटल स्पेस में ज़्यादा जी रहे हैं, तब सोशल मीडिया (मुख्य तौर पर फेसबुक) पर जिस तरह से अनामिका को दिए गए अवार्ड को लेकर शोर-शराबा मचा उसने एक बार फिर इस बात को साबित किया कि, महिलाओं की जो लड़ाई वृहत्तर समाज से है, वो घूमफिर कर उनकी आपसी विवाद में क्यों तब्दील हो जाती है?

इस बात में कोई शक नहीं है कि, अनामिका को मिला ये पुरस्कार न सिर्फ़ कई स्थापित स्टीरियोटाइप (स्थापित मान्यताओं) को बदलने वाला है, समाज के हर वर्ग और प्रत्येक प्रतिष्ठानों में नई बहस की शुरुआत करने की क्षमता रखता है, वहीं इसकी अपनी कुछ सीमाएं भी हैं- जो किसी बाहरी वजहों से कम बल्कि औरतों की अपनी निजी हदों के कारण ज़्यादा है.

 संपूर्ण स्त्री जाति की जीत 

सोशल मीडिया ने और कुछ किया हो या न किया हो, लेकिन उसने हर किसी को अतिवाद का शिकार बनाया है, हममें से हर कोई किसी भी घटना को लेकर पहले फ़ौरी प्रतिक्रिया देता है, जिसे वो बाद में धीरे-धीरे एक्सट्रीम लेवल यानी पराकाष्ठा की सीमा तक लेकर चला जाता है.

विडंबना ये रही कि, इस ख़ुशगवार घटना के बहाने ही सही, लेकिन हिंदी साहित्य की आभासी दुनिया में सक्रिय महिलाओं का दो खेमा खूब खुलकर एक-दूसरे के सामने आया. इसमें से एक खेमा वो था- जिसे अनामिका की सफलता में संपूर्ण स्त्री जाति की जीत दिखी.

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जिन्होंने बग़ैर अनामिका से पूछे कि, वो अपनी इस सफलता को किस तरह से लेती हैं या उसका आंकलन करती हैं, इन अति-उत्साही महिलाओं ने सोशल मीडिया पर अलग-अलग तरह से ये ऐलान करने में कोई कसर नहीं छोड़ी कि, अनामिका की ये निजी सफलता, समस्त महिला जाति की सफलता है — ये पुरुषों पर, समाज पर, पैट्रियार्की पर, मिसोजिनी पर, सत्ता प्रतिष्ठानों पर, साहित्य में हो रहे भेदभावों पर, सेक्सिज़म पर, घर के अंदर होने वाले अत्याचारों पर, महिलाओं पर होने वाली छींटाकशी पर, उनके हाव-भाव और पहनने-ओढ़ने के तरीकों पर, उनकी शिक्षा पर, सदियों से होने वाले भेदभाव पर, उन्हें सार्वजनिक जगहों पर स्पेस न देने की क़वायद पर, इतिहास में उन्हें ख़ारिज किये जाने के षडयंत्रों पर — एक कड़ा तमाचा है!


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हालांकि, मुझे शक़ है कि इस तरह का ऐलान करने से पहले इनमें से किसी ने भी ख़ुद अनामिका से पूछा हो- कि वे इस पुरस्कार को किस तरह से लेती हैं? हालांकि, इक्की-दुक्की जगहों पर उन्होंने (अनामिका) जो आधिकारिक प्रतिक्रिया दी है, उनमें उन्होंने इस तरह की कोई बात नहीं की है. उन्होंने पुरस्कार पाने के बाद जिस भावना को व्यक्त किया वो संतोष का था.

उन्होंने कहा कि, ‘मेरे भीतर जो औरतों की दुनिया का एक गांव बसता है, जहां से मुझे अनेकों किरदार मिले- मैं उनके साथ न्याय कर पायीं.’ अपने इसी वक्तव्य में उन्होंने स्त्रियों के संवाद की क्षमता को पुरुषों के मैचोइज़्म या मर्दाना व्यवहार के सामाजिक विकल्प के तौर पर प्रस्तुत किया है. ऐसे में यहां पर ये सवाल जायज़ तौर पर खड़ा होता है कि क्या ये महिलाएं जाने-अंजाने अनामिका की सोच, उनकी साहित्यिक निष्ठा, उनके साहित्यिक कृतित्व और यात्रा पर आघात नहीं कर रही हैं?

जैसा, मैं अपनी कुछ मुलाक़ातों और अनामिका की कहानियों, कविताओं और उनके बारे में लिखे अन्य लोगों की राय से समझ पायी हूं, वो ये है कि उनके व्यक्तिव की सबसे महत्वपूर्ण बात जो उन्हें विशिष्ट बनाती है, वो है उनका स्नेहिल होना, किसी पर नाराज़ न होना, हर किसी को ध्यानपूर्वक सुनना, बोलने का मौका देना, प्रोत्साहित करना इत्यादि. इसके लिए एक शब्द है अंग्रेज़ी का इनक्लूसिव होना जिसका हिंदी में अर्थ होता है समावेशी नज़रिया अपनाना. दुख़ की बात है कि उनकी इस सफलता पर जो प्रतिक्रियायें आयीं वो पूरी तरह से इसके उलट थीं.

अगर, कुछ दूसरे लोगों (साहित्य से जुड़ी महिलाओं का एक दूसरा खेमा) को ऐसा लगता है कि ये पुरस्कार, फिलहाल वक्त़ के सामाजिक-राजनैतिक और स्त्रीद्वेशी माहौल जैसी वजहों के कारण कोई क्रांतिकारी सफलता नहीं है तो उसके पीछे उनके अपने तर्क हैं — लेकिन पुरस्कार स्वीकार करना या न करना एक लेखक़ का निजी फैसला होता है. अगर वहां पर कोई इस बात को बार-बार अंडरलाइन करता है कि अनामिका का पुरस्कार स्वीकार न करना बड़ी सफलता होगी तो माफ़ करें — एक बार फिर से ये उनके निजी स्पेस का अतिक्रमण है. साथ ही उनकी सामाजिक-राजनैतिक सोच पर प्रश्नचिन्ह लगाने जैसी क़वायद?

कुल मिलाकर हो ये रहा है कि अनामिका के बहाने आज की जागरूक और व्यवसायी स्त्री, उनके (अनामिका) सफलता के एप्रोप्रियेशन (उपयोग) में लगी हैं. जैसा कि लेखिका और कहानीकार, प्रत्यक्षा कहती हैं, ‘बेशक ये हम सब के लिए खुशी की बात है, लेकिन अनामिका की इस उपलब्धि से अगर कुछ हम सीख सकते हैं या ले सकते हैं तो वो है उनसे प्रेरणा, कि हम भी ऐसा काम करें कि, हमारे काम को ये पहचान मिले. ये पल उनका है, उन्हें इसे जीने दीजिए — उसका इस्तेमाल अपनी निजी महत्वकांक्षाओं के लिए न कीजिए.’

अनामिका के बहाने

अनामिका इस अवार्ड को स्वीकार करना चाहती हैं या नहीं, इसका फ़ैसला करने लिए वो पूरी तरह से सक्षम हैं, उसी तरह से स्त्री आंदोलन और उससे जुड़ी यात्राओं को देखने-समझने की नज़र हर किसी की अलग है – जिसका सम्मान होना बेहद ज़रूरी है.

अनामिका की आड़ में जिस तरह से महिला रचनाकारों का दो खेमा आपस में ही आरोप-प्रत्यारोप में लगा रहा है, वो सबसे ज़्यादा जिस चीज़ के विपरीत है तो वो है अनामिका की साहित्यिक और जीवन यात्रा. एक बेहद गंभीर, सजग, रचनात्मक और क्रंस्ट्रक्टिव महिला जिन्होंने बिना किसी शोर-शराबे के निजी से लेकर पब्लिक स्पेस में अपने लिये और अपने साथ-साथ अन्य औरतों के लिए भी स्पेस बनाने और परिभाषित करने में महत्वपूर्ण योगदान दिया — उनके नाम पर की जा रही ये राजनीति, अगर सबसे ज़्यादा किसी चीज़ का नुक़सान कर रही है तो वो सदियों से चल रही फेमिनिस्ट आंदोलन का ही, जो ज़रा सी लापरवाही के कारण डी-रेल हो सकती है या जो होती रहती है.

किसी को अपने मतानुसार बोलने की आज़ादी देना, सोचने की सहूलियत देना, अपने फ़ैसले ख़ुद लेने-देने के लिए सशक्त बनाना, विपरीत सोच को स्पेस देना और विरोधाभास होने पर नेमकॉलिंग न करना ही — अनामिका और उनके जैसी अनेक महिलाओं द्वारा किये गए मील के पत्थर मानिंद काम को स्वीकार करना और सम्मान देना होगा.

जो हो रहा है — उससे सबसे ज़्यादा किसी चीज़ का नुक़सान हुआ है तो वो है अनामिका की अनग़िनत कविताओं और कहानियों में बसी स्त्री किरदारों के आत्मसम्मान, स्वाभिमान और स्वायत्ता का क्षरण, जिसे अनामिका भी पसंद नहीं करेंगी.

(लेखिका दिल्ली स्थित पॉलिसी थिंक-टैंक ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में bilingual डिजिटल एडिटर के पद पर कार्यरत हैं. यहां व्यक्त विचार निजी हैं.)


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