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कश्मीरियों के साथ 700 साल से ‘वोतलबुज’ का खेल खेला जा रहा है

कश्मीर में चल रहा संघर्ष अब तथाकथित 'आज़ादी' से ज़्यादा जिहाद के लिए चल रहा है. अनुभव और हज़ार साल का इतिहास कहता है कि कारण धार्मिक ज़्यादा है.

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एक आर्मी जवान पुलवामा के आतंकी हमले वाली जगह पर तैनात | पीटीआई

सैकड़ों साल पहले जब कश्मीर पर मुस्लिम शासन था तो यहां के रईस मुसलमान अपने मनोरंजन के लिए एक खेल खेलते थे. खेल का नाम था ‘वोतलबुज’. वो डल झील के किनारे कुरसियां लगाकर बैठ जाते. उनके बाशिंदे जा-जाकर गरीब, काम करनेवाले हिंदुओं को पकड़कर लाते. दिनभर काम करके कुछ कमाई करके शाम को घर लौटूंगा, इस खयाल से सुबह रोजी के लिए निकला वह हिंदू, जब इनके शौक के लिए पकड़ा जाता, तब तक तो उसे मालूम भी नहीं होता था कि आज वह घर लौट नहीं पाएगा. ऐसे कई हिंदुओं को जबरदस्ती वहां लाकर खड़ा कर दिया जाता था.

उनके हाथ-पैर बांधकर उन्हें चटाई में लपेटकर बांध दिया जाता था और एक-एक करके उन्हें झील में फेंक दिया जाता था. जिसे फेंका गया है वो अपने आपको बचाने के लिए चटाई में लिपटे-लिपटे ही ऊपर आने की कोशिश करता था. डूबनेवाला अपनी जान बचाने की कोशिश में कितनी बार ऊपर आएगा, इस बात पर किनारे बैठे लोग शर्त लगाते.


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हारते या जीतते, पर जिस पर शर्त लगाई थी वो तो कश्मीर में हमेशा से हारता आया है. कोशिश जरूर करता कि मैं जी जाऊं. फिर ऊपर आने की कोशिश करता, फिर डूब जाता. फिर ऊपर आता. फिर डूबने लगता. ज्यादा देर जिंदा भी नहीं रह पाता, क्योंकि बंधे हुए हाथों से कोई कैसे तैर सकता है? ज्यादा देर न सांस को रोक पाता. न पानी को अपने अंदर समाने से रोक पाता. बाकी रहते उसकी आखिरी सांस के कुछ बुलबुले, जो उसकी मौत की खबर किनारे वालों को दे देते थे.

जबसे पुलवामा के उस 20 साल के आदिल अहमद डार का वो विडियो देखा है जिसमें वो इस्लाम की रक्षा, महिलाओं के लिए पर्दा और खुद के मर जाने को इस्लाम की राह में शहादत बता रहा है, तब से मेरे मन के भीतर भी एक ‘वोतलबुज’ सा खेल जारी है. कभी डूब सा रहा हूं तो कभी उबरने के लिए छटपटा रहा हूं. मैं बार बार कश्मीर के एक हज़ार साल के इतिहास को याद कर रहा हूं.


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बार-बार एक हिन्दू राज्य से मात्र 4 प्रतिशत हिन्दू आबादी तक पहुंचने की उस यात्रा को सोच रहा हूं. सोच रहा हूं कि कैसे धीरे धीरे हम कश्मीरी पंडितों और बाकी हिंदुओं का खान पान,रहन सहन,पहनावा सब बदलता गया और हम शांति प्रिय लोग तब तक सहन करते रहे, जब तक 1989-90 में मस्जिदों से लाउड स्पीकर खुले तौर पर ‘रालिव’, ‘गालिव’, या ‘चालिव’, यानी या तो हम जैसे (मुसलमान) हो जाओ, या घाटी छोड़ भाग जाओ या फिर मरने के लिए तैयार हो जाओ, के नारे देने न लगे.

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हम तब तक शांति का इंतज़ार करते रहे जब तक घाटी में दिख रही मारकाट के पीछे हमें सिर्फ दहशतगर्दी और राजनीतिक कारण दिखे. हम सोचते रहे कि राजनीतिक तौर पर मुद्दा जल्द ही सुलझेगा और घाटी शांत होगी ,सूफी परंपरा वाली घाटी में हम फिर लौटेंगे और जैसे पहले खुले दिल से एक साथ रहते थे , फिर रहेंगे. एक कश्मीरी होने के नाते मेरा विश्वास है कि एक आम कश्मीरी शांति चाहता है.

विगत 14 फरवरी की घटना ने और उन 44 शहीदों की शहादत ने मुझे एक बार फिर सोचने पर मजबूर कर दिया है क्या वाकई घाटी में जो आतंक और आतंकी कार्यवाई लगातार जारी है, उसका कारण क्या सिर्फ राजनीतिक है? अनुभव और हज़ार साल का इतिहास कहता है कि कारण धार्मिक ज़्यादा है. कश्मीर में चल रहा संघर्ष अब तथाकथित ‘आज़ादी’ से ज़्यादा जिहाद के लिए चल रहा है.


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जिहाद के नाम पर डार जैसे नवयुवकों को मानव बम में तब्दील किया जा रहा है. ध्यान देने की बात ये है कि आए दिन वायरल होते वीडियो कश्मीर की आज़ादी से कहीं ज़्यादा इस्लाम की रक्षा की बात कर रहे हैं. इन युवकों को धर्म विशेष के नाम पर भटकाया जा रहा है. ऐसा पहली बार नहीं हुआ है. करीब दो साल पहले भी कश्मीर में एक मस्जिद ने हिज्बुल कमांडर जाकिर मूसा के इस्लामिक जिहाद के आह्वान का खुलकर समर्थन किया था. ऐसा लगता है कि हम दो चीजों के घालमेल को समझने में कहीं चूक कर रहे हैं. पाक अधिकृत कश्मीर और कश्मीर का राजनीतिक मुद्दा ज़रूर है, पर जो दहशत फैली और फैलाई गयी है उसके पीछे वो इस्लामिक जिहाद की भावना है जिसे भरकर पत्थर और शस्त्र जवान हाथों में पकड़ाये जा रहे हैं. जिसके अंधानुकरण में जवान बच्चे अपने घरों से गायब होकर शिवरों में ट्रेनिंग ले रहे और फिर गोलियों से भुनकर या बमों से उड़कर उस जन्नत जाने की चाह रख रहे जो किसी ने देखी ही नहीं.

अपनी किताब ‘रिफ़्यूजी कैंप’ में मैं बार-बार कह चुका हूं कि कश्मीर की समस्या को जड़ से समझे बिना इसका हल संभव नहीं. एक आम कश्मीरी शांति चाहता है, मिलजुलकर रहना भी चाहता है पर तथाकथित आज़ादी की लड़ाई, इस्लामिक जिहाद और राजनीतिक स्वार्थ के शतरंज के बीच पिचा जा रहा है. मेरा मानना है कि कोई सरकार, कोई सेना तब तक कहीं शांति नहीं ला सकती, जब तक उस भूभाग का सामाजिक तानाबाना मजबूत और शांति के लिए प्रतिबद्ध न हो जाए अगर ऐसा करना है, तो अपनी आंखों पर लगा राजनीतिक चश्मा हटाना होगा.

टीवी चैनलों पर दिख रहे कश्मीर से अलग, कश्मीर के इतिहास के जरिये इस समस्या को समझने की कोशिश करनी होगी ताकि सही दिशा में प्रयास हो सकें. जब तक ऐसा नहीं होगा,सरकारें आएंगी और जाएंगी न शांति पूरी तरह बहाल हो पाएगी न कश्मीरियत पुनर्स्थापित हो सकेगी. वो वोतलबुज का खेल जो मेरे अंदर चल रहा है, वो हर बार ऐसी घटनाओं के साथ जारी रहेगा. ये खेल जल्द ही खत्म होना ज़रूरी है क्यूंकी इस डूबने और बने रहने की छटपटाहट से निकालकर ‘कश्मीर’ और वहां अमन बहाली सबसे ज़्यादा ज़रूरी है.

(आशीष कौल रिफ्यूजी कैंप के लेखक, कश्मीर और कश्मीर से जुड़े मामलों पर काम करते रहे हैं.)

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