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सोनिया से कश्मकश भरे रिश्ते, कांग्रेस से मन भेद -रायसीना हिल्स की राजनीतिक पैंतरेबाजी पर प्रणब दा की चुप्पी खटकती है

प्रणब मुखर्जी के संस्मरणों की अंतिम किताब में असली राजनीतिक मसलों से किनारा किया गया है, विस्तार से बताने से बचा गया है, किताब बहुत कुछ बताने की जगह बहुत कुछ छिपा लेती है इसलिए बहुत निराश करती है

चित्रण सोहम सेन/दिप्रिंट

दिवंगत प्रणब मुखर्जी के संस्मरणों की किताब ‘द प्रेसीडेंशियल इयर्स’ के तीन खंड पढ़ने के बाद अगर आप उसका चौथा खंड पढ़ेंगे तो आपको सबसे मार्के की बात यह लगेगी कि उनका मूड, उनका सुर बदल गया है और वे सचबयानी से परहेज करते हैं. याद रहे, मैं यह नहीं कह रहा कि वे असत्य कह रहे हैं. वे सच कहने से बस हिचक गए हैं.

इसकी वजह शायद यह हो सकती है कि उनके निधन के बाद प्रकाशित ताजा खंड में उन्होंने जिन वर्षों की बातें की हैं वे अभी-अभी हाल में बीती हैं. या यह भी हो सकता है कि एक ‘दल-निरपेक्ष व्यक्ति’ के रूप में राष्ट्रपति भवन में बीते अपने दौर के बारे में वे भावी पीढ़ी को जो कुछ बताना चाहते थे उसमें उन्होंने काफी आत्म-संयम का काम लिया.

इस बात को वे तब बहुत सावधानी से रेखांकित करते हैं, जब वे यह बताते हैं कि उन्होंने 2014 के चुनाव में मतदान क्यों नहीं किया था. कहा गया है कि यह परहेज इस तथ्य के दबाव से उपजा था कि उनकी दो संतानें कांग्रेस पार्टी की पूर्णकालिक और सशक्त नेता हैं, या शायद इस एहसास से उपजा था कि उन दोनों में सहोदरों के बीच चलने वाली प्रतिद्वंद्विता थी. लेकिन यह कारगर नहीं हुआ, जिसका परिचय इस बात से मिलता है कि उनके इस नीरस-से खंड के प्रकाशन के बाद उनके बेटे और बेटी में झगड़ा खुल कर सामने आ गया.

आश्चर्य करने वाली बात यह है कि प्रणब जटिलताओं में उलझने से बचने की कोशिश करते नज़र आते हैं. यह कुछ हद तक निराश भी करता है क्योंकि सार्वजनिक जीवन में वे बहुत नाप-तौलकर, सावधानी से चुने हुए कम शब्दों में बोलने के लिए जाने जाते थे. किसी मसले या फैसले में वे तभी दखल देते थे जब उन्हें पक्का विश्वास होता था कि वे उसके बारे में बेहतर जानते हैं, चाहे दूसरे लोग उनसे सहमत हों या नहीं. उन्हें गुस्सा बहुत जल्दी आता था.


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याद कीजिए, किस तरह उन्होंने आयकर एक्ट में पिछली तारीख से संशोधन करने का विवादास्पद कदम उठाया था. सरकार में सोनिया गांधी से लेकर मनमोहन सिंह और केंद्रीय मंत्रिमंडल में पी. चिदम्बरम, कमलनाथ, कपिल सिब्बल जैसे वरिष्ठ सहयोगी तक इसके खिलाफ थे. मगर प्रणब दा अपने फैसले पर अडिग थे— हमारी संप्रभुता है, हम कर-मुक्त क्षेत्र नहीं हैं, जो मुनाफा कमा रहा है उसे टैक्स देना ही होगा. इसलिए, फर्क नहीं पड़ता कि इस फैसले से निवेश और बाज़ारों पर क्या असर पड़ता है. संप्रभुतासंपन्न सरकार कार्रवाई करेगी. इससे अर्थव्यवस्था को क्या नुकसान पहुंचता है, या अंतरराष्ट्रीय अदालतों में हमें लगातार शर्मसार होना पड़ता है तो हम बस पछतावा ही कर सकते हैं.

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फिर भी, इस खंड ने कुछ सुर्खियां हासिल की है. एक तो उस दौर के बारे में उनके जिक्रों ने सुर्खियां हासिल की, जब वे राष्ट्रपति भवन में थे और पार्टी में नहीं थे. वे केवल चलते-चलते जिक्र-सा करते हैं कि सोनिया गांधी संकट के वर्षों में पार्टी को प्रभावी नेतृत्व देने में विफल रहीं. वे कहते हैं कि अगर वे मंत्रिमंडल में रहते तो ममता बनर्जी को यूपीए से अलग नहीं होने देते, या आंध्र प्रदेश का विभाजन करके तेलंगाना नहीं बनाने देते.

वे आपकी उत्सुकता तो जगाते हैं लेकिन यह नहीं बताते कि वे ऐसा कैसे करते. वाइ.एस. राजशेखर रेड्डी के असमय निधन के आंध्र के मामले में उनका क्या राजनीतिक रुख क्या होता? वे सोनिया पर हल्का-सा आक्षेप करके आगे बढ़ जाते हैं. लेकिन अगर वे यह उम्मीद कर रहे होंगे कि यह इतना हल्का है कि सोनिया देखकर भी इसकी अनदेखी कर देंगी, तो आप यही निष्कर्ष निकाल सकते हैं कि इस मामले में वे अपनी मशहूर सहज बुद्धि भूल गए. और अगर वे यह सोच रहे होंगे कि ऐसा करके वे उन्हें कोई राजनीतिक नुकसान पहुंचा देंगे, तो आप यह सोच सकते हैं कि वे तो राजनीति से काफी पहले ही अलग हो चुके थे. क्या प्रणब मुखर्जी जैसे नेता राष्ट्रीय राजनीति की वर्तमान सच्चाइयों को या अपनी पूर्व पार्टी की वर्तमान दशा को भूल सकते थे? प्रकाशकों की तो यही ख़्वाहिश होती है कि उनकी किताबें सुर्खियां हासिल करें. यह किताब इसमें कुछ सफल होती है. लेकिन सुर्खियों के नीचे की सामग्री कहां है? वह तो लापता है.

वे यह भी बताते हैं कि गठबंधन को एकजुट करने की जद्दोजहद ने मनमोहन सिंह को किस तरह संसद से दूर रहने को मजबूर किया और सांसदों से संवाद करने से रोका. दूसरी सुर्खी उनके इस बयान से यह बनती है कि मनमोहन सिंह को तो गद्दी सोनिया गांधी की पेशकश से मिली, जबकि नरेंद्र मोदी ने इसे अपनी मेहनत से हासिल किया. यह और बात है कि इस तरह की सीधी-सी तथ्यबयानी आज 18 साल का भी कोई शख्स कर सकता है, इसके लिए न तो यूपीएससी लेवल के जीके का ज्ञान चाहिए, न सच बोलने का विशेष साहस.

दूसरी बात यह कि इस स्तम्भ में प्रणब के पिछले तीन खंडों के बारे में भी लिखा जा चुका है. इन्हें आप इन शीर्षकों के अंतर्गत देख सकते हैं—‘द विल्डरनेस इयर्स’, और ‘दादा डोंट प्रीच’. पहला खंड उन्होंने सबसे बेबाकी से लिखा है. उसमें उन्होंने पार्टी के भीतर अपनी परेशानियों के बारे में खुलासा किया है कि राजीव गांधी ने उन्हें किस तरह खारिज कर दिया था और उनसे ‘विजातीय’ (उनका अपना शब्द) की तरह बरताव किया गया, किस तरह वे संसद के सेंट्रल हॉल में घंटों अकेले बैठे रहते थे और पार्टी का कोई भी शख्स उनके साथ दिखना नहीं चाहता था. और किस तरह उन्हें 1985 में मुंबई (तब वह बंबई थी) में अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी (एआइसीसी) के उस मशहूर अधिवेशन में शर्मसार किया गया था, जिसमें राजीव ने अपने ऐतिहासिक भाषण में कहा था कि कांग्रेस किस तरह सत्ता के दलालों की पार्टी बन गई है.

सीडब्लूसी के सदस्य के नाते प्रणब कृषि पर अपना एक प्रस्ताव एआइसीसी प्रस्ताव के रूप में स्वीकार किए जाने के लिए पेश कर ही रहे थे कि लंच की घोषणा कर दी गई, उन्हें अपना वाक्य तक पूरा नहीं करने दिया गया. बाद में उन्हें सीडब्लूसी से भी हटा दिया गया.

पहले खंड में प्रणब ने राजीव को अपनी मां का उत्तराधिकारी चुने जाने के तरीके पर भी लगभग सवाल उठाया है. वे साफ तौर पर यह तो नहीं कहते कि वे सबसे ज्यादा योग्य थे, लेकिन ब्योरे के भीतर उनका आशय काफी स्पष्ट नज़र आता है. वे इस प्रसंग को इस काफी मानीखेज टिप्पणी पर समाप्त करते हैं कि अगर कॉंग्रेस संसदीय दल (सीपीपी) और बोर्ड (सीपीबी) की बैठक तक नहीं बुलाई गई, तो क्या एक नौकरशाह पी.सी. अलेक्ज़ेंडर और राजीव के मित्र अरुण नेहरू ही फैसला कर सकते थे कि प्रधानमंत्री कौन होगा?

अगले खंड में प्रणब ने काफी संयम बरता. इसकी वजह भी शायद यह थी कि पार्टी से राष्ट्रपति भवन तक के उनके सफर को बीते ज्यादा समय नही हुआ था. पिछली तारीख से टैक्स लगाने के पक्ष में उनके तर्क, एक समाजवादी (मैं तो कहूंगा हिसाब-किताबवादी) होने के नाते मनमोहन और चिदंबरम की ‘मुक्त बाज़ार समर्थक’ नीति से उनके सैद्धांतिक मतभेद महत्वपूर्ण हैं. मेरे ख्याल से यह उनके अपने मतलब साधने की बात है. इसलिए इस स्तम्भ में इस पर मैंने जो लिखा उसका शीर्षक दिया—‘दादा डोंट प्रीच’, दादा उपदेश मत दीजिए. और किसी से ज्यादा उन्हें मालूम था कि वित्त मंत्री के रूप में उनके कार्यकाल ने यूपीए-2 को कितना कमजोर किया और अर्थव्यवस्था को किस तरह गिरावट के रास्ते पर डाला.

अगर हम यह कह रहे हैं कि बाद के खंडों में उनकी प्रखरता फीकी पड़ी है, तो इसकी वजह यह है कि ताजा खंड में बेशक कुछ चुटीले प्रसंग तो हैं मगर वे जितना कहते हैं उससे ज्यादा छिपा ले जाते हैं. उदाहरण के लिए तब, जब वे इस बात को सही ठहराते हैं कि प्रधानमंत्री ने नोटबंदी के फैसले के बारे में उन्हें यानी राष्ट्रपति को और मंत्रिमंडल को न बताकर सही किया. या जब वे यह बताते हैं कि उन्होंने अरुणाचल प्रदेश और उत्तराखंड में राष्ट्रपति शासन लगाने के सरकारी फैसले का अनुमोदन क्यों किया.


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जिस देश में सार्वजनिक हस्तियां शायद ही कोई दस्तावेज़, लेख, पत्र या किताब छोड़ जाती हैं वहां चार खंड दे जाने के लिए हम उनके आभारी हैं. लेकिन वास्तविक राजनीतिक मसलों से परहेज करके उन्होंने काफी निराश किया है. अगर वे जानते थे कि मनमोहन और सोनिया नेतृत्व के मामले कमजोर दिख रहे थे, तो खुद वे अपनी पार्टी और सिद्धांत के लिए लड़ने की बजाय राष्ट्रपति भवन में जाकर क्यों बैठ गए? उन्होंने उस कठिन दौर का कोई संकेत नहीं दिया है, जब उन्हें पता चला कि सोनिया ने उनकी जगह उपराष्ट्रपति हामिद अंसारी को राष्ट्रपति पद देने का फैसला किया था.

अब किसी को किताब लिखकर यह बताना पड़ेगा कि उन्होंने मायावती, ममता बनर्जी, शिवसेना और यहां तक कि भाजपा (एम.जे. अकबर के जरिए, जिसका संकेत उन्होंने पिछले खंड में दिया है) से संपर्क करके सोनिया को किस कौशल से विफल कर दिया था. राष्ट्रपति की कुर्सी उन्होंने सोनिया की गिरफ्त से छीन करके उन्हें यूपीए के उनके दौर में सबसे बड़ी शिकस्त दी. लेकिन प्रणब कभी सीधी बात नहीं बताते कि वे इस बात से बहुत दुखी थे कि इंदिरा गांधी के बाद गांधी परिवार ने उन्हें उनका हक़ नहीं दिया. बाद के वर्षों में तनाव बढ़ता गया, और दुनिया जानती है कि प्रणब जब बाबा रामदेव से वार्ता करने के लिए उच्चस्तरीय दल लेकर दिल्ली हवाई अड्डे पर चले गए थे तब सोनिया किस कदर नाराज हुई थीं. प्रणब सोनिया के प्रशंसक नहीं थे, राहुल के तो और भी नहीं जिनका जिक्र चलते-चलते जैसा केवल दो बार किया गया है पेज 13-14 पर.

हमें इस सवाल के जवाब का अभी भी इंतजार है कि प्रणब बनाम गांधी परिवार वाली दिग्गजों की टक्कर में कौन जीता? क्या प्रणब जीते, जिन्होंने सोनिया की मर्जी के खिलाफ राष्ट्रपति की गद्दी हासिल कर ली थी? अगर ऐसा है, तो हम उन्हें यह अफसोस करते क्यों पाते हैं कि सोनिया और उनके परिवार ने उन्हें वह पुरस्कार नहीं दिया जिसकी उन्हें चाहत थी और जिसका वे खुद को हकदार मानते थे? प्रधानमंत्री की कुर्सी.

हमें यह कैसे पता चलेगा? बेशक, वे यह सुर्खी बनने लायक या ट्विटर के काबिल किसी वाक्य में नहीं खुलासा करते. आपको उनके चारों खंड पढ़ कर ही तय करना पड़ेगा कि अपनी नज़र में वे विजेता थे या पराजित.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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