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आप चाहे कुछ भी समझें, प्रज्ञा ठाकुर का नामांकन हिंदुत्व का विज्ञापन नहीं हो सकता

जब भाजपा विपक्ष में थी तब कानून व्यवस्था के लिए आवाज़ उठती थी. उसके नेताओं को शालीन भाषा का इस्तेमाल करने के लिए जाना जाता था. साध्वी प्रज्ञा को टिकट देना इन सभी चीजों के खिलाफ है.

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चित्रण : अरिंदम मुख़र्जी के द्वारा / दिप्रिंट

एसोसियशन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स का कहना है कि लोकसभा चुनाव के तीसरे चरण में चुनाव लड़ रहे 14 प्रतिशत यानी 230 उम्मीदवार ऐसे हैं, जिनके खिलाफ गंभीर किस्म के आपराधिक मामले दायर हैं. 14 उम्मीदवारों का कहना है कि कोर्ट ने अभी उन्हें दोषी नहीं ठहराया है, जबकि 26 उम्मीदवारों के खिलाफ नफरत भरे भाषण देने के मामले दायर किए गए हैं. इस हालात में भी भाजपा ने साध्वी प्रज्ञा सिंह ठाकुर को भोपाल से अपना उम्मीदवार बनाया है. उसका यह फैसला जनभावना के प्रति उसकी अकड़ भरी उपेक्षा का ही प्रमाण है. इससे जो संदेश फैला है उससे लोग सदमे में हैं और इसकी व्यापक आलोचना हो रही है, जो कि जायज ही है.

साध्वी सज़ायाफ्ता नहीं हैं और खराब स्वास्थ्य के आधार पर जमानत लेकर जेल से बाहर आई हैं. कानूनन उन्हें उम्मीदवार बनने से रोका नहीं जा सकता, लेकिन कोर्ट ने उनके खिलाफ आरोप तय कर दिए हैं. भाजपा का कहना है कि उन्हें कांग्रेस के ‘हिन्दू आतंकवाद’ के आरोपों के जवाब में उम्मीदवार बनाया गया है. लेकिन भाजपा यह भूल रही है कि मध्य प्रदेश में जब वह सत्ता में थी तब उसकी सरकार ने ही साध्वी को हत्या के एक मामले में एक नहीं दो बार गिरफ्तार किया था. वे अब कह रही हैं कि पुलिस हिरासत में उन्हें यातनाएं दी गईं. गौरतलब यह है कि हिरासत में यातना के खिलाफ कांग्रेस ने तो अपने घोषणापत्र में एक मत प्रस्तुत किया है, जबकि भाजपा इस मसले पर चुप है.

भाजपा कभी स्वयंभू पहरुए की भूमिका निभाने वाले एक गुट के नेता रहे योगी आदित्यनाथ को उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री पद पर बिठाने से लेकर इस तरह के जो तमाम कट्टरपंथी फैसले करती रही है, उसी की एक कड़ी के रूप में है साध्वी को उम्मीदवार बनाने का उसका कदम.


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वैसे, दूसरी पार्टियां भी इस तरह के फैसले करती रही हैं जिनका समर्थन नहीं किया जा सकता. इस सिलसिले में 2006 में मनमोहन सिंह के उस असाधारण फैसले की याद आती है जब उन्होंने शिबू सोरेन को अपना एक कैबिनेट मंत्री बनाया था, जबकि सोरेन को हत्या के एक मामले में ज़मानत दी गई थी. उस समय संसद में विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने कहा था कि ‘यूपीए के राज में राजनीति का ही नहीं, मंत्रिमंडल का भी अपराधीकरण ही गया है.’ इस बयान के मद्देनज़र क्या यह नहीं कहा जा सकता है कि आज भाजपा लोकसभा का अपराधीकरण करने की कोशिश कर रही है? साध्वी ने कथित तौर पर यह बयान दिया है कि ‘हम उनका (आतंकवादियों और कांग्रेस नेताओं का) खात्मा करके उन्हें खाक में मिला देंगे.’ क्या देश संसद में इसी तरह की भाषा सुनना चाहता है?

कहा गया है कि नाकामी से ज़्यादा कामयाबी ही किसी शख्स की असली पहचान कराती है. यह कसौटी भाजपा पर भी लागू होती है. वह जब विपक्ष में थी तब नियम-कायदों की बातें करती थी मगर आज वह स्वयंभू पहरुओं की भूमिका निभाने वाले गुटों और मुसलमानों पर हमले करने वाले उनके सदस्यों के साथ खड़ी नज़र आती है.

एक ज़माना था जब इसके नेता संयमित भाषा बोलने के लिए जाने जाते थे, लेकिन आज उनकी जगह ले ली है नफरत फैलाने वाले उन तत्वों ने, जो लोगों को बांटने की बातें करते हैं और मतदाताओं को धमकाते हैं. भाजपा ‘अल्पसंख्यकों के तुष्टीकरण’ की जगह ‘सच्ची’ धर्मनिरपेक्षता की बातें तो करती है मगर उसके काम उसकी पोल खोल देते हैं और हम तो अब हिंदू राष्ट्र की बातें सुन रहे हैं. जब वह विपक्ष में थी तब स्वायत्त संस्थाओं में राजनीतिक दखल, संवैधानिक पदों पर कांग्रेस पार्टी के वफ़ादारों को बिठाए जाने, और जांच के सरकारी अधिकारों के दुरुपयोग की आलोचना करती थी, जो जायज़ थी. लेकिन पहले जो कुछ कांग्रेस ने किया वह सब भाजपा भी कर रही है.

आडवाणी ने प्रसार भारती की कल्पना एक स्वायत्त प्रसारण संस्था के रूप में की थी लेकिन आज यह सरकारी भोंपू बन गई है. टैक्स आदि को लेकर छापे भी खुल्लमखुल्ला एकपक्षीय फैसले के तहत डाले जा रहे हैं, और इन्हें सांयोगिक नहीं कहा जा सकता.

सार्वजनिक विमर्श को केवल भाजपा ही विकृत नहीं कर रही है. राहुल गांधी प्रधानमंत्री को जिस तरह निरंतर ‘चोर’ कह रहे हैं वह सरासर असंसदीय भाषा का प्रयोग है. वे नरेंद्र मोदी को ‘डरपोक’ बताते फिर रहे हैं, जो कि हास्यास्पद ही है. उनके इस बचकानेपन से हालात कोई बेहतर नहीं हो रहे हैं. दूसरे विपक्षी नेता भी अपनी कोई सम्मानजनक छवि नहीं पेश कर रहे हैं. मायावती, आजम खान, और दूसरे तमाम नेताओं ने तमाम हदें तोड़ दी हैं.


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लेकिन यह भाजपा ही है जिसने इन चुनावों को यह दुर्भाग्यपूर्ण स्वर प्रदान किया है. भारतीय राजनीति को नई दिशा देने का दावा करने वाली पार्टी के तौर पर इसे तो राजनीतिक आचार-विचार और विमर्श को सुधारने की कोशिश करनी चाहिए थी. इसकी बजाय इसने प्रज्ञा ठाकुर को अपना उम्मीदवार बना दिया. हिन्दुत्व के उच्च विचार के बारे में लोग जो भी सोचते हों, इसकी पैरवी करने वाली पार्टी की कथनी और करनी इसकी तसदीक नहीं करती.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

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