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PM Modi का भारत का आइडिया लुटियंस दिल्ली को बदलने के अलावा ‘यूरोपीय ज्ञान’ को चुनौती देने वाला है

मसला नाम, निजाम, और पहचान की राजनीति बदलने से आगे का है, वह इस धारणा के लिए एक चुनौती है कि ‘यूरोपीय ज्ञानोदय’ ने सार्वभौमिक वैधता वाले स्वाधीनता, समता, और ‘व्यक्ति के व्यापक अधिकारों’ विचार को जन्म दिया.

प्रज्ञा घोष का चित्रण | दिप्रिंट

अपने पहले कार्यकाल के अंतिम दिनों में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अफसोस जाहिर किया था कि वे लुटियंस दिल्ली यानी जिसे प्रायः अंग्रेजी में बातचीत करने वाले ‘इलीटों’ यानी कुलीनों या ‘शासक वर्ग’ की दिल्ली माना जाता है उसे जीतने में सफल नहीं हो पाए. अब जबकि वे अपने दूसरे कार्यकाल के अंतिम महीनों में पहुंच गए हैं, वे केवल राजधानी नहीं, बल्कि राष्ट्र निर्माण की बड़ी योजना के तहत इस ‘शासक वर्ग’ को जीतने से ज्यादा बदलने में सफल हुए दिख रहे हैं.

इस बड़े प्रयास के दिल्ली वाले छोर पर पुराने इलीट के बसेरों पर या तो कब्जा जमाया जा रहा है या उन्हें ध्वस्त किया जा रहा है. अपने हिसाब से काम करने वाले ‘थिंक टैंकों’ यानी विचारकों के समूहों, सिविल सोसाइटी संगठनों को फंड से महरूम किया गया है या उन्हें ऐसे लोगों के नियंत्रण में डाल दिया गया है जो इस सरकार की विचारधारा में ढले हैं. कई संगठनों को अपने बोर्ड और विचार-विमर्श समूहों में सरकार के लोगों को शामिल करने के लिए कहा गया है.

जिमख़ाना क्लब (जिसके सदस्यों ने उसे अपने ही ‘कुल-गोत्र’ वालों का बंद क्लब बना दिया था) का कामकाज अब सरकार ने अपने हाथ में ले लिया है. जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय को एक-के-बाद-एक ऐसे कुलपतियों के नियंत्रण में दिया गया, जिनका बस चलता तो वे उसका चरित्र ही बदल देते, जबकि उदारवादी शिक्षा देने वाली अशोका यूनिवर्सिटी को उदारवाद की सीमाओं का पाठ पढ़ा दिया गया है.


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स्कूलों की पाठ्यपुस्तकों को फिर से लिखा जा रहा है, जबकि अड़ियल “बाबा लोग” के टीवी स्टेशन को दोस्त व्यवसायी ने खरीद लिया है.

कहने वाले कह सकते हैं कि यह लुटियंस की दिल्ली पर भारत की चढ़ाई की कहानी से ज्यादा सरकार की चढ़ाई की कहानी है. फिर भी, इसमें ‘आइडिया ऑफ इंडिया’ को नई तरह से पेश करना शामिल है.

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दिल्ली के वास्तु नक्शे में परिवर्तनों के साथ नये कानूनों को हिंदी नाम देना, नाम परिवर्तन की झड़ी लगाना, और धर्मनिरपेक्ष स्थलों में हिंदू प्रतीकों के लिए जगह बनाना यह स्पष्ट करता है कि सरकार उपनिवेश काल के भारत की भाषा और मुहावरों से एकदम कटना और अपनी संस्कृति से गहराई से जुड़े ‘नये भारत’ को स्थापित करना चाहती है.

नया भारत, हालांकि विदेश में ‘इंडिया’ और ‘हिंदू’ शब्दों का स्रोत एक ही भाषा मानी जाती है, तो नाम बदलने से क्या हासिल होगा यह स्पष्ट नहीं है.

मसला नाम, निजाम, और पहचान की की राजनीति बदलने से आगे का है. जिस बात को आगे बढ़ाया जा रहा है वह इस धारणा के लिए एक चुनौती है कि ‘यूरोपीय ज्ञानोदय’ ने सार्वभौमिक वैधता वाले स्वाधीनता, समता, और ‘व्यक्ति के व्यापक अधिकारों’ के विचार को जन्म दिया, जिसकी उत्पत्ति फ्रांस की क्रांति से हुई और जो 150 साल बाद सार्वभौमिक मानवाधिकारों की संयुक्त राष्ट्र घोषणा में प्रतिध्वनित हुई.

भारतीय संविधान ने मौलिक अधिकारों की सूची दर्ज करके उन उदात्त मूल्यों को प्रतिबिंबित किया.

लेकिन रूस के अलेक्जेंडर दुगिन (जिन्हें पुतिन का पसंदीदा माना जाता है) जैसे विचारकों और दूसरे देशों के विचारकों ने भी पश्चिमी सार्वभौमवाद को लोकलुभावन राष्ट्रवाद के बरक्स, और व्यक्तिगत अधिकारों को सामूहिक हित के बरक्स रखा है. तर्क यह है कि सार्वभौमवाद सांस्कृतिक भिन्नताओं को खत्म करना चाहता है; इसका जवाब यह होगा कि उदारवाद उन भिन्नताओं से निपटने का रास्ता बताता है.

जाहिर है, सांस्कृतिक सापेक्षतावाद परंपरा से बंधे कुलीनों को आकर्षित करता है, हालांकि ‘एशियाई मूल्यों’ की वकालत कोई नहीं करता.

समस्या यह है कि संस्कृति से मूलबद्ध राजनीतिक व्यवस्था की खूबसूरती अक्सर उस पर नजर डालने वाले की आंखों में छिपी होती है. तमिलनाडु के नेताओं ने सनातन धर्म में दर्ज उच्चता क्रम पर अभी हाल में ही हमला बोला है. चीन चाहेगा कि अनुशासित उच्चता क्रम से उपजा समरसता का कन्फूसियन विचार ही अंतरराष्ट्रीय संबंधों पर हावी हो; लेकिन इस क्षेत्र के छोटे देश उच्चता के ऐसे अनुशासन पर आपत्ति कर सकते हैं.

इस बीच, रूसी और यूक्रेनी इतिहास, संस्कृति और पहचान के बारे में व्लादिमीर पुतिन की समझ का परिणाम सबके सामने है. संस्कृति से मूलबद्ध समाधानों या व्यवस्थाओं का आग्रह करते समय इस बात पर सावधानी से विचार किया जाना चाहिए कि यह आपको कहां पहुंचा देगा.

इंगलेहार्ट-वीजेल ने दुनिया का जो सांस्कृतिक नक्शा दो कुल्हाड़ियों के चित्रों के साथ बनाया है उस पर नजर डालें तो पता चलेगा कि भारत ने पारंपरिक से धर्मनिरपेक्ष-तार्किक मूल्यों की ओर बढ़ने की ‘स्वाभाविक’ दिशा को उलट दिया है और वह आत्म-अभिव्यक्ति वाले मूल्यों से अलग, अस्तित्ववादी मूल्यों (जो अक्सर स्थानीयता-केंद्रित नजरिए से जुड़े होते हैं) पर ज़ोर देने लगा है.

विश्लेषण का यह ढांचा इस बात को स्पष्ट कर सकता है कि मोदी सरकार जो सांस्कृतिक दबाव बना रही है वह उन लोगों के मन को छू सकता है जो उस कुलीन समूह के हिस्सा नहीं हैं, जो खुद को वास्तविकता की कसौटी पर कसता है.

लेकिन भारत कभी विरोधाभासों से मुक्त नहीं होता. ‘प्यू रिसर्च’ ने 2017 में किए गए एक सर्वेक्षण के हवाले से यह बताया है कि भारतीयों का भारी बहुमत, लोकतंत्र को बेशक मूल्यवान मानता है लेकिन बहुमत अधिनायकवादी, ताकतवर व्यक्ति के शासन और फौजी हुकूमत तक का समर्थन भी करता है.

इसलिए, ताकतवर नेता मोदी जब ‘लोकतंत्रों की जननी’ की बात करते हैं तो वे बिलकुल सही लग रहे होते हैं.

(बिज़नेस स्टैंडर्ड से स्पेशल अरेंजमेंट द्वारा)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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