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पीएम मोदी को यूपी के लोगों को सीएए विरोधी हिंसा पर सलाह देने के बजाय खुद से पूछना चाहिए

उम्मीद की जानी चाहिए कि आत्मावलोकन से परहेज खत्म होते ही प्रधानमंत्री को यकीन हो जायेगा कि उनका खुद अलोकतांत्रिक बने रहकर जनता से लोकतंत्र की मांग करने का कोई अर्थ नहीं है.

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लखनऊ में अटल की प्रतिमा के उद्धाटन और मेडिकल यूनिवर्सिटी के उद्घाटन पर बोलते पीएम मोदी, फाइल फोटो | बीजेपी ट्विटर

बुधवार को लखनऊ में अजातशत्रु अटल बिहारी वाजपेयी की जयंती पर उनकी कांस्य प्रतिमा का अनावरण और उन्हीं के नाम से स्थापित किये जा रहे चिकित्सा विश्वविद्यालय का शिलान्यास करते हुए प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने संशोधित नागरिकता कानून और राष्ट्रीय नागरिकता व जनसंख्या रजिस्टरों को लेकर आन्दोलित समूहों को सुनाकर कई बेहद अच्छी बातें कहीं. सबसे बड़ी यह कि नागरिक के तौर पर उन्हें हासिल विरोध के अधिकार से कई कर्तव्य भी जुड़े हुए हैं. पिछले दिनों उत्तर प्रदेश में विरोध प्रदर्शनों के दौरान हिंसा, आगजनी और तोड़फोड़ का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि हिंसा और तोड़फोड़ करने वालों को अब अपने घरों में बैठकर खुद से पूछना चाहिए कि क्या उनका रास्ता सही था? जो कुछ उन्होंने जलाया और बर्बाद किया, क्या वह उनके ही बच्चों के काम आने वाला नहीं था?

हां, कहना होगा, बेहतर होता कि प्रधानमंत्री ने ये बातें आन्दोलनकारियों को सुनाकर नहीं, उन्हें बुलाकर या उनके पास जाकर आमने-सामने कहते. उनके लिए खुद इसकी फुरसत निकालना मुश्किल होता तो अपने किसी प्रतिनिधि को ही उनसे बात करने को कहते. इससे न सिर्फ उनकी लोकतांत्रिकता का पता चलता बल्कि यह कहने वालों को करारा जवाब मिल जाता कि वे और उनकी सरकार इन आन्दोलनकारियों को नागरिक ही नहीं मानते.

किसे नहीं मालूम कि लोकतंत्र में लोगों के बीच फैले उद्वेलन को, वे किसी भी तरह के क्यों न हों, बढ़ने और विकराल होने से रोकने के लिए संवाद को ही सबसे अच्छा उपाय माना जाता है. वह होता तो अब तक उसका इंतजार कर रहे विक्षुब्ध आन्दोलनकारी अपने गिले-शिकवे भी कह लेते. यह भी कि वे करें तो क्या, प्रधानमंत्री की पार्टी की उत्तर प्रदेश सरकार उनसे उनके आन्दोलन के पहले दिन से ही अनागरिकों जैसे बर्ताव पर आमादा है. वह इस बात को लेकर कतई गंभीर नहीं कि उसकी पुलिस ने आन्दोलनकारियों के विरूद्ध इतना असंवेदनशील रवैया क्यों अपनाया और आन्दोलनों के दौरान इतनी मौतें क्यों हुईं? उलटे सारे आन्दोलनकारियों को दंगाई मानकर उनसे ‘बदला’ लेने की बात कर रही है. इस क्रम में एकतरफा सम्पत्ति के नुकसान की सारी जिम्मेदारी उन्हीं पर थोपकर बिना सम्यक जांच पड़ताल कराये पुलिस की टूटी लाठियों और पैलेट की गोलियों तक की कीमत उन्हीं से वसूलने के फेर में है.


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संवाद होता तो आन्दोलनकारी यह भी पूछ पाते कि यह कैसा इन्साफ है कि पहले उन्हीं पर लाठियां बरसाईं व पैलेट गन्स चलाई जाएं, फिर ‘जबरा मारे व रोने भी न दे’ की तर्ज पर उन्हीं को उनकी भरपाई करने को भी कहा जाये? इतना ही नहीं, प्रदेश सरकार के मंत्री पीड़ितों का हाल-चाल लेने में भी हिन्दू मुसलमान पर उतर आयें! लेकिन दुर्भाग्य कि अच्छी-अच्छी बातें कहने वाले प्रधानमंत्री और उनकी सरकार अभी भी ऐसे किसी संवाद के मूड में नहीं है. प्रधानमंत्री तो खुद अपनी नसीहतों का मुंह भी अपनी ओर घुमाने को तैयार नहीं दिखते. यह समझने को भी नहीं कि जैसे आन्दोलनकारियों के अधिकार और कर्तव्य हैं, वैसे ही उनके भी. हां, दोनों में एक बड़ा फर्क यह है कि आन्दोलनकारियों के अधिकार और कर्तव्य उनके उपयोग मात्र के लिए हैं. इन अधिकारों व कर्तव्यों को अन्यों के संदर्भ में लागू करने की अथाॅरिटी सरकार के ही पास है और वह अपने ही पैदा किये उद्वेलनों के सिलसिले में इस अथाॅरिटी का इस्तेमाल नहीं कर पाती, उलटे अंतर्विरोधों के जाल में फंस जाती है, तो यह उसकी समस्या है.

इसे यों समझ सकते हैं कि प्रधानमंत्री ‘हिंसक’ आन्दोलनकारियों से तो आत्मावलोकन कराना चाहते हैं, खुद नहीं करना चाहते- सवालों के जवाब देने से तो परहेज बरतते ही हैं, संवाद से भी. आन्दोलनकारियों की हिंसा पर बरसते हैं तो पुलिस की बर्बरता और भड़काने वाली हरकतों को लेकर एक शब्द भी बोलना जरूरी नहीं समझते. यह तब है जब यह डींग हांककर धमकाना कतई नहीं भूलते कि कोई कुछ भी करता रहे, वे और ‘कड़े और बड़े’ फैसले लेने से हिचकने वाले नहीं हैं, क्योंकि ‘चुनौतियों को चुनौती देने का स्वभाव लेकर निकले हैं. जैसा आन्दोलनकारियों से चाहते हैं, कभी घर में बैठकर खुद से पूछते कि उनके इस स्वभाव से हासिल क्या हुआ है तो यह जानने से वंचित नहीं रहते कि उनकी व्यर्थ की चुनौतियां गढ़ने और उन्हें को ही चुनौती देते रहने से वास्तविक चुनौतियां निपटने के बजाय नई हुई जा रही हैं.

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इस सिलसिले में वे अपनी जिन तीन चुनौतियों से जुड़ी उपलब्धियों- अयोध्या विवाद के समाधान, संविधान के अनुच्छेद 370 के खात्मे और नागरिकता कानून में संशोधन की बात कर रहे हैं, उनमें अयोध्या विवाद का समाधान उनकी सरकार के नहीं, सर्वोच्च न्यायालय के फैसले से हुआ है और उसका श्रेय लेना खुद उनके ही उस पूर्वकथन की अवज्ञा है कि इस फैसले का राजनीतिक लाभ नहीं लिया जाना चाहिए, जबकि अनुच्छेद 370 के खात्मे से देश की कौन-सी चुनौती कम या समाप्त हुई है, इसका जवाब अभी भविष्य के गर्भ में है.

अलबत्ता, यह अभी से दिख रहा है कि बिना सम्यक विचार-विमर्श के, सिर्फ भारतीय जनता पार्टी के पुराने अनिस्तारित एजेंडे को पूरा करने के लिए उठाये गये इस कदम से ‘सामान्य’ जम्मू-कश्मीर कई अविश्वासजनित नई चुनौतियों के सामने जा खड़ा हुआ है. जहां तक नागरिकता कानून में संशोधन की बात है, उसे लेकर उद्वेलनों का शमन होने को नहीं हो रहा तो प्रधानमंत्री और गृहमंत्री भले ही अपने संशोधन को सही ठहराने के लिए दिसम्बर की सर्दी में भी भरपूर पसीना बहा और विपक्ष की मानें तो झूठ तक बोल रहे हैं, लेकिन उद्वेलनों से सर्वथा पल्ला झाड़कर उन्हें विपक्ष के दुष्प्रचार के हवाले कर दे रहे हैं.

इस सवाल का भी सामना नहीं कर रहें कि उनकी सरकार में रहते हुए विपक्ष के दुष्प्रचार इतने प्रभावशाली क्यों हो गये हैं कि देश उनकी आंच में पिघलने लगा है? क्या उन पर इसकी तनिक भी जिम्मेदारी नहीं आती? इतनी भी नहीं कि बिना सोचे-विचारे अपने संसदीय बहुमत की हनक में चूर होकर उन्होंने यह संशोधन संसद में पारित कराया तो उन्हें इल्म नहीं था कि ऐसा कुछ हो जायेगा? कोई तो पूछे कि यह चुनौतियों को चुनौती देने का स्वभाव है या बेवजह दलदल में जा फंसने का?

ऐसे में, विपक्ष के दुष्प्रचार अपनी जगह रहे, प्रधानमंत्री से यही कहा जा सकता है कि आत्मावलोकन का थोड़ा-सा फर्ज वे भी निभा दें. क्योंकि इस संशोधन से वे कुछ भी नहीं साध पा रहे. महाराष्ट्र और झारखंड गवाह हैं कि इससे वे उन्हें भी सम्बोधित नहीं ही कर पा रहे, जिन्हें उनका हिन्दू होना याद दिलाकर अपने पक्ष में एकजुट करना चाहते हैं. इसके उलट डिटेंशन सेंटरों और ‘तेरे राज में, मेरे राज में’ की तथाकथित बहसों से परे, अब सामान्य लोग भी पूछने लगे हैं कि प्रधानमंत्री को देश के हिन्दुओं के बजाय पाकिस्तानी, बंगलादेशी और अफगानी हिन्दुओं की चिंता क्यों सताने लगी है? सो भी, इस कदर कि उनके लिए वे घुसपैठियों तक में भेदभाव पर उतर आये हैं?


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फिर श्रीलंका के हिन्दुओं ने उनका क्या बिगाड़ा है? प्रधानमंत्री कहते हैं कि पाकिस्तान से आये दलित शरणार्थियों को वहां बंधुआ बना कर रखा जाता था तो पूछा जाता है कि क्या भारत में उन्होंने दलितों को मंदिरों का पुजारी बना दिया है और उनके पैर छूने लगे हैं- कभी-कभी कुम्भ वगैरह में कैमरों के सामने उनके पैर धोना अलग बात है.

उम्मीद की जानी चाहिए कि आत्मावलोकन से परहेज खत्म होते ही प्रधानमंत्री को यकीन हो जायेगा कि उनका खुद अलोकतांत्रिक बने रहकर जनता से लोकतंत्र की मांग करने का कोई अर्थ नहीं है. यह भी कि उनके लिए खास चश्मा लगाकर सूर्य ग्रहण देखने से ज्यादा जरूरी यह देखना है कि उनकी रीति-नीति ने देश की संभावनाओं पर ही लम्बा ग्रहण लगा दिया है. तिस पर ‘चुनौतियों को चुनौती देने का’ उनका स्वभाव लोगों की रोजी-रोटी और देश की अर्थव्यवस्था की चुनौतियों से पानी मांग रहा है. और हां, इससे सर्वाधिक क्षति उन हिंदुओं की ही हो रही है, जिनके प्रति समर्पित दिखने के लिए वे इतने पिचाल रच रहे हैं.

(लेखक जनमोर्चा अख़बार के स्थानीय संपादक हैं, इस लेख में उनके विचार निजी हैं)

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