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राजनीतिक-वैचारिक अलगाव मिटाने वाले विवेकानंद का गांधी, आम्बेडकर, नेहरू, टैगोर, लोहिया भी करते थे सम्मान

नेहरू ने अपनी पुस्तक ‘ग्लिम्प्सेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री' में लिखते हैं - रामकृष्ण के एक प्रसिद्ध शिष्य स्वामी विवेकानंद थे, जिन्होंने बहुत ही स्पष्ट रूप से राष्ट्रवाद का प्रचार किया. यह किसी भी तरह से मुस्लिम विरोधी या किसी और के विरोधी नहीं थे, और न ही यह संकीर्ण राष्ट्रवाद था.

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स्वामी विवेकानंद । फाइल फोटो : विकिपीडिया

विश्व विख्यात कवि, साहित्यकार, दार्शनिक और भारतीय साहित्य के नोबेल पुरस्कार विजेता रवीन्द्रनाथ टैगोर ने एक बार कहा था ‘आपको भारत को जानना है तो स्वामी विवेकानंद को पढ़िए उनमें सब कुछ सकारात्मक है, कुछ भी नकारात्मक नहीं ‘. आज जब हम उस दौर में जी रहे हैं जहां एक तरफ मनुष्य विचारधारा के नाम पर एक दूसरे के प्रति कटुता भर लेता है तो दूसरी तरफ अख़बार और न्यूज़ चैनल भी आम जनमानस को विचारधारा के नाम पर बांटते हैं. कोई अपने को गांधीवादी बताता है तो कोई अम्बेडकरवादी, कोई अपने को राष्ट्रवाद से जोड़ता है तो कोई सामजवाद से, कोई अपने को नेहरूवादी कहता तो कोई वामपंथी. इस बिना विचार की या ऐसा कहूं कि विचार शून्य विचारधरा की लड़ाई में सिर्फ और सिर्फ नकारात्मकता दिखती है और एक व्यक्ति दूसरे से लड़ते झगड़ते दिखता है. कभी कॉलेज की कैंटीन के बाहर तो कभी टेलीविजन कार्यक्रम में , कभी रेल गाड़ी में तो कभी चाय के चौराहे पर वैचारिक चर्चाओं के नाम पर अक्सर दो इंसानों में टकराव होना शुरू हो जाता है जो कुछ देर पहले तक अच्छे परिचित या मित्र थे.

लेकिन आज हमें यह समझने की आवश्यकता है कि अपनी विचारधारा हमें किसी दूसरे के ऊपर थोपने की जरूरत नहीं है. हमें तो अपनी विचारधारा को जो कि एक विचार है उसको धारण करके उसके अनुरूप जीवन जीने की जरूरत है. आज इस वातावरण के बीच में हमे कविगुरु के वह शब्द फिर से याद करने की जरूरत है जो उन्होंने स्वामीजी के बारे में कहे थे, ‘उनमें सब कुछ सकारात्मक है, कुछ भी नकारात्मक नहीं’.

यह स्वामी विवेकानंद के सकारात्मक विचार ही हैं जिसके कारण बाल गंगाधर तिलक से लेकर महात्मा गांधी, नेताजी सुभाषचंद्र बोस से लेकर पंडित जवाहरलाल नेहरू और बाबा साहब भीमराव आंबेडकर से लेकर वामपंथी नेता सब उनसे प्रभवित थे. इसीलिए जब यह विचारशून्य विचारधारा की लड़ाई आम जनमानस में भेद बढ़ाती है और टकराव कराती है तो हमें स्वामी विवेकाकंद को जानना चाहिए, उनको पढ़ना चाहिए जो भेद मिटाते हैं और सकारात्मक ऊर्जा प्रदान करते हैं. जब राष्ट्रहित की बात हो तो राजनीति को दूर रखना चाहिए. इस लेख में मैं आपको कुछ वैचारिक नेताओं का स्वामी विवेकानंद के प्रति भाव बताऊंगा.


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स्वतंत्रता सेनानी बाल गंगाधर तिलक थे स्वामी जी से प्रभावित

‘रेमिनिसेंसेस ऑफ़ स्वामी विवेकानंद- एन अंथोलॉजी बाय हिज ईस्टर्न एंड वेस्टर्न ऐडमायरर्स’ पुस्तक में बाल गंगाधर तिलक लिखते हैं कि एक समय जब वो बम्बई के रेलगाड़ी स्टेशन से पुणे जाने के लिए यात्री-डिब्बे में बैठे थे, उसी समय यात्री-डिब्बे में एक संन्यासी ने प्रवेश किया. वे स्वामीजी थे. स्वामीजी को जो लोग छोड़ने आये थे, वो तिलक जी को जानते थे और उन्होंने स्वामीजी से उनका परिचय भी करा दिया था और पुणे में तिलक जी के घर पर ही रहने का अनुरोध किया.

बाल गंगाधर तिलक आगे लिखते हैं, स्वामी जी के पास बिलकुल भी पैसे नहीं थे और वो हाथ में एक कमंडल साथ रखते थे. विश्व धर्म महासभा की सफलता के बाद जब स्वामीजी के चित्र तिलक जी ने समाचार पत्रों में देखे तो उनको याद आया कि यह वही संन्यासी हैं, जिन्होंने उनके घर पर कुछ दिन तक निवास किया था. इसके बाद दोनों के बीच पत्र व्यवहार भी हुआ था.

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1901 में जब इंडियन नेशनल कांग्रेस का 17वां अधिवेशन हुआ तो उसमें भाग लेने के लिए तिलक जी कलकत्ता आये थे, इसी दौरान वह बेलुड़ मठ जाकर स्वामीजी से मिले. स्वामीजी ने उन्हें संन्यास लेने और बंगाल आ कर उनका कार्यभार संभालने को भी कहा था, क्योंकि स्वामीजी के अनुसार अपने क्षेत्र में कोई व्यक्ति इतना प्रभावशाली नहीं होता जितना सुदूर क्षेत्रों में. इस मुलाकात के बाद तिलक जी बेलुड़ मठ आये थे और स्वामीजी से मार्गदर्शन लिया था. उनके द्वारा स्थापित समाचार पत्र ‘केसरी’ के संपादक एन.सी. केलकर भी स्वामीजी से मिलने आते थे.

गांधी जी भी थे स्वामी विवेकानंद से प्रभवित

महात्मा गांधी अपनी आत्मकथा ‘सत्य के साथ मेरे प्रयोग’ में लिखते हैं कि अपने कलकत्ता प्रवास में वो एक दिन पैदल ही बेलुड़ मठ की ओर चल पड़े थे, लेकिन उनको यह जानकर बहुत निराशा हुई कि स्वामीजी अस्वस्थ हैं और उनकी मुलाकत स्वामीजी से नहीं हो पाई. हालांकि स्वामीजी की शिष्या भगिनी निवेदिता से गांधी जी 2 बार मिले थे और विभिन्न मुद्दों पर चर्चा भी की थी.

स्वामीजी के निधन के काफी बाद एक बार पुनः वर्ष 1921 को गांधी जी बेलुड़ मठ आये थे और उन्होंने कहा था, ‘उनके हृदय में दिवंगत स्वामी विवेकानंद के लिए बहुत सम्मान है. उन्होंने उनकी कई पुस्तकें पढ़ी हैं और कहा कि कई मामलों में उनके इस महान विभूति के आदर्शों के समान ही हैं. यदि विवेकानंद आज जीवित होते तो राष्ट्र जागरण में बहुत सहायता मिलती. किंतु उनकी आत्मा हमारे बीच है और उन्हें स्वराज स्थापना के लिए हरसंभव प्रयास करना चाहिए. उन्होंने कहा कि उन्हें सबसे पहले अपने देश से प्रेम करना सीखना चाहिए और उनका इरादा एक जैसा होना चाहिए.’


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जवाहरलाल नेहरू भी थे प्रभवित

जवारलाल नेहरू द्वारा लिखी ‘दि डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया‘ और ‘ग्लिम्प्सेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री‘ में अनेकों बार वह स्वामीजी का सन्दर्भ देते है. ‘दि डिस्कवरी ऑफ़ इंडिया’ में पंडित नेहरू लिखते है ‘अतीत में निहित और भारत की विरासत में गर्व से भरा हुआ, विवेकानंद जीवन की समस्याओं के प्रति अपने दृष्टिकोण में अभी तक आधुनिक थे और भारत के अतीत और उनके वर्तमान के बीच एक तरह का पुल थे. वह बंगाली और अंग्रेजी में एक शक्तिशाली वक्ता और बंगाली गद्य और कविता के एक सुंदर लेखक थे. वह एक बेहतरीन शख्सियत थे, कशमकश और गरिमा से भरे, अपने और अपने मिशन के प्रति निश्चिंत और एक ही समय में एक गतिशील और ज्वलंत ऊर्जा से भरपूर और भारत को आगे बढ़ाने के जुनून के साथ थे. वह उदास और हिंदू मन को हतोत्साहित करने के लिए एक टॉनिक के रूप में आए और उन्होंने आत्मनिर्भरता को अतीत से जोड़ा.’

विवेकानंद ने बहुत सी बातें कीं, लेकिन उनके भाषण और लेखन में एक निरंतरता थी जो थी ‘अभय’- निडर रहो, मजबूत बनो. उनके लिए मनुष्य कोई दुखी, पापी नहीं था, बल्कि देवत्व का एक हिस्सा था, उसे किसी भी चीज से क्यों डरना चाहिए?’ अगर दुनिया में कोई पाप है तो वह कमजोरी है, सभी कमजोरी से बचें, कमजोरी पाप है, कमजोरी मृत्यु है.’ यही महान सबक उपनिषद में भी है.

अपनी अन्य पुस्तक ‘ग्लिम्प्सेस ऑफ़ वर्ल्ड हिस्ट्री’ में लिखते हैं – रामकृष्ण के एक प्रसिद्ध शिष्य स्वामी विवेकानंद थे, जिन्होंने बहुत ही स्पष्ट रूप से राष्ट्रवाद का प्रचार किया. यह किसी भी तरह से मुस्लिम विरोधी या किसी और के विरोधी नहीं थे, और न ही यह संकीर्ण राष्ट्रवाद था. I

बाबा साहब आम्बेडर का स्वामीजी के प्रति भाव

जवाहरलाल नेहरू के निजी सचिव एमओ मथाई की पुस्तक ‘रेमिनिसन्स ऑफ नेहरू एज‘ के अनुसार बाबा साहब अम्बेडर के साथ मथाई के संवाद के दौरान अम्बेडर जी ने कहा था, ‘हाल की शताब्दियों में भारत में जन्मे सबसे महान आदमी, गांधी नहीं, बल्कि विवेकानंद हैं. बाबा साहब का स्वामी विवेकानंद को सबसे महान बताना उनके स्वामीजी के प्रति सकारात्मक भाव को बताता है.

वामपंथी साम्यवादी नेताओं का स्वामीजी से जुड़ाव

स्वामी विवेकानंद के कन्याकुमारी में स्थित स्मारक निर्माण के दौरान जब एकनाथ रानडे जो कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रहे थे और बाद में विवेकानंद केंद्र के संस्थापक बने. जब वह विवेकानंद शिला स्मारक के कार्य से जोड़ने के लिए वामपंथी नेता ज्योति बसु से मिले तो ज्योति बसु ने कहा, ‘मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि आप इस ज्योति बसु से मिलने हेतु नहीं आ सकते क्योंकि मेरा विवेकानंद जी से कोई संबंध नहीं है. ‘एकनाथ जी ने कहा, ‘मैं यह कैसे विश्वास कर सकता हूं कि आपको उनसे कोई लेना-देना नहीं है?’ क्या उन्होंने पद दलितों के लिए आवाज नहीं उठाई? आप भी पद दलितों के हितरक्षक हैं, वे उत्पीड़ितों के हितरक्षक थे, आप भी उनके हितरक्षक हैं. ज्योति बसु बोले, हां, इस दृष्टि से मैं उनका प्रशंसक हूं क्योंकि वह उत्पीड़ित एवं पद दलितों के प्रतिनिधि थे लेकिन साम्यवादी दल की सदस्यता होने के कारण उन्होंने असमर्थता जताई. रानडे जी ने कमला बसु, उनकी पत्नी को कार्य से जोड़ा जिन्होंने स्मारक के लिए 1100 रुपए अपने मित्रों से इकट्ठे किए.

विवेकानंद जी के स्मारक निर्माण के लिए समाजवादी नेता राम मनोहर लोहिया, साम्यवादी नेता रेणु चक्रवर्ती, द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम (द्रमुक या डीएमके) के संस्थापक और तमिलनाडु के प्रथम मुख्यमंत्री अन्नादुराई ने सहयोग भी दिया और स्वामीजी की प्रशंसा भी की. ऑल इंडिया अन्ना द्रविड़ मुनेत्र कडगम (अन्नाद्रमुक) की स्वर्गीय नेता जयललिता जयराम भी स्वामी विवेकानंद के विचारों से प्रभावित थीं.

सुभाषचंद्र बोस के जीवन में सकारात्मक परिवर्तन लाये थे स्वामीजी के विचार

सुभाष चंद्र बोस का स्वामीजी के साहित्य से परिचय महज़ 15 वर्ष की उम्र में हुआ था. स्वामजी को पढ़ने के बाद सुभाष चंद्र बोस ने कहा की उनका पूरा जीवन ही बदल गया और भटकाव खत्म होने लगा, उसके बाद उन्होंने पूरे जीवन स्वामजी का अनुकरण किया.

स्वामी विवेकानंद जी ने अपना पूरा जीवन मनुष्य निर्माण के कार्य के लिए दे दिया था. वह भारतीयता और वेदांत को घर-घर जागृत करने का कार्य कर रहे थे. इसीलिए हम सबको समझना पड़ेगा की मार्ग अलग हो सकते हैं, लेकिन देश के लिए कोई रचनात्मक और सृजनात्मक कार्य करते समय राजनीतिक और वैचारिक द्वन्द को दूर रखते हुए उस सकारात्मक कार्य का समर्थन करना चाहिए. राष्ट्रहित सर्वोपरि रहना चाहिए. इस सदियों पुरानी भारतीय सनातन परंपरा को विश्व गुरू बनाना हर भारतीय का कर्त्तव्य है.


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(लेखक विवेकानंद केंद्र के उत्तर प्रान्त के युवा प्रमुख हैं और दिल्ली विश्वविद्यालय से इतिहास में परास्नातक की डिग्री प्राप्त की और जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय से वैदिक संस्कृति में सीओपी कर रहे हैं. यह उनके निजी विचार हैं)

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