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पेगासस आकर्षक है, लेकिन अच्छी जासूसी सिर्फ टेक्नोलॉजी नहीं है, भारत को सॉफ्टवेयर से ज्यादा कुछ चाहिए

वाकई में जो बातें बहुत महत्वपूर्ण होतीं हैं, उनके बारे में फोन पर चर्चा नहीं की जाती है. भारत को संस्थागत सुधारों की शुरुआत करनी चाहिए जो उसकी खुफिया सेवाओं की सबसे बड़ी जरूरत है.

चित्रणः रमनदीप कौर । दिप्रिंट टीम

डच शहर आइंडहोवन के बाहरी क्षेत्र में स्थित एक विला के अंदर गहराई में बने एक बम-प्रूफ तहखाने में बैठा जर्मन पोस्ट ऑफिस के अनुसंधान विभाग फॉर्सचुंग्सस्टेल डेर रीचस्पोस्ट का एक टेक्नीशियन अपने हेडफोन पर गूंजती ध्वनियों के बीच कुछ आवाजें सुनने की कोशिश करता है. यह आवाज कुछ और नहीं बल्कि ब्रिटिश प्रधानमंत्री विंस्टन चर्चिल और अमेरिकी राष्ट्रपति फ्रैंकलिन रूजवेल्ट के बीच टेलीफोन पर हो रही बातचीत थी. वैसे कोई यह बातचीत टैप न कर पाए, इसलिए इसे बेल लैब का ए-3 स्क्रैम्बलिंग सिस्टम जैसा सुरक्षा चक्र मुहैया कराया गया था, जो हर 12 सेकंड में पांच सिफर के माध्यम से इसे कूट भाषा में बदल देता था.

लेकिन विला के बाहर किसी को इसकी भनक तक नहीं थी कि नाजी जर्मनी की सिहेराइट्सडिनस्ट खुफिया सेवा ए3 एन्क्रिप्शन तोड़ने में सफल रही है. फॉर्सचुंग्सस्टेल के प्रतिभाशाली इंजीनियर कर्ट वेटरलीन के कारनामे ने नाजी नेतृत्व को रियल टाइम में अपने दुश्मन देशों के शीर्ष नेताओं की निजी बातचीत सुनने की सुविधा मुहैया करा दी थी.

इसी हफ्ते, सिटीजनलैब की रिसर्च में खुलासा हुआ है कि ब्रिटिश विदेश मंत्रालय और प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन के कार्यालय के बीच गोपनीय संवाद की जासूसी के इजरायली सॉफ्टवेयर पेगासस का इस्तेमाल किया गया था. सिटीजनलैब का कहना है कि जासूसी में भारतीय, संयुक्त अरब अमीरात, जॉर्डन और साइप्रस की खुफिया सेवाएं शामिल हो सकती हैं. केवल कुछ मिलियन डॉलर में पेगासस के रूप में देशों को ऐसी ताकत मिल जा रही है जिन पर आधुनिक इतिहास के अधिकांश हिस्से में प्रभावशाली राष्ट्रों का ही एकाधिकार था.

भारत सहित कई देशों की सरकारों के लिए पेगासस अपनी खुफिया सेवाओं में अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी के इस्तेमाल की जरूरत दर्शाने का एक आकर्षक तर्क है. फॉर्सचुंग्सस्टेल का कारनामा यह बताने के लिए काफी है कि इस भेद को बेहद बारीकी से समझना होगा कि हर टूल की तरह खुफिया टेक्नोलॉजी की उपयोगिता भी इस पर निर्भर करती है कि इसका उपयोग कौन कर रहा है और किस उद्देश्य के लिए कर रहा है.


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ब्रिग ब्रदर और उनके बड़े कान

यह समझने के लिए थोड़ी कल्पना की जरूरत है कि आखिर सिटीजनलैब के खुलासे पर भारत के खुफिया समुदाय को हंसी क्यों आ रही है. 1960 के दशक के बाद से ब्रिटेन का सरकारी कम्युनिकेशन हेडक्वार्टर तथाकथित ‘फाइव आईज’ का केंद्र था. फाइव आईज एक ऐसा पश्चिमी खुफिया गठबंधन है जिसने सदी के उत्तरार्ध में लगभग सभी वैश्विक इलेक्ट्रॉनिक संचार को टैप किया और उन्हें डिक्रिप्ट किया. यूरोपीय संघ की एक जांच से पता चलता है कि फाइव आईज की नजरें सोवियत संघ जैसे दुश्मनों और उसके ‘दोस्तों’ पर टिकी रहती थीं.

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दशकों तक इसने भारत के परमाणु हथियारों और मिसाइल कार्यक्रमों पर लगातार पैनी नजर रखी, और यही काम उसने पाकिस्तान, चीन और दुनियाभर में हर क्षेत्रीय ताकत के साथ भी किया.

पेगासस खरीदने से काफी पहले ही भारत रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन के नेत्र (नेटवर्किंग ट्रैफिक एनालिसिस) और टेलीमैटिक्स के वैध इंटरसेप्शन और मॉनिटरिंग प्रोजेक्ट जैसी परियोजनाओं के जरिये अपनी खुद की समान निगरानी क्षमताएं विकसित करने की कोशिश कर चुका है. हालांकि, वास्तव में यह काम एक बड़ी चुनौती है, उदाहरण के तौर पर अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसी (एनएसए) खाली गणितीय रिसर्च पर सालाना 400 मिलियन डॉलर से अधिक खर्च करती है.

लेकिन एक समस्या है, बिग ब्रदर के ‘बड़े कान’ सुन तो सब कुछ सकते हैं, लेकिन सुनना और कुछ सुनकर किसी उपयुक्त निष्कर्ष पर पहुंचना दोनों अलग-अलग बातें हैं. एनएसए और सेंट्रल इंटेलिजेंस एजेंसी (सीआईए) ने 9/11 से पहले अल-कायदा की साजिशों के बारे में पता लगा लिया था और यही नहीं भयावह हमले से महीनों पहले कई चेतावनियां भी जारी की थीं. लेकिन विश्लेषक उन चेतावनियों को ठीक से समझ नहीं पाए.

टेक्नोलॉजी का मामला तो ऐसा है कि सीआईए को 1998 में भारत के परमाणु परीक्षण का अनुमान लगाने में इसकी मदद नहीं मिल पाई थी जबकि इसके उपग्रहों ने पोखरण के आसपास असामान्य गतिविधि का पता लगाया था. डिक्लासीफाई दस्तावेज बताते हैं कि गलत धारणाओं की वजह से विश्लेषकों ने उन सेटेलाइट इमेज की गलत व्याख्या कर ली.

इसी तरह, लश्कर-ए-तैयार पर यूके की खुफिया निगरानी की बदौलत भले ही भारत को 26/11 के हमलों के बारे में कई चेतावनियां मिली थीं लेकिन इसकी व्याख्या और निर्णय लेने में रही खामियों की वजह से इस हमले को अंजाम दिया जा सका. भारतीय जासूसों ने कारगिल युद्ध को लेकर बनी परिस्थितियों के बारे में आगाह किया था लेकिन मूल्यांकन में त्रुटियों का नतीजा था कि उनकी चेतावनियों को नजरअंदाज कर दिया गया.

1943 की गर्मियों में चर्चिल-रूजवेल्ट की कॉल इंटरसेप्ट होने की वजह से नाजियों को इतालवी सेना का नियोजित आत्मसमर्पण रोकने का मौका मिल गया. अगले वर्ष, सिहेराइट्सडिनस्ट यह सुनने में भी सफल रही कि रूजवेल्ट ने यूरोप पर आक्रमण की मंजूरी पर मुहर लगा दी है. नाजी जासूस वॉल्टर शेलेनबर्ग को याद है कि बातचीत के बाद रूजवेल्ट ने कुछ इस तरह कहा था, ‘ठीक है, हम अपना बेस्ट देंगे.’ और फिर उन्होंने कहा कि ‘अब मैं मछलियां पकड़ने जाऊंगा.’

भले ही नाजी अपने दुश्मनों की बात सुन पा रहे थे लेकिन एक समस्या थी: उन्होंने जो कुछ भी सुना उसमें यह नहीं बताया गया था कि हमला कहा किया जाना है या कब किया जाना है. और इससे उन्हें यह भी पता नहीं लग पाया कि उनका यह सारा अनुमान व्यापक स्तर पर मित्र देशों के उन्हें भ्रमित करने के अभियान का हिस्सा था.


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सूचना बनाम खुफिया जानकारी

पूर्वी जर्मनी के जाने-माने खुफिया प्रमुख मार्कस वुल्फ ने इस बात को रेखांकित किया है कि दुश्मन से जुड़ी कोई खुफिया जानकारी उपयोगी होने की एक सीमा होती है. उन्होंने काफी तीखे आकलन में कहा, ‘नाटो (उत्तरी अटलांटिक संधि संगठन) की तरफ से सामने रखे जाने वाले लगभग सभी कागजी दस्तावेजों में ‘कॉस्मिक’ या ‘टॉप सीक्रेट’ कोड के साथ मुहर लगी होती है, और जब आप ठीक से देखते हैं तो पता चलता है कि इसमें से कई तो टॉयलेट पेपर के तौर पर उपयोग के लायक भी नहीं है.’ वुल्फ आगे कहते हैं, ‘टेक्नोलॉजी केवल मौजूदा स्थिति के बारे में कुछ सूचना दे सकती है, (लेकिन) गोपनीय योजनाएं, विकल्प और अन्य विचार अत्याधुनिक सेटेलाइट की नजर से छिपे ही रहेंगे.’

इसमें, हम आगे यह भी जोड़ सकते हैं कि खुफिया सूचनाएं निर्णय लेने में तो मदद कर सकती है, लेकिन रणनीतिक स्थिति पर इसका निर्णायक प्रभाव शायद ही कभी पड़ता हो.

एलाइड कोडब्रेकिंग ने अटलांटिक की लड़ाई में नाजियों की हार सुनिश्चित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, और पूरी लड़ाई के दौरान ब्रिटेन की आपूर्ति बरकरार रखने में खासी मशक्कत की. हालांकि, कोडब्रेकर्स ने शानदार गणितीय उपलब्धियां हासिल कीं लेकिन ये सूचनाएं नई पनडुब्बी रोधी प्रौद्योगिकी के विकास के बिना बहुत उपयोगी नहीं होतीं, और अमेरिका की शानदार जहाज निर्माण क्षमताओं का ही नतीजा था कि जहाज ऐसी तीव्र गति से चलने वाले थे कि नाजी नौसेना के उन्हें तलाशने और डुबोने की कोशिश करने से पहले वे बचकर निकल जाते थे.

एक अन्य ख्यात मामले में मिडवे की जंग के दौरान कोड-ब्रेकर्स ने अमेरिका को जापानी नौसैना के इरादों के बारे में सटीक सूचनाएं मुहैया कराईं. हालांकि, जंग के नतीजे वाइस-एडमिरल चुइची नागुमो के दुस्साहिक और सब दांव पर लगा देने वाले फैसलों से निकले, इनका खुफिया सूचनाओं से कोई खास लेना-देना नहीं रहा.

सोवियत संघ के जासूसों—रिचर्ड सोरगे, लियोपोल्ड ट्रेपर के रेड ऑर्केस्ट्रा, या डबल एजेंट हेरोल्ड ‘किम’ फिलबी—की उपलब्धियां दिखाती हैं कि पुराने जमाने के जासूस, कम से कम, दुश्मन के संचार को इंटरसेप्ट करने की क्षमता के लिहाज से तो घातक हो सकते हैं.


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टेक्नोलॉजी आकर्षित कर रही

भाषा पर पकड़, लोगों और संस्कृतियों के बारे में अच्छी-खासी जानकारी और विश्लेषणात्मक कौशल—जो जटिल फैसले लेने में सक्षम बनाते हैं—का भारत के जासूसी परिदृश्य में काफी अभाव नजर आता है, जबकि यही सटीक खुफिया जानकारियां जुटाने का मुख्य आधार है. अधिकांश पश्चिमी देशों में खुफिया एजेंसियां ऐसी महारत रखने वाले उम्मीदवारों की भर्ती करती हैं, अक्सर सीधे कैंपस से लेती हैं. इसके उलट, रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) भारतीय पुलिस सेवा (आईपीएस) के अधिकारियों से अपने लीडर चुनती हैं, जिन्हें खुफिया प्रशिक्षण के लिए छह महीने का क्रैश कोर्स कराया जाता है.

खुफिया सेवाओं के लिए प्रौद्योगिकी पर भारी-भरकम खर्च करना सरकारों को अधिक पसंद आता है क्योंकि उन्हें इसमें तमाम जटिल समस्याओं का त्वरित समाधान नजर आता है. चीन के बारे में विशेषज्ञता रखने वाले एक कैडर को तैयार करने में दशकों लगेंगे. इसकी अपेक्षा ऐसे उपकरण खरीदना ज्यादा आसान है जो चीन के कंप्यूटर नेटवर्क में प्रवेश कर सकते हों या भारत के बाहर छिपे जातीय-धार्मिक आतंकवादियों पर नजर रख सकते हों.

भारत की तरह अन्य देश तकनीकी सुधारों के साथ कमजोरियों की भरपाई की कोशिश कर रहे हैं. जैसा कि विशेषज्ञ पीटर मैटिस बताते हैं, चीन की खुफिया सेवाओं—‘जिनके जासूसी उपकरणों को शायद दुनिया में सबसे बेहतरीन नहीं माना जाता है—ने डेटा संग्रह और आर्टिफिशल इंटेलिजेंस संचालित विश्लेषण में भारी निवेश किया है. हालांकि, इस पर संदेह करने के कारण हैं. अरविंद नारायण जैसे विशेषज्ञों का तर्क है कि आर्टिफिशल इंटेलिजेंस के अपने उपयोग हैं, लेकिन यह दावा कि इससे व्यक्तिगत व्यवहार या सामाजिक परिणामों की भविष्यवाणी की जा सकती है, कोरी कल्पना है.

भले ही प्रधानमंत्री जॉनसन के इनर सर्कल के फोन और कंप्यूटरों की जासूसी ने सामरिक रूप से उपयोगी कोई सूचना उपलब्ध कराई या और शायद इसे सुनने वाले जासूसों को कुछ खास हाथ लगा हो, लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि वास्तव में इसकी उपयोगिता क्या है. अनुभव तो यही बताते हैं कि पेगासस के जरिये मिली खुफिया जानकारी रणनीतिक स्तर पर बहुत उपयोगी होना असंभव है.

फॉर्सचुंग्सस्टेल की टेक्नोलॉजी की बदौलत नाजियों को यह पता लगा कि ब्रिटिश विदेश सचिव, एंथोनी ईडन एक नौकरशाह को ‘बेवकूफ’ मानते थे. भले ही यह सुनने में दिलचस्प हो सकता था, लेकिन व्यावहारिक तौर पर ये जानकारी कतई उपयोगी नहीं थी. जैसा मार्कस वुल्फ रेखांकित करते हैं कि जो चीजें वास्तव में महत्वपूर्ण होती हैं, उनके बारे में फोन पर चर्चा नहीं की जाती है.

गैजेस से ज्यादा जरूरी है कि वास्तविक खुफिया कार्यों पर अधिक ध्यान दिया जाए. भारत को अपनी खुफिया सेवाओं के लिए व्यापक संस्थागत सुधार और क्षमताएं बढ़ाने के लिए निवेश पर ध्यान देना चाहिए जिसकी इसको सख्त जरूरत है.

(प्रवीण स्वामी दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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