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पाकिस्तान के साथ शांति महज एक विराम चिन्ह है, अमित शाह का कश्मीर पर बयान हैरान करने वाला क्यों नहीं

विद्वान एशले टेलिस का कहना है कि भारत-पाकिस्तान के बीच होड़ कोई अस्पष्ट, वार्ता से सुलझने वाले मतभेदों के कारण नहीं है. बल्कि यह समस्या दीर्घकालिक गहरे सैद्धान्तिक, भौगोलिक, सत्ता-सियासत संबंधी दुश्मनी के कारण है.

केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह की फाइल फोटो | एएनआई

‘गद्दार की सज़ा मौत ही है’— आज से 75 साल पहले इसी महीने बर्बर तरीके से मौत की सज़ा पाए मीर मक़बूल शेरवानी के माथे पर ठोके गए टिन के एक टुकड़े पर हाथ से यही लिखा था. शेरवानी के माथे पर ठोके गए इस संदेश से उन कश्मीरियों को चेतावनी दी गई थी, जो कश्मीर को आज़ाद कराने की जंग का विरोध कर रहे थे. शेरवानी उन समूहों से जुड़े सैकड़ों लोगों में शामिल थे, जिन्होंने पाकिस्तानी हमलावरों को श्रीनगर की ओर बढ़ने से रोक रखा था. मशहूर फोटोग्राफर मारग्रेट बर्क-व्हाइट का अनुमान था कि उनकी बर्बर हत्या शायद ‘सेंट जोसफ गिरजाघर के ऊपर पहाड़ी पर पवित्र मूर्तियों से प्रेरित होकर’ की गई थी.

अपने लोगों द्वारा ‘जनरल तारीक़’ कहकर पुकारे जाने वाले मेजर-जनरल अकबर खान की कमान में उन पाकिस्तानी हमलावरों को शेरवानी की हत्या करने और कश्मीर को इस्लाम की खातिर बचाने का हुक्म दिया गया था. जनरल तारीक़ नाम उत्तरी अफ्रीका की ख़ानाबदोश जनजाति बरबर के कमांडर तारीक़ इब्न ज़ियाद के नाम से लिया गया है, जिसके बारे में किंवदंती है कि उसने 711 सी.ई. में जिब्राल्टर पर कब्जा कर लिया था. बर्क-व्हाइट ने तंज़ कसते हुए लिखा है कि ‘अपने मुसलमान भाइयों की वे इतनी तेजी से मदद कर रहे थे कि लूटपाट का माल से भरे उनके ट्रक और बसें एक-दो दिन में ही वापस आतीं और फिर ज्यादा कबायलियों को लेकर कश्मीर लौटतीं ताकि उसे बेखौफ ‘आज़ाद’ कराया जा सके.’

जिस जगह पर शेरवानी की हत्या की गई थी उससे कुछ सौ मीटर की दूरी पर बने मंच से गृहमंत्री अमित शाह ने पिछले सप्ताह घोषणा की कि सरकार पाकिस्तान से कश्मीर पर कोई बात नहीं करेगी, जो यह संकेत दे रही है कि नई दिल्ली और इस्लामाबाद के बीच पिछले चार साल से जारी संवाद का गुप्त चैनल अंधे मोड़ पर पहुंच गया है.

बताया जाता है कि बालाकोट संकट के चंद महीने बाद ही एलओसी पर पिछले साल युद्ध विराम लागू होने के बाद से राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल और पाकिस्तानी सेना अध्यक्ष जनरल क़मर जावेद बाजवा (जो जल्द ही रिटायर होने वाले हैं) के बीच यह गुप्त संवाद जारी था. कश्मीर में हिंसा की घटनाएं कम हुईं, और बड़े जिहादियों को जेल भेजा गया, जिससे संकेत मिला कि पाकिस्तान आतंकवाद को शह देने से हाथ खींच रहा है, ताकि परमाणु ताकत वाले दो पड़ोसी दूसरे संकट में न फंस जाएं.

बाजवा पश्चिम देशों से कहते रहे हैं कि अमन की खातिर कश्मीर मामले में छूट देनी पड़ेगी. लेकिन भारत यह कीमत देने को तैयार नहीं है और वह अपनी खींची हुई रेखा पर अडिग रहा है जबकि उसे तीन लड़ाई लड़नी पड़ी और लंबे समय तक बगावत का सामना करना पड़ा, लेकिन अब भारत सरकार का मानना है कि अंततः वक़्त उसके साथ है.

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सीमा तय करना

1947 के पतझड़ में बंटवारे की आग में कश्मीर भी जलने लगा. 12 अक्टूबर को भेजे एक टेलीग्राम में पाकिस्तान ने कहा कि कश्मीर के गांवों में आग ‘जल रही है यह मरी की पहाड़ियों से दिख रहा है’. इसके बाद पाकिस्तान ने शिकायत की कि कश्मीर के महाराजा की सेना जम्मू के मुसलमानो पर ‘कहर ढा रही है’. कश्मीर की सरकार ने जवाब दिया कि हत्याएं उसके सैनिक नहीं बल्कि पाकिस्तान के रावलपिंडी और हज़ारा जिलों से आए घुसपैठिए कर रहे हैं. इस जवाब में उन हिंदुओं और सिखों के नामों की सूची भी दर्ज थी जिन्हें पुंछ और राजौरी के पहाड़ी इलाकों में मार डाला गया.

इसके बाद ही भारतीय सिग्नल खुफिया महकमे ने जम्मू-कश्मीर स्टेट फोर्सेस के उन चंद गुरखा सैनिकों की एक निराशाजनक अपील जो भिम्बेर शहर के पास चौकी पर हमलावरों से घिर गए थे. इसके बाद 22 अक्टूबर को 4 जम्मू-कश्मीर इन्फैन्ट्री—जिसका गठन हिंसाग्रस्त पुंछ क्षेत्र के पुरुषों ने किया था—ने बगावत कर दी, अपने कमांडिंग अफसर ले. कर्नल नारायण सिंह को मार डाला. जनरल खान के भाड़े के सैनिक श्रीनगर की ओर बढ़े. उन्हें उम्मीद थी कि जब तक महाराजा हरि सिंह यह फैसला करेंगे कि पाकिस्तान में विलय करें या भारत में, तब तक वे कश्मीर पर कब्जा कर लेंगे.

इसके पांच दिन बाद महाराजा ने अंततः भारत में विलय कर लिया. ले. कर्नल रंजीत राय के नेतृत्व में 1 सिख रेजीमेंट के सैनिक श्रीनगर पहुंच गए और दूसरी यूनिटों के साथ शेरवानी जैसे स्वयंसेवक भी समर्थन देने के लिए आ गए. घमासान युद्ध हुआ. 1948 में जबर्दस्त जवाबी हमले के साथ भारत ने पुंछ के सैनिक अड्डे को हमलावरों के कब्जे से छुड़ा लिया और भिम्बेर और राजौरी को भी वापस हासिल कर लिया. उत्तर में भारतीय सेना उड़ी-तिथवाल धुरी की ओर बढ़ गई.

तत्कालीन खुफिया प्रमुख बी.एन. मल्लिक ने लिखा है कि सेना के कमांडरों का मानना था कि अगर उन्हें ‘अगली गर्मियों में भी जवाबी हमला जारी रखने की इजाजत दी जाती तो वे लोग उस जगह से आगे नहीं बढ़ पाते जिस जगह तक वे अक्टूबर-नवंबर 1948 में पहुंचे थे.’ नयी सीमारेखा, जो आज के एलओसी से मिलती-जुलती थी, उस भौगोलिक सीमा से मिलती थी जिस सीमा तक कश्मीरी और डोगरीभाषी आबादी बसी थी, जहां भारत समर्थक राजनीतिक समूहों का प्रभाव था.

जीत से समस्या

मल्लिक का दावा है कि प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू शुरू से ही निजी तौर पर ‘जनसंघ के इस विचार से सहमत थे कि जम्मू-कश्मीर का भारत में पूर्ण विलय होना चाहिए’. लेकिन इसमें समस्या थी. मल्लिक ने लिखा है, ‘अगर भारत सिर्फ इस आधार पर कश्मीर पर दावा करता कि महाराजा ने विलय के दस्तावेज पर दस्तखत किया है तो उसे इसी आधार पर जूनागढ़ पर अपना दावा छोड़ना पड़ता और अपने अंदर हैदराबाद को एक स्वतंत्र देश के रूप में स्वीकार करना पड़ता.’ यह रणनीतिक रूप से आत्मघाती होता.

इस सबके मद्देनजर भारत ने पहले तो वहां रायशुमारी कराने का वादा किया, लेकिन 1947-48 के हमले के बाद उसने इससे कदम खींच लिया. विदेश सचिव रहे गिरिजा शंकर वाजपेयी ने लिखा है कि इस युद्ध का अर्थ था कि ‘रायशुमारी की पेशकश का कोई मतलब नहीं रह गया’. ‘अगर पाकिस्तान ज़ोर-जबर्दस्ती के बल पर कोई फैसला करवाना चाहता था, और वह फैसला उसके खिलाफ जाता तो वह अपने हथियार के बूते जिसे वह हासिल नहीं कर सका उसे पाने के लिए संयुक्त राष्ट्र की मदद नहीं ले सकता था.’

1947-48 की लड़ाई में हारने के बावजूद पाकिस्तान बाज नहीं आया. 1953 में भारत ने कश्मीर को अपने संवैधानिक ढांचे में शामिल किया तो उसे कश्मीर पर आशंकित हमले को रोकने के लिए सेना को तैनात करने पर मजबूर होना पड़ा. 1947 की तरह, पाकिस्तानी घुसपैठियों ने 1965 में फिर कश्मीर पर हमला किया. यह राज्य धीरे-धीरे भारत के राष्ट्रीय ढांचे में समाहित न हो जाए इस मकसद से उसने इस बीच छद्म युद्ध जारी रखा.

1971 की लड़ाई हारने और शिमला समझौता होने के बाद भी उसके व्यवहार में कोई फर्क नहीं पड़ा. इतिहासकार अवतार सिंह भसीन ने दस्तावेजों का जो शानदार संकलन किया है उसके मुताबिक, 1983 के बाद से आतंकवाद भारत के लिए एक बड़ा सिरदर्द बन गया है.

दोनों देशों ने 1998 में जब परमाणु परीक्षण किए उसके बाद से दांव और ऊंचे हो गए. 1999 में, जनरल परवेज़ मुशर्रफ ने अपनी फौज को करगिल में एलओसी के पार भेज दिया, इस उम्मीद में कि परमाणु ताकत हासिल करने के बाद के नये मैदान में दबाव बनाया जा सके. 2001 के आगरा शिखर सम्मेलन में कश्मीर पर कोई रियायत हासिल करने में नाकाम होने के बाद भारत की संसद पर आतंकवादी हमला किया गया.

लेकिन 2002-03 में मुशर्रफ ने सही सबक सीख लिये. किसी लड़ाई में कश्मीर को लेकर भारत से कोई रियायत तो हासिल नहीं हुई, पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था पर बोझ बढ़ता गया. एलओसी पर युद्ध विराम के साथ जिहादी हिंसा की वारदात में कमी आई. दोनों देशों ने फिर से तारीक़ अज़ीज़ और सतिन्दर लांबा के जरिए गुप्त संवाद शुरू हो गया. आतंकवाद के खात्मे और एलओसी को सीमा के रूप में मान्यता देने के एवज में कश्मीर में दोनों देशों को अहम स्वायत्तता देने का समझौता लगभग होने ही वाला था कि 26/11 के हमलों ने इस सबको नष्ट कर दिया.

सत्ता में आने के बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ की तरफ हाथ बढ़ाया, जिसमें दोनों के दोस्त उद्योगपति सज्जन जिंदल ने अहम भूमिका निभाई, ताकि 2003 में शुरू हुई संवाद प्रक्रिया में तेजी आए, लेकिन पठानकोट, उड़ी, पुलवामा में आतंकी हमलों ने इन योजनाओं को विफल कर दिया.

नया पुराना गुप्त स्रोत

2018 की गर्मियों के बाद से, जब आईएसआई के खुफिया अधिकारी मेजर-जनरल इस्फंदियार अली पटौदी ने रॉ के अधिकारी आर. कुमार से लंदन के एक होटल में मिले, भारत और पाकिस्तान ने युद्ध की स्थिति न आने देने के लिए परोक्ष संवाद की प्रक्रिया जो शुरू की. पूरे साल लंदन, बैंकॉक, दोहा, मस्कट में बंद कमरे में अनौपचारिक बातचीत होती रही है जिनमें दोनों देशों के राजनीतिक नेता, सरकारी अधिकारी भाग लेते रहे हैं.

इन संपर्कों ने कुछ हलक़ों में उम्मीद जगाई लेकिन वह जल्दी ही टूट भी गई. अटकलें थीं कि प्रधानमंत्री मोदी और प्रधानमंत्री शाहबाज शरीफ हाल में एक शिखर सम्मेलन के दौरान मिलेंगे लेकिन दोनों ने आपस में राम-सलाम भी नहीं की.

कश्मीर अनसुलझी पहेली बना रहा. मार्च में ‘दप्रिंट’ ने खबर दी कि बाजवा यह मांग कर रहे हैं कि अगस्त 2019 से पहले कश्मीरी को जो विशेष संवैधानिक दर्जा हासिल था उसके तहत प्राप्त कुछ शर्तें भारत फिर से बहाल करे. उनका कहना था कि पाकिस्तानी फौज ने आतंकवाद के खिलाफ कार्रवाई की है और 2020 में एलओसी पर संकट के दौरान भारत पर दबाव डालने से परहेज किया है.

लेकिन भारत सरकार पर इन तर्कों का कोई असर नहीं पड़ा, जैसा कि 1953 के बाद से होता आया है. भारत में नीति निर्माताओं का मानना है कि पाकिस्तान ने आतंकवाद पर लगाम एक चाल के मद्देनजर लगाई क्योंकि उसे आर्थिक प्रतिबंधों और गंभीर आर्थिक संकट में फंसने का डर था, इसलिए वह कोई रणनीतिक बदलाव नहीं था. ये आशंकाएं निराधार नहीं हैं. पाकिस्तान में लशका-ए-तय्यबा का तामझाम कायम है और भू-राजनीतिक कारणों से पाकिस्तान को जब भी अनुकूल लगेगा तब वह इसका इस्तेमाल कर सकता है.

जैसा कि विद्वान एशले टेलिस ने कहा है, भारत-पाकिस्तान के बीच होड़ ‘कोई अस्पष्ट, वार्ता से सुलझने वाले मतभेदों’ के कारण नहीं है. बल्कि यह समस्या ‘दीर्घकालिक गहरे सैद्धान्तिक, भौगोलिक, सत्ता-सियासत संबंधी दुश्मनी के कारण है जिसे पाकिस्तान के कथित ऐतिहासिक दावों, एक बड़ी ताकत के रूप में भारत के वर्चस्व को खत्म करने और पिछली शिकस्तों का बदला लेने की पाकिस्तानी फौज की हसरत का फल है.’

बंटवारे के बाद से आज तक वे शिकायतें, हर संकट के नतीजों की आशंकाएं दोनों देशों और उनके लोगों के लिए गहरी होती गई हैं. उन्हें सुलझाने की राजनीतिक कोशिशें धीमी हुई हैं. भारत-पाकिस्तान युद्ध में पहली गोली चलने के 75 साल बाद शांति तो संकटों के बीच के विराम चिन्ह की तरह ही बन गई है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

लेखक दिप्रिंट के नेशनल सिक्योरिटी एडिटर हैं. वह @praveenswami पर ट्वीट करते हैं. व्यक्त विचार निजी हैं.


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