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मोदी सरकार के राज में बिल पास करने की फैक्ट्री बन गई है संसद, विपक्षी सांसदों का निलंबन इसे साबित करता है

संसद में किसी चर्चा के बिना कृषि कानूनों की वापसी और 12 विपक्षी सांसदों का निलंबन दिखाता है कि मोदी सरकार बातचीत की इच्छुक नहीं है.

संसद भवन। प्रवीण जैन/ दिप्रिंट

संसद में किसी चर्चा के बिना कृषि कानूनों की वापसी और 12 विपक्षी सांसदों का निलंबन दिखाता है कि प्रधानमंत्री मोदी की सरकार टकराव के रास्ते पर बनी हुई है और संसदीय लोकतंत्र के मौलिक सिद्धांत का पालन करने की इच्छुक नहीं है, जिसमें हर किसी से बातचीत की बात कही गई है.

विशाल बहुमत के अभिमान का असर ये रहा है कि भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) टकराव के रास्ते पर बनी हुई है, अलोकतांत्रिक है और अपनी मनमानी चलाने की प्रवृत्ति रखती है. कृषि कानूनों की वापसी से ऐसा लगा था कि सरकार शायद बात सुनने और मानने की इच्छुक थी लेकिन कानून वापसी के तरीके से जाहिर हो गया है कि वो कितनी अड़ियल और अहंकारी बनी हुई है.

समस्या इस सरकार के फैसलों के साथ नहीं है. विवादास्पद फैसले लेने वाली ये कोई पहली या आखिरी सरकार नहीं है. समस्या उस तरीके से है जिससे दूसरे हितधारकों को दरकिनार करके, ये फैसले लिए जाते हैं. अगर प्रजातंत्र आपको शासन करने का जनादेश देता है, तो वो आपको लोकतांत्रिक ढंग से शासन करने की जिम्मेदारी भी देता है. ये एक ऐसी चीज है जिसे लगता है कि मोदी सरकार ने भुला दिया है.


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नीरस शुरुआत

संसद के शीतकालीन सत्र को एक ही दिन हुआ है और विपक्ष ने पहले ही रोना-धोना शुरू कर दिया है और वो सही भी है. बिना पर्याप्त बहस या चर्चा के तीनों कृषि कानूनों को पारित कराने के लिए सरकार की बहुत आलोचना हुई थी लेकिन उसने इन कानूनों की वापसी भी उसी ढंग से की है.

कानून वापसी भले ही विपक्ष की प्रमुख मांग रही हो लेकिन संसद में कोई भी बड़ा कदम उठाए जाने से पहले उस पर पर्याप्त चर्चा और बहस की जानी चाहिए, भले ही उसकी स्वीकार्यता या सरकार का जनादेश कुछ भी हो. संसदीय बहस के पीछे विचार ही ये सुनिश्चित करना है कि प्रमुख मुद्दों पर चर्चा हो और हर हितधारक की आवाज सुनी जाए. अगर विपक्ष न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) के मुद्दे पर चर्चा करना चाहता था, तो उसकी अनुमति देना सरकार का कर्त्तव्य बनता था.

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उसके बाद, संसद के आखिरी सत्र में ‘दुराचार’ के आरोप में 12 विपक्षी सांसदों के, सत्र की पूरी अवधि के लिए निलंबन के पीछे, प्रतिशोध और विरोध के सुरों को दबाने की इच्छा जाहिर होती है. सदन का पटल असंसदीय प्रदर्शनों की जगह नहीं है और उस हद तक गलती करने वाले सांसदों के खिलाफ कार्रवाई गलत नहीं है. लेकिन दरअसल ये कार्रवाई बड़े स्तर पर हुई है, जिसने विपक्ष को नाराज किया है और सरकार की निष्पक्षता और उसकी मंशा पर सवाल खड़े किए हैं.


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पुरानी आदतें नहीं सुधरती

2014 में सत्ता में आने के बाद से ही मोदी सरकार ने अभिमान और लोकतांत्रिक तथा राजनीतिक बारीकियों के प्रति अनादर दिखाया है. वो शुरू से ही अध्यादेशों की बैसाखियों का सहारा लेती रही है, जिसकी शुरुआत भूमि अधिग्रहण अधिनियम को कमजोर करने से हुई थी- एक और कदम जिसे उसे बाद में वापस खींचना पड़ा था.

इसके सभी बड़े कदम- नोटबंदी से लेकर अनुच्छेद-370 को रद्द करने, तीन तलाक कानून पारित करने या नागरिकता संशोधन अधिनियम तक- एकतरफा और पर्याप्त परामर्श या विरोधियों से बातचीत के बिना उठाए गए हैं. और जाहिर है कि ये सिर्फ कुछ मिसालें हैं.

हां, इस सरकार के पास लोगों का जनादेश है. हां, कुछ कड़े फैसले लिए जाने होते हैं और सरकार को लगता है कि उसे इसका अधिकार है. लेकिन कोई भी जनादेश, वो कितना भी बड़ा क्यों न हो, आपको विपक्ष की आवाज को खामोश करने और संसद को रचनात्मक विचार-विमर्श के स्थल से घटाकर, बिल पास करने वाली फैक्ट्री बनाने की इजाजत नहीं देता.

विपक्ष एकजुटता बनाने में नाकाम रहता है, ये कोई प्रासंगिक मुद्दा नहीं है बल्कि एक राजनीतिक तर्क ज्यादा है. सरकार की चालों को मात देने का जिम्मा विपक्ष पर नहीं है. ये जिम्मा सत्तारूढ़ पार्टी पर है कि वो नियमों से चले और विपक्ष को उसका हक दे तथा उससे बातचीत करे.

भाजपा के लिए जनादेश का अहंकार और मोदी की जबर्दस्त लोकप्रियता, सभी चीज़ों पर भारी पड़ गई है. वो अभी भी अगला चुनाव जीत सकती है, जैसा उसने 2019 में जीता था, क्योंकि बहुत चीजें उसके पक्ष में हैं. लेकिन चुनाव जीतना किसी भी नेता या पार्टी का आखिरी उद्देश्य नहीं हो सकता, जो किसी लोकतंत्र में अपना कद स्थापित कर एक विरासत कायम करना चाहती है.

संसद को अपने लिए एक खेल का मैदान और अखाड़ा बनाकर, जहां वो अपनी शक्ति का प्रदर्शन कर सके, नरेंद्र मोदी की भाजपा न केवल लोकतंत्र या देश, बल्कि खुद अपना भी भारी नुकसान कर रही है.

(व्यक्त विचार निजी हैं)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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