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गलवान संघर्ष के एक साल बाद, भारत इंतजार करे और देखे पर अपनी बंदूकें ताने रहने की जरूरत

इस बात की कोई संभावना नहीं है कि बीजिंग एक तय बिंदु से पीछे हटेगा और न ही नई दिल्ली ऐसा करने को तैयार होगा.

मई 2020 में भारतीय सेना की टुकड़ी लद्दाख की ओर जाती हुई | फाइल फोटो- ANI

इसमें अब कोई संदेह नहीं है कि लद्दाख के गालवान इलाके में भारतीय पेट्रोलिंग (गश्ती) वाले हलके में भारतीय सैनिकों और चीनी पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पी.एल.ए.) के लड़ाकों के बीच हुए ‘अचानक और अप्रत्याशित’ संघर्ष के एक साल बीत जाने के बाद भी किसी को भी इस घातक भिड़ंत की उत्पत्ति के कारणों के बारे में किसी तरह की स्पष्टता नहीं है. इस रक्तरंजित भिड़ंत की गंभीरता इस तथ्य से और भी ज्यादा बढ़ गई थी कि यह पिछले 40 वर्षों के दौरान पहली बार था जब दोनों पक्षों के सैनिक भारी मात्रा में हताहत हुए थे.

नई दिल्ली में बैठे रक्षा प्रतिष्ठान (महकमे) से जुड़े अधिकारियों को शायद चीन द्वारा उत्तर में इतनी बड़ी घुसपैठ की उम्मीद नहीं थी, खासकर कुछ ही समय पहले हुई डोकलाम की घटना के बाद, जिसे अभी भी बीजिंग द्वारा किए गए एक असफल दुस्साहस के रूप में माना जाता है. भारतीय सेना की तीखी और जोरदार प्रतिक्रिया के कारण, पीएलए को संभवतः अपने सीमित सामरिक उदेश्यों को प्राप्त किए बिना ही अपनी योजना आरम्भिक चरणों में ही रोक दिया गया था.
देखा जाये तो, एक तरह से, डोकलाम और गलवान दोनों मामलों में कई चीजें एक समान हैं और ऐसा लगता है कि ये राजनीतिक, आर्थिक और भू-रणनीतिक परिणामों वाली एक बहुत बड़ी रणनीति से जुड़ी हुई हैं.

डोकलाम और गालवान दोनों ही मामले कुछ इस तरह का संकेत देते हैं कि चीन लद्दाख में वास्तविक नियंत्रण रेखा से लेकर अक्साई चीन, सियाचिन ग्लेशियर और उससे आगे तक फैले क्षेत्रों पर हावी होने की अपनी रणनीति पर पूरी तरह से ध्यान केंद्रित किया (फोकस्ड) है. इन पहाड़ी और दुर्गम क्षेत्रों को जोड़ने के लिए चीन के सड़क और रेलवे लिंक का जाल लगभग 500 किलोमीटर की दूरी में फैला हुआ है और यह बीजिंग को काशगर-गिलगित-इस्लामाबाद-ग्वादर रेलवे मार्ग के माध्यम से इस्लामाबाद और काबुल से लगभग समान दूरी पर एक अत्यंत सुविधाजनक स्थान पर बैठे/डटे होने का लाभ प्रदान करता है. यहां की जमीन के हर इंच एक अपना रणनीतिक महत्व है, और नई दिल्ली (भारत) इसके एक छोटे से हिस्से को भी छोड़ने का जोखिम नहीं ले सकती है. ऐसा करना हमारी सुरक्षा से समझौता करना होगा. अतः इस बात की कोई संभावना नहीं है कि बीजिंग एक तय बिंदु से पीछे हटेगा और न ही नई दिल्ली ऐसा करने को तैयार होगा.


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भारत का दृढ़ रवैया

तनाव कम करने के लिए शुरुआती दौरों की बातचीत के बाद वहां की स्थिति में काफी सुधार हुआ है जिसके परिणामस्वरूप दोनों पक्षों के सैनिकों की वापसी भी संभव हुई. हालांकि भारत और चीन दोनों इस ‘अपरिभाषित’ सीमा क्षेत्र में शांति और सौहार्द बनाए रखना पसंद करेंगे, लेकिन ऐसा लगता है कि सेना की वापसी और तनाव कम करने की प्रक्रिया ‘जो-जहां-है-वहीं-रहे’ के आधार पर धीमी हो गई है या फिर यूं कहें की रुक सी गई है और वह एक तरह के गतिरोध का एहसास कराता है. हालांकि किसी तरह के किसी ताजा संघर्ष की कोई खबर नहीं है, लेकिन यह असाधारण गतिरोध दोनों देशों के बीच सीमा विवाद तक ही सीमित नहीं है. ऐसा प्रतीत होता है कि इसके फलस्वरूप (दोनों देशों के बीच) राजनीतिक विवाद, कूटनीतिक गतिरोध और आर्थिक विरोध भी बढ़ गया है.

भारतीय विदेश मंत्री एस. जयशंकर की यह टिप्पणी कि ‘चीन के साथ भारत के संबंध एक चौराहे पर खड़े हैं’ इस ओर इंगित/ इशारा करता है कि नई दिल्ली ने बीजिंग के साथ दृढ़ता दिखाने और व्यापार और वाणिज्य तक भी उसकी पहुंच को आसान रखने से साफ़ इनकार करने का मन बना लिया है, किसी तरह की भगौलिक छूट का तो उल्लेख भी नहीं किया जा सकता. जयशंकर ने यह कहकर सामान्य स्थिति की बहाली के लिए आवश्यक शर्तें भी बिलकुल सामने रख दी हैं, कि ‘आपसी संबंधों की भविष्य की दशा-दिशा इस बात पर निर्भर करेगी कि बीजिंग सीमा पर शांति सुनिश्चित करने के उद्देश्य से हुए समझौते का पालन करेगा या नहीं.’

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विदेश मंत्री का कहना है कि ‘पिछले साल (के अनुभव) से जो स्पष्ट दिखता है वह यह है कि अन्य क्षेत्रों में सहयोग के साथ-साथ सीमा पर तनाव जारी नहीं रह सकता है.’

दूसरी ओर, चीन के विदेश मंत्री वांग यी ने दोनों देशों के बीच बिगड़े हुए संबंधों का सारा दोष भारत के मत्थे मढ़ दिया है. उनके बयान से यह स्पष्ट है कि बीजिंग को लगता है कि भारत की चीन नीति में कुछ डगमगाहट और पीछे हटने की स्थिति आयी है जिसके कारण ही दोनों देशों के बीच व्यावहारिक सहयोग प्रभावित हुए हैं. 2014 में नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार के सत्ता में आने के बाद से भारत पर चीन के प्रति अपनी नीति में बदलाव का सीधा आरोप लगाने से बचते हुए भी बीजिंग- हमारी सुरक्षा चिंताओं की पूरी-पूरी अवहेलना करते हुए – भारत की चीन नीति में आये बदलाव को ही तेजी से बढ़ते मतभेदों का कारक जताता है.

क्वाड के खिलाफ चीन की आसियान योजना

बीजिंग को अब यह एहसास होना चाहिए कि भारत और चीन के बीच आर्थिक सहयोग (आपसी सम्बन्धो का) एक अकेला मुद्दा नहीं हो सकता है. चीन भारत की आर्थिक प्रगति को अपने स्वयं के विकास और बाह्य व्यापार के लिए एक कड़ी चुनौती के रूप में देखता रहा है. अमेरिका-चीन के बीच छिड़े व्यापार युद्ध, जो अब जो बिडेन प्रशासन के सत्ता में आने के बाद काफी धीमा हो चला है, के नतीजे को भी भारत के लिए संभावित लाभ के रूप में देखा जा रहा है. बीजिंग ने न केवल क्वाड गठबंधन की कड़ी आलोचना की है, बल्कि इसने आसियान के भीतर एक एंटी-क्वाड प्लेटफॉर्म (मंच) बनाने की कोशिश भी की है. क्वाड को ‘एशियाई नाटो’ के रूप में वर्णित करने और इसे चीन के खिलाफ अमेरिका के नेतृत्व वाले सैन्य गठबंधन के रूप में पेश करने के पश्चात, बीजिंग स्पष्ट रूप से इस बात से आशंकित है कि भारत, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और जापान का यह समूह अपनी क्षेत्रीय वैक्सीन की पहल में और अधिक आसियान सदस्यों को भी शामिल करेगा.

लेकिन चीन की वास्तविक और तात्कालिक चिंता यह है कि क्वाड आसियान के सदस्यों को भी अपने पक्ष में शामिल कर सकता है और दक्षिण पूर्व एशिया, दक्षिण चीन सागर और इंडो-पैसिफिक (भारत-प्रशांत क्षेत्र) में चीन का कड़ा मुकाबला कर सकता है और इस प्रकार उसकी आधिपत्य-आधारित महत्वाकांक्षाओं को धक्का लग सकता है.

क्वाड विदेश मंत्रियों के शिखर सम्मेलन के जैसे ही बीजिंग भी आर्थिक सहयोग की अपनी योजनाओं को पेश करने लिए 10 आसियान देशों के विदेश मंत्रियों की मेजबानी कर रहा है. साथ ही वह कंबोडिया, लाओस, म्यांमार, थाईलैंड और वियतनाम के बीच लंकांग-मेकांग सहयोग (एलएमसी) के क्रिया-कलापों में सुधार, रीजनल कम्प्रेहैन्सिव इकॉनॉमिक पार्टनरशिप – क्षेत्रीय व्यापक आर्थिक भागीदारी – (आरसीईपी) के लागू होने की शर्तों को अंतिम रूप देने और इन सब से भी महत्वपूर्ण कोविड-19 से उबरने के प्रयासों को सुसंगठित करने जैसे प्रयास भी कर रहा है.

एक ओर जहां भारत में राजनीतिक सत्ता केंद्र अभी स्थिर और मजबूत है, शी जिनपिंग को चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीपीपी) के भीतर एक शक्तिशाली कुलीन वर्ग, संघर्ष-पिपासु पी.एल.ए. और देश की कमजोर अंतरराष्ट्रीय छवि के बीच नावेल कोरोनवायरस के मूलबिंदु के रूप में चिन्हित किये जाने जैसी चुनौतियों के मध्य संतुलन बनाना है. इनके अलावा, चीन को एक ऐसे समय में अपनी अर्थव्यवस्था में संभावित मुद्रास्फीति की प्रवृत्ति के लिए भी तैयार रहना होगा, जब सीसीपी अपने शताब्दी समारोह को भव्य बनाने के लिए उतावला सी हो रही है. आर्थिक सहयोग बढ़ाने, सीमा विवाद का समाधान करने और ‘दो प्राचीन सभ्यताओं की क्षमता को साकार करने के लिए मिलकर काम करने’ सम्बन्धी चीन के सभी प्रस्ताव ऐसे समय में पेश किए जा रहे हैं जब भारत और चीन के बीच आर्थिक, रणनीतिक और सैन्य विषमता का मिथक गायब होता दिख रहा है. नई दिल्ली के लिए यह इंतजार करने और देखते रहने का समय है, लेकिन इसे अपनी बंदूके/तोपें भी ताने रहने की जरूरत है.

(इस लेख को अंग्रेजी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)

(शेषाद्री चारी ऑर्गेनाइज़र के पूर्व संपादक हैं. व्यक्त विचार निजी हैं)


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