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केवल रामदेव के पतंजलि की आलोचना क्यों, एलोपैथी भी ‘भ्रामक’ विज्ञापनों से अछूती नहीं

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन और अन्य एलोपैथिक डॉक्टरों के पास आयुर्वेद या आयुष कंपनियों पर आरोप लगाने का कोई नैतिक आधार नहीं है.

अपने ब्रांड का प्रोडक्ट दिखाते हुए बाबा रामदेव । फेसबुक

योग गुरु रामदेव और उनके ब्रांड पतंजलि के खिलाफ भ्रामक विज्ञापनों के आरोपों के बीच, स्वास्थ्य सेवा के भीतर पारदर्शिता और नैतिकता के व्यापक मुद्दे को हल करने के बजाय, सारा ध्यान एक प्रणाली के रूप में आयुर्वेद की ओर ही जा रहा है.

सुप्रीम कोर्ट की एक याचिका में, देश में एलोपैथिक डॉक्टरों के सबसे बड़े नेटवर्क, इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) ने पतंजलि पर एलोपैथी के बारे में अपमानजनक बयान देने का आरोप लगाया है और मांग की है कि ब्रांड को भ्रामक विज्ञापन जारी करने से रोका जाए. आईएमए ने कोविड-19 की दूसरी लहर के दौरान आधुनिक चिकित्सा और टीकों के बारे में रामदेव के विवादास्पद बयानों की ओर भी इशारा किया.

इस संबंध में, फरवरी में अदालत ने पतंजलि को भ्रामक विज्ञापन दिखाने के लिए आपत्ति दर्ज की, खासकर तब जब उसने नवंबर 2023 में आश्वासन दिया था कि वह ऐसा नहीं करेगा. फिर अप्रैल में, अदालत ने रामदेव और पतंजलि के प्रबंध निदेशक आचार्य बालकृष्ण की माफी को इस आधार पर खारिज कर दिया कि यह “अनिच्छा” से मांगी गई थी.

चल रही कानूनी कार्यवाही में, आईएमए का पक्ष मजबूत दिखाई देता है, क्योंकि अदालत इस बात से सहमत है कि पतंजलि भ्रामक विज्ञापनों का दोषी है. लेकिन चिंता यह है कि अनैतिक तौर-तरीकों को केवल पारंपरिक चिकित्सा के साथ जोड़ा जा रहा है और इस तरह उन्हें बदनाम किया जा रहा है.


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आयुर्वेद भी महत्वपूर्ण है

आज, एलोपैथी चिकित्सा पद्धति पूरी दुनिया में हावी है. इसके बाद कुछ हद तक होम्योपैथी जैसे वैकल्पिक उपचारों का प्रयोग किया जाता है. लेकिन यह समझना होगा कि एलोपैथी आयुर्वेद की तुलना में बहुत नई चिकित्सा प्रणाली है.

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भारत में, एलोपैथी के आगमन से पहले; यूनानी, सिद्ध और सोवा रिग्पा जैसी अन्य पारंपरिक प्रणालियों के साथ-साथ आयुर्वेद इलाज का प्रमुख आधार था. हालांकि अब यहां भी एलोपैथी और होम्योपैथी का बोलबाला है, लेकिन आयुर्वेद अभी भी एक महत्वपूर्ण चिकित्सा पद्धति है, जिसके बारे में भारतीय साहित्य में काफी कुछ लिखा गया है. कई आयुर्वेदिक विशेषज्ञों, सर्जनों, डॉक्टरों और दवाओं के बारे में जानकारी उपलब्ध है.

आयुर्वेद न केवल विभिन्न बीमारियों के इलाज के लिए जानकारी प्रदान करता है बल्कि स्वस्थ जीवन जीने और बीमारी को रोकने के लिए विशेष ज्ञान भी प्रदान करता है. भारतीय चिकित्सा पद्धति खासकर आयुर्वेद का रोग होने के बाद इलाज करने से ज्यादा रोग को होने से रोकने के तौर-तरीकों को अपनाने का ज्यादा रहा है. हाल के दिनों में, भारत सरकार ने आयुष विभाग (आयुर्वेद, योग और प्राकृतिक चिकित्सा, यूनानी, सिद्ध और होम्योपैथी) के माध्यम से चिकित्सा की पारंपरिक प्रणालियों को बढ़ावा देने के लिए महत्वपूर्ण प्रयास किए हैं.

हालांकि, ऐसे कई मौके आए हैं जब एलोपैथिक डॉक्टरों और उनके समूहों ने अन्य चिकित्सा प्रणालियों का मजाक उड़ाया है. आईएमए जैसे संगठनों के पास कानूनी लड़ाई लड़ने के लिए पर्याप्त संसाधन भी हैं. लेकिन इसका मतलब यह नहीं है कि एलोपैथिक चिकित्सक गलत सूचना देने और गलत तौर-तरीके अपनाने के हकदार हैं.


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चिकित्सा और ‘नैतिक’ लाभ?

पतंजलि के खिलाफ कानूनी कार्रवाई भ्रामक विज्ञापनों से संबंधित ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज (आपत्तिजनक विज्ञापन) अधिनियम 1954 के कथित उल्लंघन से उपजी है. लेकिन यह मुद्दा किसी एक स्वास्थ्य सेवा प्रणाली तक सीमित नहीं है; बल्कि यह एलोपैथिक चिकित्सा सहित सभी तरह की चिकित्सा पद्धतियों पर लागू होती है.

वास्तव में, कुछ साल पहले, आईएमए ने अपने सदस्यों को मेडिकल काउंसिल ऑफ इंडिया (एमसीआई) के कोड ऑफ एथिक्स रेग्युलेशन और ड्रग्स एंड मैजिक रेमेडीज़ ऐक्ट के उल्लंघन का हवाला देते हुए “कोई इलाज नहीं, कोई भुगतान नहीं” या “गारंटीड इलाज” जैसे दावों का विज्ञापन करने से परहेज करने का निर्देश दिया था. यह निर्देश तब आया जब मुंबई में आईवीएफ क्लिनिक चलाने वाले एक डॉक्टर दंपत्ति का गारंटीशुदा गर्भावस्था का वादा करने और उपचार विफल होने पर रिफंड की पेशकश करने के लिए लाइसेंस निलंबित कर दिया गया था.

लेकिन आईएमए जैसे प्रतिष्ठित संस्थानों ने भी कभी-कभी अनुचित तरीके से कॉमर्शियल प्रोडक्ट्स का प्रचार करके नियमों का उल्लंघन किया है या उनकी अवहेलना की है. उदाहरण के लिए, 2008 में, आईएमए को अंतर्राष्ट्रीय समूह पेप्सिको के ट्रॉपिकाना जूस और क्वेकर ओट्स का प्रचार करने के लिए स्वास्थ्य मंत्रालय की आलोचना का सामना करना पड़ा था. इसी तरह के विवाद का सामना 2015 में एक वॉटर प्यूरीफायर के एक ब्रांड का प्रचार करने के साथ और 2019 में एक कथित एंटी माइक्रोबियल लाइट बल्ब के “सर्टिफिकेशन” के साथ उठे थे.

इतना ही नहीं, 2019 में एनजीओ सपोर्ट फॉर एडवोकेसी एंड ट्रेनिंग टू हेल्थ इनिशिएटिव्स (SATHI) की एक रिपोर्ट में आरोप लगाया गया कि प्रमुख दवा कंपनियों के रिप्रेजेंटेटिव एलोपैथिक डॉक्टरों को अपनी दवाएं और अन्य उत्पाद बेचने में मदद करने के लिए रिश्वत देते हैं. इसके परिणामस्वरूप बाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने फार्मा कंपनियों को ऐसी प्रथाओं से दूर रहने की चेतावनी दी.

हालांकि नियमों को लागू करने की अदालत की मंशा सराहनीय है, लेकिन जरूरत कानून को एक समान और निष्पक्ष तरीके से लागू करने की है. पारदर्शिता, विश्वास और हेल्यकेयर कम्युनिकेशन और प्रेक्टिस के उच्चतम मानक को सुनिश्चित करने के लिए केवल रामदेव ही नहीं, हर डॉक्टर और संगठन को इन नियमों का पालन करना चाहिए.

पिछले साल, जब भारत सरकार ने डॉक्टरों के लिए उनके जेनेरिक नामों के साथ दवाएं लिखना अनिवार्य कर दिया था, ताकि लोगों को सस्ते में दवाइयां उपलब्ध हो सकें, तो आईएमए सहित कई डॉक्टरों ने यह कहते हुए इसका विरोध किया था, कि “ड्रग ईकोसिस्टम” इसके लिए तैयार नहीं है.

एक ओर, सरकार बड़ी संख्या में जेनेरिक दवाओं की बिक्री के लिए जन औषधि केंद्र खोल रही है और डॉक्टरों व अस्पतालों द्वारा एथिकल प्रेक्टिस के नियमों को सख्त करने की कोशिश कर रही है. दूसरी ओर, आईएमए और उसके सदस्य फार्मा कंपनियों द्वारा आयोजित सम्मेलनों में भाग लेने जैसे अपने लाभों को छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं.

ऐसे में एलोपैथिक डॉक्टरों और उनके संगठनों द्वारा नैतिकता की बात हास्यास्पद लगती है.


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कोविड-19 में सभी सिस्टम फेल हो गए

2022 में, IMA ने अदालत में एक याचिका दायर की, जिसमें केंद्र सरकार, भारतीय विज्ञापन मानक परिषद और भारतीय केंद्रीय उपभोक्ता संरक्षण प्राधिकरण से एलोपैथिक चिकित्सा को नीचा दिखाकर आयुष प्रणाली को बढ़ावा देने वाले विज्ञापनों के खिलाफ कार्रवाई करने का आग्रह किया गया. इसने आधुनिक चिकित्सा की प्रतिष्ठा को नुकसान पहुंचाने वाली गलत सूचना के प्रसार के बारे में चिंता जताई और तर्क दिया कि पतंजलि के विज्ञापन ने मौजूदा कानूनों का उल्लंघन किया है. पतंजलि को लेकर ज्यादातर विवाद इसके फॉर्म्युलेशन कोरोनिल पर केंद्रित है, जिसकी सिफारिश आयुष मंत्रालय ने कोविड प्रबंधन के लिए एक सहायक दवा के रूप में की थी.

सर्वविदित है कि कोविड के दौरान तथाकथित साक्ष्य आधारित चिकित्सा पद्धति एलोपैथी भी अप्रभावी साबित हो रही थी. शुरुआत में WHO समेत हर कोई अंधेरे में था. सभी दवाएं केवल ‘परीक्षण और त्रुटि (ट्रायल एंड एरर)’ के आधार पर दी जा रही थीं और कई का स्पष्ट तौर पर कोई लाभ नहीं दिख रहा था. ऐसी स्थिति में, कई भारतीयों ने “काढ़ा” पर भरोसा किया. काढ़ा एक ऐसा आयुर्वेदिक मिश्रण है जिसमें एलोपैथिक दवाओं का कोई अंश भी नहीं होता है.

इस संदर्भ में, यदि पतंजलि ने कोरोनिल या किसी अन्य दवा का प्रचार किया और कथित तौर पर उससे भारी मुनाफा कमाया, तो क्या यह भी सच नहीं है कि फार्मा कंपनियों ने ऐसी दवाएं बेचकर बहुत अधिक कमाई नहीं की जिनसे कोई स्वास्थ्य लाभ नहीं हुआ?

बिना इस बात की गारंटी के कि रेमडेसिविर जैसे इंजेक्शन प्रभावशाली हैं, ऊंची कीमतों पर इन्हें बेचा गया, जिससे दवा कंपनियों को भारी मुनाफा हुआ. इस दौरान, हजारों लोगों ने अस्पतालों में अपनी जान गंवाई, जिससे आम जनता के बीच यह व्यापक धारणा बन गई कि घर पर ही कोविड का इलाज करना सुरक्षित है.

यह समझना होगा कि सवाल आरोप-प्रत्यारोप का नहीं, बल्कि नैतिकता का है.

आईएमए और अन्य एलोपैथिक डॉक्टरों के पास आयुष या आयुष कंपनियों पर आरोप लगाने का कोई नैतिक आधार नहीं है. सभी चिकित्सा प्रणालियों का अंतिम लक्ष्य सार्वजनिक स्वास्थ्य और कल्याण की रक्षा करना और उसे बढ़ावा देना है.

जबकि आयुर्वेद स्वस्थ जीवन की अवधारणा पर आधारित है और हमारी प्राचीन ज्ञान परंपराओं के आधार पर कम लागत वाला इलाज प्रदान करता है, वहीं एलोपैथी कई गंभीर बीमारियों के लिए दवाएं और अन्य इलाज प्रदान करता है. दोनों प्रणालियां लोगों के कल्याण में योगदान दे सकती हैं. लेकिन किसी भी प्रणाली को यह दावा करने का अधिकार नहीं है कि अन्य सभी “अवैज्ञानिक” या “गलत” हैं. वास्तविक लक्ष्य एक-दूसरे को गलत ठहराने के बजाय लोगों के स्वास्थ्य में सुधार करना होना चाहिए.

(अश्वनी महाजन दिल्ली विश्वविद्यालय के पीजीडीएवी कॉलेज में प्रोफेसर हैं. उनका एक्स हैंडल @ashwani_mahajan है. व्यक्त किए गए विचार निजी हैं.)

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें.)


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