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मई दिवस- मोदी सरकार ने कैसे भारत को एक भयानक संकट के बीच लाकर खड़ा कर दिया

किसी ने यह देखने की कोशिश नहीं की कि भारत के पास पर्याप्त वैक्सीन, ऑक्सीजन, रेमडिसिविर दवा है या नहीं. अब देश ऐसे संकट में फंस गया है कि चार दशक बाद हम विदेशी मदद के मोहताज हो गए.

चित्रण: सोहम सेन/दिप्रिंट

1 मई को प्रकाशित इस स्तंभ का शीर्षक बिल्कुल संयोग से ऐसा बन गया है. यहां शब्दों का कोई खेल करने का इरादा नहीं है. बदकिस्मती से भारत आज जिस संकट में फंस गया है उसका बयान इसी तरह किया जा सकता है. वह ऑक्सीजन से लेकर एन-95 मास्क तक और ऑक्सीमीटर से लेकर वैक्सीन तक तमाम चीजों के लिए बड़े देशों से मदद मांग रहा है. और ये सारी चीजें लेकर जब विशाल मालवाही विमान हमारी धरती पर उतरेंगे तब हमारे तमाम केंद्रीय मंत्री खुशी से ट्वीट कर रहे होंगे. अभी कुछ सप्ताह पहले तक वे इस संभावना को बड़ी नफरत से खारिज कर रहे थे कि हमारे ‘न्यू इंडिया’ को विदेशी मदद की जरूरत पड़ सकती है.

हम कोई बाजी जीतने के दावे नहीं कर रहे, ऐसा हम कर भी नहीं सकते क्योंकि हम सब एक ही नाव में सवार हैं. वास्तव में इस बात का स्वागत किया जाना चाहिए कि इस भयानक राष्ट्रीय आपदा में सरकार ने विदेश से मदद लेने का फैसला किया है.

यूरोपीय संघ और ब्रिटेन ने कहा है कि वे भारत के अनुरोध पर कार्रवाई कर रहे हैं. ब्रिटेन से सहायता इसके ‘फॉरेन, कॉमनवेल्थ एंड डेवलपमेंट ऑफिस’ (एफसीडीओ) के जरिए और अमेरिका से ‘यूएसएआईडी’ के जरिए आ रही है. मोदी सरकार के मंत्री इसे साझा मूल्यों, मैत्री, आदि की शानदार मिसाल के रूप में पेश कर रहे हैं. यह हमने अपने छोटे शहर में घर में चीनी खत्म हो जाने पर पड़ोसी के घर से कटोरी भर चीनी बेझिझक उधार लेते हुए सीखा है. आखिर, पड़ोसी को भी ऐसी जरूरत पड़ती ही थी.

हमारी आज जो हालत है वह घर में चीनी खत्म होने वाली हालत से कहीं ज्यादा बुरी है. जब इमरान खान और शी जिंपिंग भी उदारता से आपकी मदद करने को आगे आ रहे हैं तो आपको समझ लेना चाहिए कि आप अंधी गली में पहुंच गए हैं. वे जो संदेश दे रहे हैं उसे समझिए. एक हमसे यह कह रहा है कि हम जो दिखावा करते रहे हैं, दरअसल हम उतनी बड़ी ताकत नहीं हैं. दूसरा हमें संरक्षक वाली मुद्रा में यह एहसास करा रहा है कि इस क्षेत्र में हम कहां खड़े हैं. खासकर तब जबकि वह आपसी सहयोग के मुद्दे पर इस उपमहादेश के विदेश मंत्रियों की बैठक बुलाने के संदेश भी दे रहा है. सहयोग का मुद्दा वास्तव में कोविड संकट में सहायता का ही है.

अपने निकटतम पड़ोसी को, जिसे भारत अपना प्रभाव क्षेत्र बनाना चाहता है, हमारा संदेश यही है कि हमें भी मालूम है कि कोविड से लड़ने में तुम सबको हमारी मदद की जरूरत पड़ेगी. लेकिन भारत के भरोसे मत रहो, फिलहाल तो खुद उसे दुनिया से मदद की जरूरत है.

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चीन यह कहना चाह रहा है कि आपने भारत से जिन वैक्सीन खुराकों और दवाओं की खरीद के ऑर्डर दिए थे उन्हें तो वह भेज नहीं पा रहा है. वैसे, कहा जा रहा है कि बैठक में भारत के विदेश मंत्री भी शामिल हो सकते हैं. इसे छुरे को बेरहमी से घुमाना ही कहा जाएगा. इसलिए हम कहते हैं कि आपके प्रतिद्वंदी जब बेहद नफीस और शालीन कूटनीतिक लफ्जों में आपका मखौल उड़ा रहे हों तब अपने मित्रों से मदद लेने और उन्हें शुक्रिया कहने में कोई नुकसान नहीं है.


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तब आखिर हम कहना क्या चाह रहे हैं?

कहना यह है कि जरूरतमंद देश की मदद की पेशकश करने के लिए बेशक बड़ा दिल चाहिए, मदद मांगने के लिए भी बड़ा दिल ही चाहिए. ऐसी विनम्रता बंद दिमाग वालों में नहीं आ सकती. क्योंकि तब आपको उत्तर कोरिया, क्यूबा या आज की वेनेजुएला सरकार जैसा बनना होगा. जानलेवा दलदल में फंसे होने पर भी अगर आप बड़ा दिल और खुला दिमाग रखते हैं, तो यह सब थोड़ा पहले ही अगर हम दिखा पाते तो क्या नुकसान हो जाता? खासकर तब, जबकि हम वायरस पर फतह पा लेने के दावे कर रहे थे और खुद को ‘वैक्सीन गुरू’ घोषित कर रहे थे?

जब हम अपनी केवल 1.5 प्रतिशत आबादी को ही वैक्सीन की खुराक दे पाए थे तभी प्रधानमंत्री ने दुनिया में ऐलान कर दिया था कि भारत ही उसका दवाखाना है. भारत में वैक्सीन के सबसे बड़े उत्पादक सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया (एसआईआई) को अगर विदेश से मिले ऑर्डर पूरे करने की इजाजत दी जाए या हमारी सरकार कुछ मित्र देशों को वैक्सीन भेंट में देकर ‘वैक्सीन मैत्री’ की बातें करें तो हम इसका स्वागत करेंगे.

बड़े देशों को ऐसा करना भी चाहिए लेकिन तभी जब ऐसे बड़े देश अपनी हालात पर भी गौर करें और ऐसा न हो कि वे जो चीज भेंट में दे रहे हैं उसी की तलाश में दुनिया भर के चक्कर लगा रहे हों. अगर आपके घर में कटोरी भर ही चीनी बची हो तब क्या आप उसे पड़ोसी को उधार देंगे?

एक बार फिर इसे लानत न मानी जाए लेकिन तथ्य यह है कि हमने वैक्सीन की 6 करोड़ खुराक बाहर भेज दी, जो आज वैक्सीन के लिए तरस रहे और गिनती के लोगों को टीका लगा रहे टीकाकरण केंद्रों के काम आ सकती थी. भारत को जिस तरह के टीकाकरण अभियान की जरूरत है वैसा अभियान चलाया जाए तो हमारी जो आबादी है उसके मद्देनजर 6 करोड़ और खुराकों के बूते हम कुछ हफ्ते और निकाल सकते थे. लेकिन तथ्य यह है कि हम वैक्सीन बाहर तो भेजते रहे मगर अपनी दो शानदार घरेलू कंपनियों को उत्पादन बढ़ाने के लिए हमने ऑर्डर नहीं दिए ताकि घरेलू जरूरत के लिए उनका भंडार जमा किया जा सके. यह हद दर्जे के आत्मविश्वास का ही प्रदर्शन था.

हमें मालूम है कि अग्रिम ऑर्डर देने का अर्थ था कीमत पर तेज वार्ता. जब यूएन 3 डॉलर की दर से भुगतान कर रहा था तब 2 डॉलर या 150 रुपये की मार्जिन कीमत को बड़ी राजनीतिक उपलब्धि माना जा रहा था. इसके अलावा, जरूरी मात्रा में अग्रिम ऑर्डर देने के लिए काफी बड़ा अग्रिम भुगतान करना पड़ता, जो बाद में ऑडिट में मुश्किल पैदा कर सकता था. लेकिन इन बातों की परवाह नौकरशाह करते हैं, वह नेता नहीं करता जो इन जालों को काटने के वादे करके सत्ता में आया हो.

अब हमारे सामने खुद का खड़ा किया हुआ तूफान है. वैक्सीन की कीमतों में अंतर का भ्रामक जोड़तोड़ है जिसमें केंद्र अलग कीमत देता है, तो राज्य अलग कीमत देते हैं. जब तक सरकार के पास पर्याप्त खुराकें उपलब्ध हैं तब तक मुझे फर्क नहीं पड़ता कि निजी क्षेत्र क्या कीमत मांग रहा है या दे रहा है.

दूसरा, आयुवर्ग पर आधारित वैक्सीन नीति है और कीमतों को लेकर घालमेल और भेदभाव है. तीसरे, सरकार को काफी पहले ही दोनों उत्पादकों की मांग पर अच्छा-खासा अग्रिम भुगतान करना पड़ा था. काश यह फैसला समय पर किया गया होता. और अंततः, हमारे पास पर्याप्त खुराकें हैं नहीं.

मई दिवस से सभी वयस्कों के लिए टीकाकरण शुरू किया जा रहा है लेकिन अधिकतर राज्यों के पास पर्याप्त वैक्सीन उपलब्ध नहीं है.

यह उस जानी-पहचानी पुरानी कहानी से कितनी मिलती-जुलती स्थिति है. एक गांव में एक आदमी को प्याज चुराते हुए पकड़ लिया जाता है. पंचायत उसे सज़ा सुनाती है, या तो 100 प्याज खाओ या उतने जूते खाओ. आदमी ने प्याज खाने का फैसला किया. लेकिन 10 प्याज खाने के बाद हार मान ली और जूते खाने को तैयार हुआ. 10 जूते खाए तो फिर पलट गया और प्याज खाने लगा. इस तरह एक के बाद एक उसने दोनों सजा भुगती.


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अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडन ने अमेरिकी कांग्रेस के संयुक्त अधिवेशन में पिछले सप्ताह कहा कि ऊपर से नीची आर्थिक लाभ पहुंचाने की अर्थनीति कभी सफल नहीं होती. उन्होंने यह ट्वीट भी किया कि अर्थव्यवस्थाएं अब नीचे से ऊपर की ओर विकास करेंगी और ‘मिडल आउट’ नीति अपनाएंगी. इसका तीखा विरोध होगा और उतने ही ठोस तर्क दिए जाएंगे. राजनीतिक अर्थव्यवस्थाओं के मामले में यह बहस शाश्वत रूप ले चुकी है.

लेकिन ऊपर से नीचे तक असर करने वाली बात को नेतृत्व के संदर्भ में खारिज नहीं किया जा सकता. नेतृत्व का प्रभाव ऊपर से नीचे तक जाता है. और नेता जितना सफल होता है, उसका असर नीचे तक उतना मजबूत होता है. समय से पहले जीत हासिल करने की घोषणा, उसका जोश उसकी टीम के दिमाग में सीधे घुस जाता है.

यही वजह है कि कोई यह जांचने की जहमत नहीं उठाता कि वैक्सीन, ऑक्सीजन, रेमडिसिविर और यहां तक कि पैरासिटामोल का पर्याप्त भंडार है या नहीं. कोई ऐसा बड़ा देश नहीं बचा है जहां इस वायरस की दूसरी लहर नहीं आई है. हर कोई जीत के दावे तो करता है मगर संकट जब दोबारा दस्तक देता है तब उसे सुनने से मना कर देता है.

दिल्ली में संक्रमण दर ‘अलविदा कोविड’ वाली 0.23 प्रतिशत से कोई रातोरात 32 प्रतिशत पर नहीं पहुंच गई. चार सप्ताह में ऐसी स्थिति बनी लेकिन किसी की नींद नहीं टूटी. बड़े नेता चुनाव जीतने में व्यस्त रहे और जब देश को एकता और मजबूती की जरूरत थी तब वे राज्यों के नेताओं की तौहीन करने में जुटे थे. सुर्खियां नीचे तक असर करती रहीं.

केरल और महाराष्ट्र में महामारी के विस्फोट के बाद भी कोई नींद से नहीं जागा. इसे दूर के दो राज्यों की समस्या मान कर छोड़ दिया गया. अगर हम यह उम्मीद कर रहे थे कि राज्यों की हमारी सीमाएं हमें उस वायरस से महफूज रखेंगी, तो हम खुद को नरसंहार के लिए ही प्रस्तुत कर रहे थे. और भारत को उस संकट में डाल रहे थे जिसके चलते उसे चार दशक बाद विदेशी सहायता की जरूरत पड़ गई.

लेकिन विजेता वाले हमारे तेवर अभी ढीले नहीं पड़े हैं. ऐसा होता तो हम इस गंभीर संकट के बारे में विदेशी मीडिया में आ रही खबरों के खिलाफ अपने आला राजनयिकों द्वारा शिकायत करवा के खुद को शर्मसार न करते कि हमारी यह हालत कैसे हुई, जबकि हम उन्हीं देशों से इस संकट में सहायता भी मांग रहे हैं.

(इस लेख को अंग्रेज़ी में पढ़ने के लिए यहां क्लिक करें)


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